शनिवार, 11 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

गोवर्धनधारण

 

इत्युक्त्वैकेन हस्तेन कृत्वा गोवर्धनाचलम् ।

दधार लीलया कृष्णः छत्राकमिव बालकः ॥ १९ ॥

अथाह भगवान् गोपान् हेऽम्ब तात व्रजौकसः ।

यथोपजोषं विशत गिरिगर्तं सगोधनाः ॥ २० ॥

न त्रास इह वः कार्यो मद्धस्ताद्रिनिपातने ।

वातवर्षभयेनालं तत्त्राणं विहितं हि वः ॥ २१ ॥

तथा निर्विविशुर्गर्तं कृष्णाश्वासितमानसः ।

यथावकाशं सधनाः सव्रजाः सोपजीविनः ॥ २२ ॥

क्षुत्तृड्व्यथां सुखापेक्षां हित्वा तैर्व्रजवासिभिः ।

वीक्ष्यमाणो दधावद्रिं सप्ताहं नाचलत् पदात् ॥ २३ ॥

कृष्णयोगानुभावं तं निशम्येन्द्रोऽतिविस्मितः ।

निःस्तम्भो भ्रष्टसङ्‌कल्पः स्वान् मेघान् संन्यवारयत् ॥ २४ ॥

खं व्यभ्रमुदितादित्यं वातवर्षं च दारुणम् ।

निशम्योपरतं गोपान् गोवर्धनधरोऽब्रवीत् ॥ ॥

निर्यात त्यजत त्रासं गोपाः सस्त्रीधनार्भकाः ।

उपारतं वातवर्षं व्युदप्रायाश्च निम्नगाः ॥ २६ ॥

ततस्ते निर्ययुर्गोपाः स्वं स्वमादाय गोधनम् ।

शकटोढोपकरणं स्त्रीबालस्थविराः शनैः ॥ २७ ॥

भगवानपि तं शैलं स्वस्थाने पूर्ववत्प्रभुः ।

पश्यतां सर्वभूतानां स्थापयामास लीलया ॥ २८ ॥

 

इस प्रकार कहकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में एक ही हाथसे गिरिराज गोवर्धन को उखाड़ लिया और जैसे छोटे-छोटे बालक बरसाती छत्ते के पुष्प को उखाडक़र हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही उन्होंने उस पर्वत को धारण कर लिया ॥ १९ ॥ इसके बाद भगवान्‌ने गोपों से कहा—‘माताजी, पिताजी और व्रजवासियो ! तुमलोग अपनी गौओं और सब सामग्रियोंके साथ इस पर्वतके गड्ढेमें आकर आरामसे बैठ जाओ ॥ २० ॥ देखो, तुमलोग ऐसी शङ्का न करना कि मेरे हाथसे यह पर्वत गिर पड़ेगा। तुमलोग तनिक भी मत डरो। इस आँधी-पानीके डरसे तुम्हें बचानेके लिये ही मैंने यह युक्ति रची है॥ २१ ॥ जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार सबको आश्वासन दियाढाढ़स बँधाया, तब सब-के-सब ग्वाल अपने-अपने गोधन, छकड़ों, आश्रितों, पुरोहितों और भृत्योंको अपने-अपने साथ लेकर सुभीते के अनुसार गोवद्र्धनके गड्ढेमें आ घुसे ॥ २२ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने सब व्रजवासियोंके देखते-देखते भूख-प्यासकी पीड़ा, आराम-विश्रामकी आवश्यकता आदि सब कुछ भुलाकर सात दिनतक लगातार उस पर्वतको उठाये रखा। वे एक डग भी वहाँसे इधर-उधर नहीं हुए ॥ २३ ॥ श्रीकृष्ण की योगमाया का यह प्रभाव देखकर इन्द्र के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अपना संकल्प पूरा न होनेके कारण उनकी सारी हेकड़ी बंद हो गयी, वे भौचक्के-से रह गये। इसके बाद उन्होंने मेघों को अपने-आप वर्षा करनेसे रोक दिया ॥ २४ ॥ जब गोवर्धनधारी भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने देखा कि वह भयङ्कर आँधी और घनघोर वर्षा बंद हो गयी, आकाशसे बादल छँट गये और सूर्य दीखने लगे, तब उन्होंने गोपोंसे कहा॥ २५ ॥ मेरे प्यारे गोपो ! अब तुमलोग निडर हो जाओ और अपनी स्त्रियों, गोधन तथा बच्चों के साथ बाहर निकल आओ। देखो, अब आँधी- पानी बंद हो गया तथा नदियों का पानी भी उतर गया॥ २६ ॥ भगवान्‌ की ऐसी आज्ञा पाकर अपने-अपने गोधन, स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों को साथ ले तथा अपनी सामग्री छकड़ों पर लादकर धीरे-धीरे सब लोग बाहर निकल आये ॥ २७ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने भी सब प्राणियों के देखते-देखते खेल-खेल में ही गिरिराज को पूर्ववत् उसके स्थानपर रख दिया ॥ २८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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