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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
रासलीलाका
आरम्भ
श्रीशुक
उवाच -
भगवान्
अपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः ।
वीक्ष्य
रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः ॥ १ ॥
तदोडुराजः
ककुभः करैर्मुखं
प्राच्या
विलिम्पन्नरुणेन शन्तमैः ।
स
चर्षणीनामुदगाच्छुचो मृजन्
प्रियः
प्रियाया इव दीर्घदर्शनः ॥ २ ॥
दृष्ट्वा
कुमुद्वन्तं अखण्डमण्डलं
रमाननाभं
नवकुङ्कुमारुणम् ।
वनं
च तत्कोमलगोभी रञ्जितं
जगौ
कलं वामदृशां मनोहरम् ॥ ३ ॥
निशम्य
गीतां तदनङ्गवर्धनं
व्रजस्त्रियः
कृष्णगृहीतमानसाः ।
आजग्मुरन्योन्यमलक्षितोद्यमाः
स
यत्र कान्तो जवलोलकुण्डलाः ॥ ४ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! शरद् ऋतु थी। उसके कारण बेला, चमेली
आदि सुगन्धित पुष्प खिलकर महँ-महँ महँक रहे थे। भगवान् ने चीरहरणके समय गोपियोंको
जिन रात्रियोंका संकेत किया था वे सब-की-सब पुञ्जीभूत होकर एक ही रात्रिके रूपमें
उल्लसित हो रही थीं। भगवान् ने उन्हें देखा, देखकर दिव्य
बनाया। गोपियाँ तो चाहती ही थीं। अब भगवान्ने भी अपनी अचिन्त्य महाशक्ति
योगमायाके सहारे उन्हें निमित्त बनाकर रसमयी रासक्रीडा करनेका संकल्प किया। अमना
होनेपर भी उन्होंने अपने प्रेमियोंकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये मन स्वीकार किया ॥ १
॥ भगवान् के संकल्प करते ही चन्द्रदेव ने प्राची दिशाके मुखमण्डलपर अपने शीतल
किरणरूपी करकमलोंसे लालिमाकी रोली-केसर मल दी, जैसे बहुत
दिनोंके बाद अपनी प्राणप्रिया पत्नीके पास आकर उसके प्रियतम पतिने उसे आनन्दित
करनेके लिये ऐसा किया हो ! इस प्रकार चन्द्रदेवने उदय होकर न केवल पूर्वदिशाका,
प्रत्युत संसारके समस्त चर-अचर प्राणियोंका सन्ताप—जो दिनमें शरत्कालीन प्रखर सूर्य-रश्मियोंके कारण बढ़ गया था—दूर कर दिया ॥ २ ॥ उस दिन चन्द्रदेवका मण्डल अखण्ड था। पूर्णिमाकी रात्रि
थी। वे नूतन केसरके समान लाल-लाल हो रहे थे, कुछ
सङ्कोचमिश्रित अभिलाषासे युक्त जान पड़ते थे। उनका मुखमण्डल लक्ष्मीजीके समान
मालूम हो रहा था। उनकी कोमल किरणोंसे सारा वन अनुरागके रंगमें रँग गया था। वनके
कोने-कोनेमें उन्होंने अपनी चाँदनीके द्वारा अमृतका समुद्र उड़ेल दिया था। भगवान्
श्रीकृष्णने अपने दिव्य उज्ज्वल रसके उद्दीपनकी पूरी सामग्री उन्हें और उस वनको
देखकर अपनी बाँसुरीपर व्रजसुन्दरियों- के मनको हरण करनेवाली कामबीज ‘क्ली.’ की अस्पष्ट एवं मधुर तान छेड़ी ॥ ३ ॥ भगवान्
का वह वंशीवादन भगवान् के प्रेमको, उनके मिलनकी लालसाको
अत्यन्त उकसानेवाला—बढ़ानेवाला था। यों तो श्यामसुन्दरने
पहलेसे ही गोपियोंके मनको अपने वशमें कर रखा था। अब तो उनके मनकी सारी वस्तुएँ—भय, सङ्कोच, धैर्य, मर्यादा आदिकी वृत्तियाँ भी—छीन लीं। वंशीध्वनि
सुनते ही उनकी विचित्र गति हो गयी। जिन्होंने एक साथ साधना की थी श्रीकृष्णको
पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये, वे गोपियाँ भी एक-दूसरे को
सूचना न देकर—यहाँ तक कि एक-दूसरे से अपनी चेष्टा को छिपाकर
जहाँ वे थे, वहाँ के लिये चल पड़ीं। परीक्षित् ! वे इतने
वेग से चली थीं कि उनके कानों के कुण्डल झोंके खा रहे थे ॥ ४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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