॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
रासलीलाका
आरम्भ
दुहन्त्योऽभिययुः
काश्चिद् दोहं हित्वा समुत्सुकाः ।
पयोऽधिश्रित्य
संयावं अनुद्वास्यापरा ययुः ॥ ५ ॥
परिवेषयन्त्यस्तद्धित्वा
पाययन्त्यः शिशून् पयः ।
शुश्रूषन्त्यः
पतीन् काश्चिद् अश्नन्त्योऽपास्य भोजनम् ॥ ६ ॥
लिम्पन्त्यः
प्रमृजन्त्योऽन्या अञ्जन्त्यः काश्च लोचने ।
व्यत्यस्तवस्त्राभरणाः
काश्चित् कृष्णान्तिकं ययुः ॥ ७ ॥
ता
वार्यमाणाः पतिभिः पितृभिः भ्रातृबन्धुभिः ।
गोविन्दापहृतात्मानो
न न्यवर्तन्त मोहिताः ॥ ८ ॥
अन्तर्गृहगताः
काश्चिद् गोप्योऽलब्धविनिर्गमाः ।
कृष्णं
तद्भावनायुक्ता दध्युर्मीलितलोचनाः ॥ ९ ॥
दुःसहप्रेष्ठविरह
तीव्रतापधुताशुभाः ।
ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेष
निर्वृत्या क्षीणमङ्गलाः ॥ १० ॥
तमेव
परमात्मानं जारबुद्ध्यापि सङ्गताः ।
जहुर्गुणमयं
देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः ॥ ११ ॥
वंशीध्वनि
सुनकर जो गोपियाँ दूध दुह रही थीं, वे अत्यन्त
उत्सुकतावश दूध दुहना छोडक़र चल पड़ीं। जो चूल्हेपर दूध औंटा रही थीं वे उफनता हुआ
दूध छोडक़र और जो लपसी पका रही थीं वे पकी हुई लपसी बिना उतारे ही ज्यों-की-त्यों
छोडक़र चल दीं ॥ ५ ॥ जो भोजन परस रही थीं वे परसना छोडक़र, जो
छोटे-छोटे बच्चोंको दूध पिला रही थीं वे दूध पिलाना छोडक़र, जो
पतियोंकी सेवा-शुश्रूषा कर रही थीं वे सेवा-शुश्रूषा छोडक़र और जो स्वयं भोजन कर
रही थीं वे भोजन करना छोडक़र अपने कृष्णप्यारेके पास चल पड़ीं ॥ ६ ॥ कोई-कोई गोपी
अपने शरीरमें अङ्गराग, चन्दन और उबटन लगा रही थीं और कुछ
आँखोंमें अंजन लगा रही थीं। वे उन्हें छोडक़र तथा उलटे-पलटे वस्त्र धारणकर
श्रीकृष्णके पास पहुँचनेके लिये चल पड़ीं ॥ ७ ॥ पिता और पतियोंने, भाई और जाति-बन्धुओंने उन्हें रोका, उनकी मङ्गलमयी
प्रेमयात्रामें विघ्र डाला। परंतु वे इतनी मोहित हो गयी थीं कि रोकनेपर भी न रुकीं,
न रुक सकीं। रुकतीं कैसे? विश्वविमोहन
श्रीकृष्णने उनके प्राण, मन और आत्मा सब कुछका अपहरण जो कर
लिया था ॥ ८ ॥ परीक्षित् ! उस समय कुछ गोपियाँ घरोंके भीतर थीं। उन्हें बाहर
निकलनेका मार्ग ही न मिला। तब उन्होंने अपने नेत्र मूँद लिये और बड़ी तन्मयतासे
श्रीकृष्णके सौन्दर्य, माधुर्य और लीलाओंका ध्यान करने लगीं
॥ ९ ॥ परीक्षित् ! अपने परम प्रियतम श्रीकृष्णके असह्य विरहकी तीव्र वेदनासे उनके
हृदयमें इतनी व्यथा—इतनी जलन हुई कि उनमें जो कुछ अशुभ
संस्कारोंका लेशमात्र अवशेष था, वह भस्म हो गया। इसके बाद
तुरंत ही ध्यान लग गया। ध्यानमें उनके सामने भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हुए।
उन्होंने मन-ही-मन बड़े प्रेमसे, बड़े आवेग से उनका आलिङ्गन
किया। उस समय उन्हें इतना सुख, इतनी शान्ति मिली कि उनके
सब-के-सब पुण्यके संस्कार एक साथ ही क्षीण हो गये ॥ १० ॥ परीक्षित् ! यद्यपि उनका
उस समय श्रीकृष्णके प्रति जारभाव भी था; तथापि कहीं सत्य
वस्तु भी भावकी अपेक्षा रखती है ? उन्होंने जिनका आलिङ्गन
किया, चाहे किसी भी भावसे किया हो, वे
स्वयं परमात्मा ही तो थे। इसलिये उन्होंने पाप और पुण्यरूप कर्मके परिणामसे बने
हुए गुणमय शरीरका परित्याग कर दिया। (भगवान् की लीलामें सम्मिलित होनेके योग्य
दिव्य अप्राकृत शरीर प्राप्त कर लिया।) इस शरीरसे भोगे जानेवाले कर्मबन्धन तो
ध्यानके समय ही छिन्न-भिन्न हो चुके थे ॥ ११ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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