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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
गोवर्धनधारण
श्रीशुक
उवाच -
इत्थं
मघवताऽऽज्ञप्ता मेघा निर्मुक्तबन्धनाः ।
नन्दगोकुलमासारैः
पीडयामासुरोजसा ॥ ८ ॥
विद्योतमाना
विद्युद्भिः स्तनन्तः स्तनयित्नुभिः ।
तीव्रैर्मरुद्गणैर्नुन्ना
ववृषुर्जलशर्कराः ॥ ९ ॥
स्थूणास्थूला
वर्षधारा मुञ्चत्स्वभ्रेष्व-भीक्ष्णशः ।
जलौघैः
प्लाव्यमाना भूः नादृश्यत नतोन्नतम् ॥ १० ॥
अत्यासारातिवातेन
पशवो जातवेपनाः ।
गोपा
गोप्यश्च शीतार्ता गोविन्दं शरणं ययुः ॥ ११ ॥
शिरः
सुतांश्च कायेन प्रच्छाद्या सारपीडिताः ।
वेपमाना
भगवतः पादमूलमुपाययुः ॥ १२ ॥
कृष्ण
कृष्ण महाभाग त्वन्नाथं गोकुलं प्रभो ।
त्रातुमर्हसि
देवान्नः कुपिताद् भक्तवत्सल ॥ १३ ॥
शिलावर्षानिपातेन
हन्यमानमचेतनम् ।
निरीक्ष्य
भगवान् मेने कुपितेन्द्रकृतं हरिः ॥ १४ ॥
अपर्त्त्वत्युल्बणं
वर्षं अतिवातं शिलामयम् ।
स्वयागे
विहतेऽस्माभिः इन्द्रो नाशाय वर्षति ॥ १५ ॥
तत्र
प्रतिविधिं सम्यग् आत्मयोगेन साधये ।
लोकेशमानिनां
मौढ्याद् हनिष्ये श्रीमदं तमः ॥ १६ ॥
न
हि सद्भावयुक्तानां सुराणामीशविस्मयः ।
मत्तोऽसतां
मानभङ्गः प्रशमायोपकल्पते ॥ १७ ॥
तस्मात्
मच्छरणं गोष्ठं मन्नाथं मत्परिग्रहम् ।
गोपाये
स्वात्मयोगेन सोऽयं मे व्रत आहितः ॥ १८ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! इन्द्र ने इस प्रकार प्रलय के मेघों को आज्ञा दी और उनके
बन्धन खोल दिये। अब वे बड़े वेग से नन्दबाबा के व्रजपर चढ़ आये और मूसलधार पानी
बरसाकर सारे व्रज को पीडि़त करने लगे ॥ ८ ॥ चारों ओर बिजलियाँ चमकने लगीं, बादल आपस में टकराकर कडक़ने लगे और प्रचण्ड आँधी की प्रेरणा से वे
बड़े-बड़े ओले बरसाने लगे ॥९॥ इस प्रकार जब दल-के-दल बादल बार-बार आ-आकर खंभे के
समान मोटी-मोटी धाराएँ गिराने लगे तब व्रजभूमि का कोना-कोना पानी से भर गया और
कहाँ नीचा है, कहाँ ऊँचा—इसका पता चलना
कठिन हो गया ॥ १० ॥ इस प्रकार मूसलधार वर्षा तथा झंझावातके झपाटेसे जब एक-एक पशु
ठिठुरने और काँपने लगा, ग्वाल और ग्वालिनें भी ठंडके मारे
अत्यन्त व्याकुल हो गयीं, तब वे सब-के-सब भगवान्
श्रीकृष्णकी शरण में आये ॥ ११ ॥ मूसलधार वर्षासे सताये जानेके कारण सबने अपने-अपने
सिर और बच्चोंको निहुककर अपने शरीर के नीचे छिपा लिया था और वे काँपते- काँपते
भगवान् की चरणशरणमें पहुँचे ॥ १२ ॥ और बोले—‘प्यारे
श्रीकृष्ण ! तुम बड़े भाग्यवान् हो। अब तो कृष्ण ! केवल तुम्हारे ही भाग्यसे हमारी
रक्षा होगी। प्रभो ! इस सारे गोकुलके एकमात्र स्वामी, एकमात्र
रक्षक तुम्ही हो। भक्तवत्सल ! इन्द्रके क्रोधसे अब तुम्हीं हमारी रक्षा कर सकते हो’
॥ १३ ॥ भगवान् ने देखा कि वर्षा और ओलोंकी मारसे पीडि़त होकर सब
बेहोश हो रहे हैं। वे समझ गये कि यह सारी करतूत इन्द्रकी है। उन्होंने ही क्रोधवश
ऐसा किया है ॥ १४ ॥ वे मन-ही-मन कहने लगे—‘हमने इन्द्रका
यज्ञ-भङ्ग कर दिया है, इसीसे वे व्रजका नाश करनेके लिये बिना
ऋतुके ही यह प्रचण्ड वायु और ओलोंके साथ घनघोर वर्षा कर रहे हैं ॥ १५ ॥ अच्छा,
मैं अपनी योगमाया से इसका भलीभाँति जवाब दूँगा। ये मूर्खतावश अपने को
लोकपाल मानते हैं, इनके ऐश्वर्य और धनका घमण्ड तथा अज्ञान
मैं चूर-चूर कर दूँगा ॥१६॥ देवतालोग तो सत्त्वप्रधान होते हैं। इनमें अपने ऐश्वर्य
और पदका अभिमान न होना चाहिये। अत: यह उचित ही है कि इन सत्त्वगुण से च्युत दुष्ट
देवताओं का मैं मान-भङ्ग कर दूँ। इससे अन्तमें उन्हें शान्ति ही मिलेगी ॥ १७ ॥ यह
सारा व्रज मेरे आश्रित है, मेरे द्वारा स्वीकृत है और
एकमात्र मैं ही इसका रक्षक हूँ। अत: मैं अपनी योगमाया से इसकी रक्षा करूँगा। संतों
की रक्षा करना तो मेरा व्रत ही है। अब उसके पालनका अवसर आ पहुँचा है’[*] ॥ १८ ॥
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भगवान् कहते हैं—
“सकृदेव
प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं
सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम ।।“
‘जो केवल एक बार मेरी शरण में आ जाता है और ‘मैं
तुम्हारा हूँ’ इस प्रकार याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ—यह
मेरा व्रत है।’
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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