॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
गोपिकागीत
विरचिताभयं
वृष्णिधूर्य ते
चरणमीयुषां
संसृतेर्भयात् ।
करसरोरुहं
कान्त कामदं
शिरसि
धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥ ५ ॥
व्रजजनार्तिहन्
वीर योषितां
निजजनस्मयध्वंसनस्मित
।
भज
सखे भवत् किङ्करीः स्म नो
जलरुहाननं
चारु दर्शय ॥ ६ ॥
प्रणतदेहिनां
पापकर्षणं
तृणचरानुगं
श्रीनिकेतनम् ।
फणिफणार्पितं
ते पदाम्बुजं
कृणु
कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥ ७ ॥
अपने
प्रेमियोंकी अभिलाषा पूर्ण करनेवालोंमें अग्रगण्य यदुवंशशिरोमणे ! जो लोग जन्म-
मृत्युरूप संसारके चक्करसे डरकर तुम्हारे चरणोंकी शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें तुम्हारे करकमल अपनी छत्रछायामें लेकर अभय कर देते हैं। हमारे
प्रियतम ! सबकी लालसा-अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाला वही करकमल, जिससे तुमने लक्ष्मीजीका हाथ पकड़ा है, हमारे सिरपर
रख दो ॥ ५ ॥ व्रजवासियोंके दु:ख दूर करनेवाले वीरशिरोमणि श्यामसुन्दर ! तुम्हारी
मन्द-मन्द मुसकानकी एक उज्ज्वल रेखा ही तुम्हारे प्रेमीजनोंके सारे मान-मदको
चूर-चूर कर देनेके लिये पर्याप्त है। हमारे प्यारे सखा ! हमसे रूठो मत, प्रेम करो। हम तो तुम्हारी दासी हैं, तुम्हारे
चरणोंपर निछावर हैं। हम अबलाओंको अपना वह परम सुन्दर साँवला-साँवला मुखकमल दिखलाओ
॥ ६ ॥ तुम्हारे चरणकमल शरणागत प्राणियों के सारे पापोंको नष्ट कर देते हैं। वे
समस्त सौन्दर्य, माधुर्यकी खान हैं और स्वयं लक्ष्मीजी उनकी
सेवा करती रहती हैं। तुम उन्हीं चरणों से हमारे बछड़ों के पीछे-पीछे चलते हो और
हमारे लिये उन्हें साँप के फणोंतक पर रखने में भी तुमने संकोच नहीं किया। हमारा
हृदय तुम्हारी विरह-व्यथा की आग से जल रहा है। तुम्हारी मिलने की आकाङ्क्षा हमें
सता रही है। तुम अपने वे ही चरण हमारे वक्ष:स्थल पर रखकर हमारे हृदयकी ज्वाला को
शान्त कर दो ॥ ७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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