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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०९)
चीरहरण
श्रीकृष्ण
आठ-नौ वर्षके थे,
उनमें कामोत्तेजना नहीं हो सकती और नग्रस्नानकी कुप्रथाको नष्ट
करनेके लिये उन्होंने चीरहरण किया—यह उत्तर सम्भव होनेपर भी
मूलमें आये हुए ‘काम’ और ‘रमण’ शब्दोंसे कई लोग भडक़ उठते हैं। यह केवल शब्दकी
पकड़ है, जिसपर महात्मालोग ध्यान नहीं देते। श्रुतियोंमें और
गीतामें भी अनेकों बार ‘काम’ ‘रमण’
और ‘रति’ आदि शब्दोंका
प्रयोग हुआ है; परंतु वहाँ उनका अश्लील अर्थ नहीं होता।
गीतामें तो ‘धर्माविरुद्ध काम’ को
परमात्माका स्वरूप बतलाया गया है। महापुरुषोंका आत्मरमण, आत्ममिथुन
और आत्मरति प्रसिद्ध ही है। ऐसी स्थितिमें केवल कुछ शब्दोंको देखकर भडक़ना विचारशील
पुरुषोंका काम नहीं है। जो श्रीकृष्णको केवल मनुष्य समझते हैं उन्हें रमण और रति
शब्दका अर्थ केवल क्रीडा अथवा खिलवाड़ समझना चाहिये, जैसा कि
व्याकरणके अनुसार ठीक है—‘रमु क्रीडायाम्’।
दृष्टिभेदसे
श्रीकृष्णकी लीला भिन्न-भिन्न रूपमें दीख पड़ती है। अध्यात्मवादी श्रीकृष्णको
आत्माके रूपमें देखते हैं और गोपियोंको वृत्तियोंके रूपमें। वृत्तियोंका आवरण नष्ट
हो जाना ही ‘चीरहरण-लीला’ है और उनका आत्मामें रम जाना ही ‘रास’ है। इस दृष्टिसे भी समस्त लीलाओंकी संगति बैठ
जाती है। भक्तोंकी दृष्टिसे गोलोकाधिपति पूर्णतम पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णका
यह सब नित्यलीला-विलास है और अनादिकालसे अनन्तकालतक यह नित्य चलता रहता है। कभी-
कभी भक्तोंपर कृपा करके वे अपने नित्य धाम और नित्य सखा-सहचरियोंके साथ
लीला-धाममें प्रकट होकर लीला करते हैं और भक्तोंके स्मरण-चिन्तन तथा आनन्दमङ्गलकी
सामग्री प्रकट करके पुन: अन्तर्धान हो जाते हैं। साधकोंके लिये किस प्रकार कृपा
करके भगवान् अन्तर्मलको और अनादिकालसे सञ्चित संस्कारपटको विशुद्ध कर देते हैं,
यह बात भी इस चीरहरण-लीलासे प्रकट होती है। भगवान्की लीला रहस्यमयी
है, उसका तत्त्व केवल भगवान् ही जानते हैं और उनकी कृपासे
उनकी लीलामें प्रविष्ट भाग्यवान् भक्त कुछ-कुछ जानते हैं। यहाँ तो शास्त्रों और
संतोंकी वाणीके आधारपर ही कुछ लिखनेकी धृष्टता की गयी है।
-----हनुमानप्रसाद
पोद्दार
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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