॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
गोपिकागीत
चलसि
यद् व्रजाच्चारयन् पशून्
नलिनसुन्दरं
नाथ ते पदम् ।
शिलतृणाङ्कुरैः
सीदतीति नः
कलिलतां
मनः कान्त गच्छति ॥ ११ ॥
दिनपरिक्षये
नीलकुन्तलैः
वनरुहाननं
बिभ्रदावृतम् ।
घनरजस्वलं
दर्शयन् मुहु
र्मनसि
नः स्मरं वीर यच्छसि ॥ १२ ॥
प्रणतकामदं
पद्मजार्चितं
धरणिमण्डनं
ध्येयमापदि ।
चरणपङ्कजं
शन्तमं च ते
रमण
नः स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥ १३ ॥
सुरतवर्धनं
शोकनाशनं
स्वरितवेणुना
सुष्ठु चुम्बितम् ।
इतररागविस्मारणं
नृणां
वितर
वीर नस्तेऽधरामृतम् ॥ १४ ॥
हमारे
प्यारे स्वामी ! तुम्हारे चरण कमलसे भी सुकोमल और सुन्दर हैं। जब तुम गौओं को
चराने के लिये व्रजसे निकलते हो तब यह सोचकर कि तुम्हारे वे युगल चरण कंकड़, तिनके और कुश-काँटे गड़ जानेसे कष्ट पाते होंगे, हमारा
मन बेचैन हो जाता है। हमें बड़ा दु:ख होता है ॥ ११ ॥ दिन ढलनेपर जब तुम वनसे घर
लौटते हो, तो हम देखती हैं कि तुम्हारे मुखकमलपर नीली-नीली
अलकें लटक रही हैं और गौओंके खुरसे उड़-उडक़र घनी धूल पड़ी हुई है। हमारे वीर
प्रियतम ! तुम अपना वह सौन्दर्य हमें दिखा-दिखाकर हमारे हृदयमें मिलनकी आकाङ्क्षा—प्रेम उत्पन्न करते हो ॥ १२ ॥ प्रियतम ! एकमात्र तुम्हीं हमारे सारे
दु:खोंको मिटानेवाले हो। तुम्हारे चरणकमल शरणागत भक्तोंकी समस्त अभिलाषाओंको पूर्ण
करनेवाले हैं। स्वयं लक्ष्मीजी उनकी सेवा करती हैं और पृथ्वीके तो वे भूषण ही हैं।
आपत्तिके समय एकमात्र उन्हींका चिन्तन करना उचित है, जिससे
सारी आपत्तियाँ कट जाती हैं। कुञ्जविहारी ! तुम अपने वे परम कल्याणस्वरूप चरणकमल
हमारे वक्ष:स्थलपर रखकर हृदयकी व्यथा शान्त कर दो ॥ १३ ॥ वीरशिरोमणे ! तुम्हारा
अधरामृत मिलन के सुखको, आकाङ्क्षाको बढ़ानेवाला है। वह
विरहजन्य समस्त शोक-सन्तापको नष्ट कर देता है। यह गानेवाली बाँसुरी भलीभाँति उसे
चूमती रहती है। जिन्होंने एक बार उसे पी लिया, उन लोगोंको
फिर दूसरों और दूसरोंकी आसक्तियोंका स्मरण भी नहीं होता। हमारे वीर ! अपना वही
अधरामृत हमें वितरण करो, पिलाओ ॥ १४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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