मंगलवार, 14 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

वरुणलोक से नन्दजी को छुड़ाकर लाना

 

श्रीशुक उवाच -

एवं प्रसादितः कृष्णो भगवान् ईश्वरेश्वरः ।

आदायागात् स्वपितरं बन्धूनां चावहन् मुदम् ॥ ९ ॥

नन्दस्त्वतीन्द्रियं दृष्ट्वा लोकपालमहोदयम् ।

कृष्णे च सन्नतिं तेषां ज्ञातिभ्यो विस्मितोऽब्रवीत् ॥ १० ॥

ते चौत्सुक्यधियो राजन् मत्वा गोपास्तमीश्वरम् ।

अपि नः स्वगतिं सूक्ष्मां उपाधास्यदधीश्वरः ॥ ११ ॥

इति स्वानां स भगवान् विज्ञायाखिलदृक् स्वयम् ।

सङ्‌कल्पसिद्धये तेषां कृपयैतदचिन्तयत् ॥ १२ ॥

जनो वै लोक एतस्मिन् अविद्याकामकर्मभिः ।

उच्चावचासु गतिषु न वेद स्वां गतिं भ्रमन् ॥ १३ ॥

इति सञ्चिन्त्य भगवान् महाकारुणिको हरिः ।

दर्शयामास लोकं स्वं गोपानां तमसः परम् ॥ १४ ॥

सत्यं ज्ञानमनन्तं यद् ब्रह्म ज्योतिः सनातनम् ।

यद्धि पश्यन्ति मुनयो गुणापाये समाहिताः ॥ १५ ॥

ते तु ब्रह्मह्रदं नीता मग्नाः कृष्णेन चोद्‌धृताः ।

ददृशुर्ब्रह्मणो लोकं यत्राक्रूरोऽध्यगात् पुरा ॥ १६ ॥

नन्दादयस्तु तं दृष्ट्वा परमानन्दनिवृताः ।

कृष्णं च तत्रच्छन्दोभिः स्तूयमानं सुविस्मिताः ॥ १७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण ब्रह्मा आदि ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं। लोकपाल वरुणने इस प्रकार उनकी स्तुति करके उन्हें प्रसन्न किया। इसके बाद भगवान्‌ अपने पिता नन्दजीको लेकर व्रजमें चले आये और व्रजवासी भाई-बन्धुओंको आनन्दित किया ॥ ९ ॥ नन्द- बाबाने वरुणलोकमें लोकपालके इन्द्रियातीत ऐश्वर्य और सुख-सम्पत्तिको देखा तथा यह भी देखा कि वहाँके निवासी उनके पुत्र श्रीकृष्णके चरणोंमें झुक-झुककर प्रणाम कर रहे हैं। उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने व्रजमें आकर अपने जाति-भाइयोंको सब बातें कह सुनायीं ॥ १० ॥ परीक्षित्‌! भगवान्‌के प्रेमी गोप यह सुनकर ऐसा समझने लगे कि अरे, ये तो स्वयं भगवान्‌ हैं। तब उन्होंने मन-ही-मन बड़ी उत्सुकतासे विचार किया कि क्या कभी जगदीश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण हमलोगोंको भी अपना वह मायातीत स्वधाम, जहाँ केवल इनके प्रेमी-भक्त ही जा सकते हैं, दिखलायेंगे ॥ ११ ॥ परीक्षित्‌! भगवान्‌ श्रीकृष्ण स्वयं सर्वदर्शी हैं। भला, उनसे यह बात कैसे छिपी रहती? वे अपने आत्मीय गोपोंकी यह अभिलाषा जान गये और उनका संकल्प सिद्ध करनेके लिये कृपासे भरकर इस प्रकार सोचने लगे ॥ १२ ॥ इस संसारमें जीव अज्ञानवश शरीरमें आत्मबुद्धि करके भाँति-भाँतिकी कामना और उनकी पूर्तिके लिये नाना प्रकारके कर्म करता है। फिर उनके फलस्वरूप देवता, मनुष्य, पशु पक्षी आदि ऊँची-नीची योनियोंमें भटकता फिरता है, अपनी असली गतिकोआत्मस्वरूपको नहीं पहचान पाता ॥ १३ ॥ परमदयालु भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार सोचकर उन गोपोंको मायान्धकारसे अतीत अपना परमधाम दिखलाया ॥ १४ ॥ भगवान्‌ने पहले उनको उस ब्रह्मका साक्षात्कार करवाया जिसका स्वरूप सत्य, ज्ञान, अनन्त, सनातन और ज्योति:स्वरूप है तथा समाधिनिष्ठ गुणातीत पुरुष ही जिसे देख पाते हैं ॥ १५ ॥ जिस जलाशयमें अक्रूर को भगवान्‌ ने अपना स्वरूप दिखलाया था, उसी ब्रह्मस्वरूप ब्रह्मह्रद में भगवान्‌ उन गोपों को ले गये। वहाँ उन लोगों ने उसमें डुबकी लगायी। वे ब्रह्मह्रदमें  प्रवेश कर गये। तब भगवान्‌ ने उसमेंसे उनको निकालकर अपने परमधाम का दर्शन कराया ॥ १६ ॥ उस दिव्य भगवत्स्वरूप लोक को देखकर नन्द आदि गोप परमानन्द में मग्न हो गये। वहाँ उन्होंने देखा कि सारे वेद मूर्तिमान् होकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण की स्तुति कर रहे हैं। यह देखकर वे सब-के-सब परम विस्मित हो गये ॥ १७ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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