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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
गोपिकागीत
मधुरया
गिरा वल्गुवाक्यया
बुधमनोज्ञया
पुष्करेक्षण ।
विधिकरीरिमा
वीर मुह्यती
रधरसीधुनाप्याययस्व
नः ॥ ८ ॥
तव
कथामृतं तप्तजीवनं
कविभिरीडितं
कल्मषापहम् ।
श्रवणमङ्गलं
श्रीमदाततं
भुवि
गृणन्ति ये भूरिदा जनाः ॥ ९ ॥
प्रहसितं
प्रिय प्रेमवीक्षणं
विहरणं
च ते ध्यानमङ्गलम् ।
रहसि
संविदो या हृदि स्पृशः
कुहक
नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥ १० ॥
कमलनयन
! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है ! उसका एक-एक पद, एक-एक शब्द,
एक-एक अक्षर मधुरातिमधुर है। बड़े-बड़े विद्वान् उसमें रम जाते हैं।
उसपर अपना सर्वस्व निछावर कर देते हैं। तुम्हारी उसी वाणीका रसास्वादन करके
तुम्हारी आज्ञाकारिणी दासी गोपियाँ मोहित हो रही हैं। दानवीर ! अब तुम अपना दिव्य
अमृतसे भी मधुर अधर-रस पिलाकर हमें जीवन-दान दो, छका दो ॥ ८
॥ प्रभो ! तुम्हारी लीलाकथा भी अमृतस्वरूप है। विरहसे सताये हुए लोगोंके लिये तो
वह जीवन सर्वस्व ही है। बड़े-बड़े ज्ञानी महात्माओं—भक्त
कवियोंने उसका गान किया है, वह सारे पाप-ताप तो मिटाती ही है,
साथ ही श्रवणमात्रसे परम मङ्गल—परम कल्याणका
दान भी करती है। वह परम सुन्दर, परम मधुर और बहुत विस्तृत भी
है। जो तुम्हारी उस लीला-कथाका गान करते हैं, वास्तवमें
भूलोकमें वे ही सबसे बड़े दाता हैं ॥ ९ ॥ प्यारे ! एक दिन वह था, जब तुम्हारी प्रेमभरी हँसी और चितवन तथा तुम्हारी तरह-तरहकी क्रीडाओंका
ध्यान करके हम आनन्दमें मग्र हो जाया करती थीं। उनका ध्यान भी परम मङ्गलदायक है,
उसके बाद तुम मिले। तुमने एकान्तमें हृदयस्पर्शी ठिठोलियाँ कीं,
प्रेमकी बातें कहीं। हमारे कपटी मित्र ! अब वे सब बातें याद आकर
हमारे मनको क्षुब्ध किये देती हैं ॥ १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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