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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
रासलीलाका
आरम्भ
श्रीभगवानुवाच
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स्वागतं
वो महाभागाः प्रियं किं करवाणि वः ।
व्रजस्यानामयं
कच्चिद् ब्रूतागमनकारणम् ॥ १८ ॥
रजन्येषा
घोररूपा घोरसत्त्वनिषेविता ।
प्रतियात
व्रजं नेह स्थेयं स्त्रीभिः सुमध्यमाः ॥ १९ ॥
मातरः
पितरः पुत्रा भ्रातरः पतयश्च वः ।
विचिन्वन्ति
ह्यपश्यन्तो मा कृढ्वं बन्धुसाध्वसम् ॥ २० ॥
दृष्टं
वनं कुसुमितं राकेश कररञ्जितम् ।
यमुना
अनिललीलैजत् तरुपल्लवशोभितम् ॥ २१ ॥
तद्
यात मा चिरं गोष्ठं शुश्रूषध्वं पतीन् सतीः ।
क्रन्दन्ति
वत्सा बालाश्च तान् पाययत दुह्यत ॥ २२ ॥
अथवा
मदभिस्नेहाद् भवत्यो यन्त्रिताशयाः ।
आगता
ह्युपपन्नं वः प्रीयन्ते मयि जन्तवः ॥ २३ ॥
भर्तुः
शुश्रूषणं स्त्रीणां परो धर्मो ह्यमायया ।
तद्बन्धूनां
च कल्याणः प्रजानां चानुपोषणम् ॥ २४ ॥
दुःशीलो
दुर्भगो वृद्धो जडो रोग्यधनोऽपि वा ।
पतिः
स्त्रीभिर्न हातव्यो लोकेप्सुभिरपातकी ॥ २५ ॥
अस्वर्ग्यमयशस्यं
च फल्गु कृच्छ्रं भयावहम् ।
जुगुप्सितं
च सर्वत्र ह्यौपपत्यं कुलस्त्रियः ॥ २६ ॥
श्रवणाद्
दर्शनाद् ध्यानाद् मयि भावोऽनुकीर्तनात् ।
न
तथा सन्निकर्षेण प्रतियात ततो गृहान् ॥ २७ ॥
भगवान्
श्रीकृष्णने कहा—महाभाग्यवती गोपियो ! तुम्हारा स्वागत है। बतलाओ, तुम्हें
प्रसन्न करनेके लिये मैं कौन-सा काम करूँ ? व्रजमें तो सब
कुशल-मङ्गल है न ? कहो, इस समय यहाँ
आनेकी क्या आवश्यकता पड़ गयी ? ॥ १८ ॥ सुन्दरी गोपियो !
रातका समय है, यह स्वयं ही बड़ा भयावना होता है और इसमें
बड़े-बड़े भयावने जीव-जन्तु इधर-उधर घूमते रहते हैै.। अत: तुम सब तुरंत व्रजमें
लौट जाओ। रातके समय घोर जंगलमें स्त्रियोंको नहीं रुकना चाहिये ॥ १९ ॥ तुम्हें न
देखकर तुम्हारे माँ-बाप, पति-पुत्र और भाई-बन्धु ढूँढ़ रहे
होंगे। उन्हें भयमें न डालो ॥ २० ॥ तुमलोगोंने रंग-बिरंगे पुष्पोंसे लदे हुए इस
वनकी शोभाको देखा। पूर्ण चन्द्रमाकी कोमल रश्मियोंसे यह रँगा हुआ है, मानो उन्होंने अपने हाथों चित्रकारी की हो; और
यमुनाजीके जलका स्पर्श करके बहनेवाले शीतल समीरकी मन्द-मन्द गतिसे हिलते हुए ये
वृक्षोंके पत्ते तो इस वनकी शोभाको और भी बढ़ा रहे हैं। परंतु अब तो तुमलोगोंने यह
सब कुछ देख लिया ॥ २१ ॥ हे सतियो ! अब देर मत करो, शीघ्र-से-शीघ्र
व्रजमें लौट जाओ। अपने पतियोंकी सेवा-शुश्रूषा करो। देखो, तुम्हारे
घरके नन्हें-नन्हें बच्चे और गौओंके बछड़े रो-रँभा रहे हैं; उन्हें
दूध पिलाओ, गौएँ दुहो ॥ २२ ॥ अथवा यदि मेरे प्रेमसे परवश
होकर तुमलोग यहाँ आयी हो तो इसमें कोई अनुचित बात नहीं हुई, यह
तो तुम्हारे योग्य ही है। क्योंकि जगत्के पशु-पक्षीतक मुझसे प्रेम करते हैं,
मुझे देखकर प्रसन्न होते हैं ॥ २३ ॥ कल्याणी गोपियो ! स्त्रियोंका
परम धर्म यही है कि वे पति और उसके भाई बन्धुओंकी निष्कपटभावसे सेवा करें और
सन्तानका पालन-पोषण करें ॥ २४ ॥ जिन स्त्रियोंको उत्तम लोक प्राप्त करनेकी अभिलाषा
हो, वे पातकीको छोडक़र और किसी भी प्रकारके पतिका परित्याग न
करें। भले ही वह बुरे स्वभाववाला, भाग्यहीन, वृद्ध, मूर्ख, रोगी या निर्धन
ही क्यों न हो ॥ २५ ॥ कुलीन स्त्रियोंके लिये जार पुरुषकी सेवा सब तरहसे निन्दनीय
ही है। इससे उनका परलोक बिगड़ता है, स्वर्ग नहीं मिलता,
इस लोकमें अपयश होता है। यह कुकर्म स्वयं तो अत्यन्त तुच्छ क्षणिक
है ही; इसमें प्रत्यक्ष—वर्तमानमें भी
कष्ट-ही-कष्ट है। मोक्ष आदिकी तो बात ही कौन करे, यह
साक्षात् परम भय—नरक आदिका हेतु है ॥ २६ ॥ गोपियो ! मेरी
लीला और गुणोंके श्रवणसे, रूपके दर्शनसे, उन सबके कीर्तन और ध्यानसे मेरे प्रति जैसे अनन्य प्रेमकी प्राप्ति होती
है, वैसे प्रेमकी प्राप्ति पास रहनेसे नहीं होती। इसलिये
तुमलोग अभी अपने-अपने घर लौट जाओ ॥ २७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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