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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
चीरहरण
तासां
विज्ञाय भगवान् स्वपादस्पर्शकाम्यया ।
धृतव्रतानां
सङ्कल्पं आह दामोदरोऽबलाः ॥ २४ ॥
सङ्कल्पो
विदितः साध्व्यो भवतीनां मदर्चनम् ।
मयानुमोदितः
सोऽसौ सत्यो भवितुमर्हति ॥ २५ ॥
न
मय्यावेशितधियां कामः कामाय कल्पते ।
भर्जिता
क्वथिता धाना प्रायो बीजाय नेशते ॥ २६ ॥
याताबला
व्रजं सिद्धा मयेमा रंस्यथा क्षपाः ।
यदुद्दिश्य
व्रतमिदं चेरुरार्यार्चनं सतीः ॥ २७ ॥
भगवान्
श्रीकृष्ण ने देखा कि उन कुमारियों ने उनके चरणकमलों के स्पर्श की कामना से ही
व्रत धारण किया है और उनके जीवनका यही एकमात्र संकल्प है। तब गोपियोंके प्रेमके
अधीन होकर ऊखलतकमें बँध जानेवाले भगवान् ने उनसे कहा— ॥ २४ ॥ ‘मेरी परम प्रेयसी कुमारियो ! मैं तुम्हारा
यह संकल्प जानता हूँ कि तुम मेरी पूजा करना चाहती हो। मैं तुम्हारी इस अभिलाषाका
अनुमोदन करता हूँ, तुम्हारा यह संकल्प सत्य होगा। तुम मेरी
पूजा कर सकोगी ॥ २५ ॥ जिन्होंने अपना मन और प्राण मुझे समर्पित कर रखा है, उनकी कामनाएँ उन्हें सांसारिक भोगों की ओर ले जाने में समर्थ नहीं होतीं;
ठीक वैसे ही, जैसे भुने या उबाले हुए बीज फिर
अङ्कुर के रूप में उगनेके योग्य नहीं रह जाते ॥ २६ ॥ इसलिये कुमारियो ! अब तुम
अपने-अपने घर लौट जाओ। तुम्हारी साधना सिद्ध हो गयी है। तुम आनेवाली शरद् ऋतु की
रात्रियों में मेरे साथ विहार करोगी। सतियो ! इसी उद्देश्यसे तो तुमलोगों ने यह
व्रत और कात्यायनी देवी की पूजा की थी’ [*] ॥ २७ ॥
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[*]
चीर-हरणके प्रसंगको लेकर कई तरहकी शङ्काएँ की जाती हैं, अतएव इस सम्बन्धमें कुछ विचार करना आवश्यक है। वास्तवमें बात यह है कि
सच्चिदानन्दघन भगवान्की दिव्य मधुर रसमयी लीलाओंका रहस्य जाननेका सौभाग्य बहुत
थोड़े लोगोंको होता है। जिस प्रकार भगवान् चिन्मय हैं, उसी
प्रकार उनकी लीला भी चिन्मयी ही होती है। सच्चिदानन्द रसमय-साम्राज्यके जिस
परमोन्नत स्तरमें यह लीला हुआ करती है। उसकी ऐसी विलक्षणता है कि कई बार तो
ज्ञान-विज्ञानस्वरूप विशुद्ध चेतन परम ब्रह्ममें भी उसका प्राकट्य नहीं होता और
इसीलिये ब्रह्म-साक्षात्कार को प्राप्त महात्मा लोग भी इस लीला-रसका समास्वादन
नहीं कर पाते। भगवान्की इस परमोज्ज्वल दिव्य-रस-लीलाका यथार्थ प्रकाश तो भगवान्की
स्वरूपभूता ह्लादिनी शक्ति नित्यनिकुञ्जेश्वरी श्रीवृषभानुनन्दिनी श्रीराधाजी और
तदङ्गभूता प्रेममयी गोपियोंके ही हृदयमें होता है और वे ही निरावरण होकर भगवान् की
इस परम अन्तरङ्ग रसमयी लीलाका समास्वादन करती हैं।
यों
तो भगवान् के जन्म-कर्मकी सभी लीलाएँ दिव्य होती हैं, परंतु व्रजकी लीला, व्रजमें निकुञ्जलीला और
निकुञ्जमें भी केवल रसमयी गोपियोंके साथ होनेवाली मधुर लीला तो दिव्यातिदिव्य और
सर्वगुह्यतम है। यह लीला सर्वसाधारणके सम्मुख प्रकट नहीं है, अन्तरङ्ग लीला है और इसमें प्रवेशका अधिकार केवल श्रीगोपीजनोंको ही है
अस्तु,
दशम
स्कन्धके इक्कीसवें अध्यायमें ऐसा वर्णन आया है कि भगवान् की रूप-माधुरी, वंशीध्वनि और प्रेममयी लीलाएँ देख-सुनकर गोपियाँ मुग्ध हो गयीं। बाईसवें
अध्यायमें उसी प्रेमकी पूर्णता प्राप्त करनेके लिये वे साधनमें लग गयी हैं। इसी
अध्यायमें भगवान् ने आकर उनकी साधना पूर्ण की है। यही चीर-हरणका प्रसङ्ग है।
गोपियाँ
क्या चाहती थीं,
यह बात उनकी साधनासे स्पष्ट है। वे चाहती थीं—श्रीकृष्णके
प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण, श्रीकृष्णके साथ इस प्रकार घुल-मिल
जाना कि उनका रोम-रोम, मन-प्राण, सम्पूर्ण
आत्मा केवल श्रीकृष्णमय हो जाय। शरत्-कालमें उन्होंने श्रीकृष्णकी वंशीध्वनिकी
चर्चा आपसमें की थी, हेमन्तके पहले ही महीनेमें अर्थात्
भगवान्के विभूतिस्वरूप मार्गशीर्षमें उनकी साधना प्रारम्भ हो गयी। विलम्ब उनके
लिये असह्य था। जाड़ेके दिनमें वे प्रात:काल ही यमुना-स्नानके लिये जातीं, उन्हें शरीरकी परवा नहीं थी। बहुत-सी कुमारी ग्वालिनें एक साथ ही जातीं,
उनमें ईष्र्या-द्वेष नहीं था। वे ऊँचे स्वरसे श्रीकृष्णका नामकीर्तन
करती हुई जातीं, उन्हें गाँव और जातिवालोंका भय नहीं था। वे
घरमें भी हविष्यान्नका ही भोजन करतीं, वे श्रीकृष्णके लिये
इतनी व्याकुल हो गयी थीं कि उन्हें माता-पिता तक का संकोच नहीं था। वे विधिपूर्वक
देवीकी बालुकामयी मूर्ति बनाकर पूजा और मन्त्र-जप करती थीं। अपने इस कार्यको
सर्वथा उचित और प्रशस्त मानती थीं। एक वाक्यमें—उन्होंने
अपना कुल, परिवार, धर्म, संकोच और व्यक्तित्व भगवान्के चरणोंमें सर्वथा समर्पण कर दिया था। वे यही
जपती रहती थीं कि एकमात्र नन्दनन्दन ही हमारे प्राणोंके स्वामी हों। श्रीकृष्ण तो
वस्तुत: उनके स्वामी थे ही। परंतु लीलाकी दृष्टिसे उनके समर्पणमें थोड़ी कमी थी।
वे निरावरणरूपसे श्रीकृष्णके सामने नहीं जा रही थीं, उनमें
थोड़ी झिझक थी; उनकी यही झिझक दूर करनेके लिये—उनकी साधना, उनका समर्पण पूर्ण करनेके लिये उनका
आवरण भङ्ग कर देनेकी आवश्यकता थी, उनका यह आवरणरूप चीर हर
लेना जरूरी था और यही काम भगवान् श्रीकृष्णने किया। इसीके लिये वे योगेश्वरोंके
ईश्वर भगवान् अपने मित्र ग्वालबालोंके साथ यमुनातटपर पधारे थे।
साधक
अपनी शक्ति से,
अपने बल और संकल्प से केवल अपने निश्चय से पूर्ण समर्पण नहीं कर
सकता। समर्पण भी एक क्रिया है और उसका करनेवाला असमर्पित ही रह जाता है। ऐसी
स्थिति में अन्तरात्मा का पूर्ण समर्पण तब होता है, जब
भगवान् स्वयं आकर वह संकल्प स्वीकार करते हैं और संकल्प करनेवाले को भी स्वीकार
करते हैं। यहीं जाकर समर्पण पूर्ण होता है। साधक का कर्तव्य है—पूर्ण समर्पण की तैयारी। उसे पूर्ण तो भगवान् ही करते हैं।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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