॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०८)
चीरहरण
हृदय
और बुद्धिके सर्वथा विपरीत होनेपर भी यदि थोड़ी देरके लिये मान लें कि श्रीकृष्ण
भगवान् नहीं थे या उनकी यह लीला मानवी थी तो भी तर्क और युक्तिके सामने ऐसी कोई
बात नहीं टिक पाती,
जो श्रीकृष्णके चरित्रमें लाञ्छन हो। श्रीमद्भागवतका पारायण
करनेवाले जानते हैं कि व्रजमें श्रीकृष्णने केवल ग्यारह वर्षकी अवस्थातक ही निवास
किया था। यदि रासलीलाका समय दसवाँ वर्ष मानें, तो नवें
वर्षमें ही चीरहरण लीला हुई थी। इस बातकी कल्पना भी नहीं हो सकती कि आठ-नौ वर्षके
बालकमें कामोत्तेजना हो सकती है। गाँवकी गँवारिन ग्वालिनें, जहाँ
वर्तमानकालकी नागरिक मनोवृत्ति नहीं पहुँच पायी है, एक आठ-नौ
वर्षके बालकसे अवैध सम्बन्ध करना चाहें और उसके लिये साधना करें—यह कदापि सम्भव नहीं दीखता। उन कुमारी गोपियोंके मनमें कलुषित वृत्ति थी,
यह वर्तमान कलुषित मनोवृत्तिकी उट्टङ्कना है। आजकल जैसे गाँवकी
छोटी-छोटी लड़कियाँ ‘राम’-सा वर और ‘लक्ष्मण’-सा देवर पानेके लिये देवी- देवताओंकी पूजा
करती हैं, वैसे ही उन कुमारियोंने भी परम सुन्दर परम मधुर
श्रीकृष्णको पानेके लिये देवी-पूजन और व्रत किये थे। इसमें दोषकी कौन-सी बात है ?
आजकी
बात निराली है। भोगप्रधान देशोंमें तो नग्नसम्प्रदाय और नग्न स्नान के क्लब भी बने
हुए हैं ! उनकी दृष्टि इन्द्रिय-तृप्तितक ही सीमित है। भारतीय मनोवृत्ति इस
उत्तेजक एवं मलिन व्यापारके विरुद्ध है। नग्रस्नान एक दोष है, जो कि पशुत्वको बढ़ानेवाला है। शास्त्रोंमें इसका निषेध है, ‘न नग्न: स्नायात्’—यह शास्त्रकी आज्ञा है। श्रीकृष्ण
नहीं चाहते थे कि गोपियाँ शास्त्रके विरुद्ध आचरण करें। केवल लौकिक अनर्थ ही नहीं—भारतीय ऋषियोंका वह सिद्धान्त, जो प्रत्येक वस्तुमें
पृथक्-पृथक् देवताओंका अस्तित्व मानता है, इस नग्नस्नान को
देवताओंके विपरीत बतलाता है। श्रीकृष्ण जानते थे कि इससे वरुण देवताका अपमान होता
है। गोपियाँ अपनी अभीष्ट-सिद्धिके लिये जो तपस्या कर रही थीं, उसमें उनका नग्रस्नान अनिष्ट फल देनेवाला था और इस प्रथाके प्रभातमें ही
यदि इसका विरोध न कर दिया जाय तो आगे चलकर इसका विस्तार हो सकता है; इसलिये श्रीकृष्णने अलौकिक ढंगसे निषेध कर दिया।
गाँवोंकी
ग्वालिनोंको इस प्रथाकी बुराई किस प्रकार समझायी जाय, इसके लिये भी श्रीकृष्णने एक मौलिक उपाय सोचा। यदि वे गोपियोंके पास जाकर
उन्हें देवतावादकी फिलासफी समझाते, तो वे सरलतासे नहीं समझ
सकती थीं। उन्हें तो इस प्रथाके कारण होनेवाली विपत्तिका प्रत्यक्ष अनुभव करा देना
था। और विपत्तिका अनुभव करानेके पश्चात् उन्होंने देवताओंके अपमानकी बात भी बता दी
तथा अञ्जलि बाँधकर क्षमा-प्रार्थनारूप प्रायश्चित्त भी करवाया। महापुरुषोंमें उनकी
बाल्यावस्थामें भी ऐसी प्रतिभा देखी जाती है।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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