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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
गोपिकागीत
गोप्य
ऊचुः -
जयति
तेऽधिकं जन्मना व्रजः
श्रयत
इन्दिरा शश्वदत्र हि ।
दयित
दृश्यतां दिक्षु तावका
स्त्वयि
धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥ १ ॥
शरदुदाशये
साधुजातसत्
सरसिजोदरश्रीमुषा
दृशा ।
सुरतनाथ
तेऽशुल्कदासिका
वरद
निघ्नतो नेह किं वधः ॥ २ ॥
विषजलाप्ययाद्
व्यालराक्षसाद्
वर्षमारुताद्
वैद्युतानलात् ।
वृषमयात्मजाद्
विश्वतो भयाद्
ऋषभ
ते वयं रक्षिता मुहुः ॥ ३ ॥
न
खलु गोपीकानन्दनो भवान्
अखिलदेहिनां
अन्तरात्मदृक् ।
विखनसार्थितो
विश्वगुप्तये
सख
उदेयिवान् सात्वतां कुले ॥ ४ ॥
गोपियाँ
विरहावेश में गाने लगीं—‘प्यारे ! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोकों से भी व्रज की महिमा
बढ़ गयी है। तभी तो सौन्दर्य और मृदुलता की देवी लक्ष्मी जी अपना निवासस्थान
वैकुण्ठ छोडक़र यहाँ नित्य-निरन्तर निवास करने लगी हैं, इसकी
सेवा करने लगी हैं। परंतु प्रियतम ! देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे
चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं, वन- वन में
भटककर तुम्हें ढूँढ़ रही हैं ॥ १ ॥ हमारे प्रेमपूर्ण हृदयके स्वामी ! हम तुम्हारी
बिना मोल की दासी हैं। तुम शरत्कालीन जलाशयमें सुन्दर-से-सुन्दर सरसिजकी कर्णिका के
सौन्दर्य को चुरानेवाले नेत्रोंसे हमें घायल कर चुके हो। हमारे मनोरथ पूर्ण
करनेवाले प्राणेश्वर ! क्या नेत्रों से मारना वध नहीं है ?
अस्त्रोंसे हत्या करना ही वध है ? ॥ २ ॥
पुरुषशिरोमणे ! यमुनाजी के विषैले जलसे होनेवाली मृत्यु, अजगर
के रूपमें खानेवाले अघासुर, इन्द्रकी वर्षा, आँधी, बिजली, दावानल, वृषभासुर और व्योमासुर आदिसे एवं भिन्न-भिन्न अवसरोंपर सब प्रकारके भयोंसे
तुमने बार-बार हमलोगों की रक्षा की है ॥ ३ ॥ तुम केवल यशोदानन्दन ही नहीं हो;
समस्त शरीरधारियों के हृदय में रहनेवाले उनके साक्षी हो, अन्तर्यामी हो। सखे ! ब्रह्माजी की प्रार्थना से विश्वकी रक्षा करनेके
लिये तुम यदुवंशमें अवतीर्ण हुए हो ॥ ४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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