शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

गोवर्धनधारण

 

श्रीशुक उवाच -

इन्द्रस्तदाऽऽत्मनः पूजां विज्ञाय विहतां नृप ।

गोपेभ्यः कृष्णनाथेभ्यो नन्दादिभ्यश्चुकोप ह ॥ १ ॥

गणं सांवर्तकं नाम मेघानां चान्तकारिणाम् ।

इन्द्रः प्रचोदयत् क्रुद्धो वाक्यं चाहेशमान्युत ॥ २ ॥

अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम् ।

कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम् ॥ ३ ॥

यथादृढैः कर्ममयैः क्रतुभिर्नामनौनिभैः ।

विद्यां आन्वीक्षिकीं हित्वा तितीर्षन्ति भवार्णवम् ॥ ४ ॥

वाचालं बालिशं स्तब्धं अज्ञं पण्डितमानिनम् ।

कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम् ॥ ५ ॥

एषां श्रियावलिप्तानां कृष्णेनाध्मापितात्मनाम् ।

धुनुत श्रीमदस्तम्भं पशून् नयत सङ्‌क्षयम् ॥ ६ ॥

अहं चैरावतं नागं आरुह्यानुव्रजे व्रजम् ।

मरुद्‍गणैर्महावेगैः नन्दगोष्ठजिघांसया ॥ ७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब इन्द्र को पता लगा कि मेरी पूजा बंद कर दी गयी है, तब वे नन्दबाबा आदि गोपों पर बहुत ही क्रोधित हुए। परंतु उनके क्रोध करनेसे होता क्या, उन गोपों के रक्षक तो स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्ण थे ॥ १ ॥ इन्द्रको अपने पद का बड़ा घमण्ड था, वे समझते थे कि मैं ही त्रिलोकी का ईश्वर हूँ। उन्होंने क्रोधसे तिलमिलाकर प्रलय करनेवाले मेघों के सांवतर्क नामक गण को व्रजपर चढ़ाई करनेकी आज्ञा दी और कहा॥ २ ॥ ओह, इन जंगली ग्वालों को इतना घमण्ड ! सचमुच यह धनका ही नशा है। भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बलपर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला ॥ ३ ॥ जैसे पृथ्वी पर बहुत-से मन्दबुद्धि पुरुष भवसागर से पार जाने के सच्चे साधन ब्रह्मविद्या को तो छोड़ देते हैं और नाममात्र की टूटी हुई नाव सेकर्ममय यज्ञोंसे इस घोर संसार-सागर को पार करना चाहते हैं ॥ ४ ॥ कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होनेपर भी अपनेको बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्युका ग्रास है। फिर भी उसीका सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है ॥ ५ ॥ एक तो ये यों ही धनके नशे में चूर हो रहे थे; दूसरे कृष्ण ने इनको और बढ़ावा दे दिया है। अब तुमलोग जाकर इनके इस धनके घमण्ड और हेकड़ी को धूल में मिला दो तथा उनके पशुओं का संहार कर डालो ॥ ६ ॥ मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे ऐरावत हाथीपर चढक़र नन्द के व्रज का नाश करने के लिये महापराक्रमी मरुद्गणों के साथ आता हूँ॥ ७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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