मंगलवार, 21 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

गोपिकागीत

 

गोप्य ऊचुः -

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः

श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।

दयित दृश्यतां दिक्षु तावका

स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥ १ ॥

शरदुदाशये साधुजातसत्

सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा ।

सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका

वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥ २ ॥

विषजलाप्ययाद् व्यालराक्षसाद्

वर्षमारुताद् वैद्युतानलात् ।

वृषमयात्मजाद् विश्वतो भयाद्

ऋषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥ ३ ॥

न खलु गोपीकानन्दनो भवान्

अखिलदेहिनां अन्तरात्मदृक् ।

विखनसार्थितो विश्वगुप्तये

सख उदेयिवान् सात्वतां कुले ॥ ४ ॥

 

गोपियाँ विरहावेश में गाने लगीं—‘प्यारे ! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोकों से भी व्रज की महिमा बढ़ गयी है। तभी तो सौन्दर्य और मृदुलता की देवी लक्ष्मी जी अपना निवासस्थान वैकुण्ठ छोडक़र यहाँ नित्य-निरन्तर निवास करने लगी हैं, इसकी सेवा करने लगी हैं। परंतु प्रियतम ! देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं, वन- वन में भटककर तुम्हें ढूँढ़ रही हैं ॥ १ ॥ हमारे प्रेमपूर्ण हृदयके स्वामी ! हम तुम्हारी बिना मोल की दासी हैं। तुम शरत्कालीन जलाशयमें सुन्दर-से-सुन्दर सरसिजकी कर्णिका के सौन्दर्य को चुरानेवाले नेत्रोंसे हमें घायल कर चुके हो। हमारे मनोरथ पूर्ण करनेवाले प्राणेश्वर ! क्या नेत्रों से मारना वध नहीं है ? अस्त्रोंसे हत्या करना ही वध है ? ॥ २ ॥ पुरुषशिरोमणे ! यमुनाजी के विषैले जलसे होनेवाली मृत्यु, अजगर के रूपमें खानेवाले अघासुर, इन्द्रकी वर्षा, आँधी, बिजली, दावानल, वृषभासुर और व्योमासुर आदिसे एवं भिन्न-भिन्न अवसरोंपर सब प्रकारके भयोंसे तुमने बार-बार हमलोगों की रक्षा की है ॥ ३ ॥ तुम केवल यशोदानन्दन ही नहीं हो; समस्त शरीरधारियों के हृदय में रहनेवाले उनके साक्षी हो, अन्तर्यामी हो। सखे ! ब्रह्माजी की प्रार्थना से विश्वकी रक्षा करनेके लिये तुम यदुवंशमें अवतीर्ण हुए हो ॥ ४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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