गुरुवार, 16 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

रासलीलाका आरम्भ

 

कृष्णं विदुः परं कान्तं न तु ब्रह्मतया मुने ।

गुणप्रवाहोपरमः तासां गुणधियां कथम् ॥ १२ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

उक्तं पुरस्ताद् एतत्ते चैद्यः सिद्धिं यथा गतः ।

द्विषन्नपि हृषीकेशं किमुताधोक्षजप्रियाः ॥ १३ ॥

नृणां निःश्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप ।

अव्ययस्याप्रमेयस्य निर्गुणस्य गुणात्मनः ॥ १४ ॥

कामं क्रोधं भयं स्नेहं ऐक्यं सौहृदमेव च ।

नित्यं हरौ विदधतो यान्ति तन्मयतां हि ते ॥ १५ ॥

न चैवं विस्मयः कार्यो भवता भगवत्यजे ।

योगेश्वरेश्वरे कृष्णे यत एतद् विमुच्यते ॥ १६ ॥

ता दृष्ट्वान्तिकमायाता भगवान् व्रजयोषितः ।

अवदद् वदतां श्रेष्ठो वाचः पेशैर्विमोहयन् ॥ १७ ॥

 

राजा परीक्षित्‌ ने पूछाभगवन् ! गोपियाँ तो भगवान्‌ श्रीकृष्ण को केवल अपना परम प्रियतम ही मानती थीं। उनका उनमें ब्रह्मभाव नहीं था। इस प्रकार उनकी दृष्टि प्राकृत गुणोंमें ही आसक्त दीखती है। ऐसी स्थितिमें उनके लिये गुणोंके प्रवाहरूप इस संसारकी निवृत्ति कैसे सम्भव हुई ? ॥ १२ ॥

 

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! मैं तुमसे पहले ही कह चुका हूँ कि चेदिराज शिशुपाल भगवान्‌ के प्रति द्वेष-भाव रखनेपर भी अपने प्राकृत शरीरको छोडक़र अप्राकृत शरीरसे उनका पार्षद हो गया। ऐसी स्थितिमें जो समस्त प्रकृति और उसके गुणोंसे अतीत भगवान्‌ श्रीकृष्णकी प्यारी हैं और उनसे अनन्य प्रेम करती हैं, वे गोपियाँ उन्हें प्राप्त हो जायँइसमें कौन-सी आश्चर्यकी बात है ॥ १३ ॥ परीक्षित्‌ ! वास्तव में भगवान्‌ प्रकृतिसम्बन्धी वृद्धि-विनाश, प्रमाण-प्रमेय और गुणगुणीभावसे रहित हैं। वे अचिन्त्य अनन्त अप्राकृत परम कल्याणस्वरूप गुणोंके एकमात्र आश्रय हैं। उन्होंने यह जो अपनेको तथा अपनी लीलाको प्रकट किया है, उसका प्रयोजन केवल इतना ही है कि जीव उसके सहारे अपना परम कल्याण सम्पादन करे ॥ १४ ॥ इसलिये भगवान्‌ से केवल सम्बन्ध हो जाना चाहिये। वह सम्बन्ध चाहे जैसा होकामका हो, क्रोधका हो या भयका हो; स्नेह, नातेदारी या सौहार्दका हो। चाहे जिस भावसे भगवान्‌ में नित्य-निरन्तर अपनी वृत्तियाँ जोड़ दी जायँ, वे भगवान्‌ से ही जुड़ती हैं। इसलिये वृत्तियाँ भगवन्मय हो जाती हैं, और उस जीव को भगवान्‌ की ही प्राप्ति होती है ॥ १५ ॥ परीक्षित्‌ ! तुम्हारे-जैसे परम भागवत भगवान्‌ का रहस्य जाननेवाले भक्तको श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में ऐसा सन्देह नहीं करना चाहिये। योगेश्वरोंके भी ईश्वर अजन्मा भगवान्‌ के लिये भी यह कोई आश्चर्य की बात है ? अरे ! उनके संकल्पमात्रसेभौंहें के इशारे से सारे जगत् का परम कल्याण हो सकता है ॥ १६ ॥ जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने देखा कि व्रज की अनुपम विभूतियाँ गोपियाँ मेरे बिलकुल पास आ गयी हैं, तब उन्होंने अपनी विनोदभरी वाक्चातुरी से उन्हें मोहित करते हुए कहाक्यों न होभूत, भविष्य और वर्तमानकालके जितने वक्ता हैं, उनमें वे ही तो सर्वश्रेष्ठ हैं ॥ १७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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