॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ
अध्याय..(पोस्ट१०)
चीरहरण
श्रीशुक
उवाच ।
इत्यादिष्टा
भगवता लब्धकामाः कुमारिकाः ।
ध्यायन्त्यस्तत्
पदाम्भोजं कृच्छ्रात् निर्विविशुर्व्रजम् ॥ २८ ॥
अथ
गोपैः परिवृतो भगवान् देवकीसुतः ।
वृन्दावनाद्
गतो दूरं चारयन् गाः सहाग्रजः ॥ २९ ॥
निदघार्कातपे
तिग्मे छायाभिः स्वाभिरात्मनः ।
आतपत्रायितान्
वीक्ष्य द्रुमानाह व्रजौकसः ॥ ३० ॥
हे
स्तोककृष्ण हे अंशो श्रीदामन् सुबलार्जुन ।
विशालर्षभ
तेजस्विन् देवप्रस्थ वरूथप ॥ ३१ ॥
पश्यतैतान्
महाभागान् परार्थैकान्तजीवितान् ।
वातवर्षातपहिमान्
सहन्तो वारयन्ति नः ॥ ३२ ॥
अहो
एषां वरं जन्म सर्व प्राण्युपजीवनम् ।
सुजनस्येव
येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिनः ॥ ३३ ॥
पत्रपुष्पफलच्छाया
मूलवल्कलदारुभिः ।
गन्धनिर्यासभस्मास्थि
तोक्मैः कामान् वितन्वते ॥ ३४ ॥
एतावत्
जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु ।
प्राणैरर्थैर्धिया
वाचा श्रेय एवाचरेत् सदा ॥ ३५ ॥
इति
प्रवालस्तबक फलपुष्पदलोत्करैः ।
तरूणां
नम्रशाखानां मध्यतो यमुनां गतः ॥ ३६ ॥
तत्र
गाः पाययित्वापः सुमृष्टाः शीतलाः शिवाः ।
ततो
नृप स्वयं गोपाः कामं स्वादु पपुर्जलम् ॥ ३७ ॥
तस्या
उपवने कामं चारयन्तः पशून् नृप ।
कृष्णरामौ
उवुपागम्य क्षुधार्ता इदमब्रवन् ॥ ३८ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् की यह आज्ञा पाकर वे कुमारियाँ भगवान् श्रीकृष्णके
चरण—कमलोंका ध्यान करती हुई जानेकी इच्छा न होनेपर भी बड़े
कष्टसे व्रजमें गयीं। अब उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो चुकी थीं ॥ २८ ॥
प्रिय
परीक्षित् ! एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजी और ग्वालबालोंके साथ गौएँ चराते
हुए वृन्दावनसे बहुत दूर निकल गये ॥ २९ ॥ ग्रीष्म ऋतु थी। सूर्यकी किरणें बहुत ही
प्रखर हो रही थीं। परंतु घने-घने वृक्ष भगवान् श्रीकृष्णके ऊपर छत्तेका काम कर
रहे थे। भगवान् श्रीकृष्णने वृक्षोंको छाया करते देख स्तोककृष्ण, अंशु, श्रीदामा, सुबल, अर्जुन, विशाल, ऋषभ, तेजस्वी, देवप्रस्थ और वरूथप आदि ग्वालबालोंको
सम्बोधन करके कहा— ॥ ३०-३१ ॥ ‘मेरे
प्यारे मित्रो ! देखो, ये वृक्ष कितने भाग्यवान् हैं ! इनका
सारा जीवन केवल दूसरोंकी भलाई करनेके लिये ही है। ये स्वयं तो हवाके झोंके,
वर्षा, धूप और पाला—सब
कुछ सहते हैं, परंतु हमलोगोंकी उनसे रक्षा करते हैं ॥ ३२ ॥
मैं कहता हूँ कि इन्हींका जीवन सबसे श्रेष्ठ है। क्योंकि इनके द्वारा सब
प्राणियोंको सहारा मिलता है, उनका जीवन-निर्वाह होता है।
जैसे किसी सज्जन पुरुषके घरसे कोई याचक खाली हाथ नहीं लौटता, वैसे ही इन वृक्षोंसे भी सभीको कुछ-न-कुछ मिल ही जाता है ॥ ३३ ॥ ये अपने
पत्ते, फूल, फल, छाया,
जड़, छाल, लकड़ी,
गन्ध, गोंद, राख,
कोयला, अङ्कुर और कोंपलोंसे भी लोगोंकी कामना
पूर्ण करते हैं ॥ ३४ ॥ मेरे प्यारे मित्रो ! संसारमें प्राणी तो बहुत हैं; परंतु उनके जीवनकी सफलता इतनेमें ही है कि जहाँतक हो सके अपने धनसे,
विवेक- विचारसे, वाणीसे और प्राणोंसे भी ऐसे
ही कर्म किये जायँ, जिनसे दूसरोंकी भलाई हो ॥ ३५ ॥ परीक्षित्
! दोनों ओरके वृक्ष नयी-नयी कोंपलों, गुच्छों, फल-फूलों और पत्तोंसे लद रहे थे। उनकी डालियाँ पृथ्वीतक झुकी हुई थीं। इस
प्रकार भाषण करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण उन्हींके बीचसे यमुना-तटपर निकल आये ॥ ३६
॥ राजन् ! यमुनाजीका जल बड़ा ही मधुर, शीतल और स्वच्छ था। उन
लोगोंने पहले गौओंको पिलाया और इसके बाद स्वयं भी जी भरकर स्वादु जलका पान किया ॥
३७ ॥ परीक्षित् ! जिस समय वे यमुनाजीके तटपर हरे-भरे उपवनमें बड़ी स्वतन्त्रतासे
अपनी गौएँ चरा रहे थे, उसी समय कुछ भूखे ग्वालोंने भगवान्
श्रीकृष्ण और बलरामजीके पास आकर यह बात कही— ॥ ३८ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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