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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
चीरहरण
गोपियों
की इस दिव्य लीला का जीवन उच्च श्रेणी के साधक के लिये आदर्श जीवन है। श्रीकृष्ण
जीव के एकमात्र प्राप्तव्य साक्षात् परमात्मा हैं। हमारी बुद्धि, हमारी दृष्टि देहतक ही सीमित है। इसलिये हम श्रीकृष्ण और गोपियोंके
प्रेमको भी केवल दैहिक तथा कामनाकलुषित समझ बैठते हैं। उस अपार्थिव और अप्राकृत
लीलाको इस प्रकृतिके राज्यमें घसीट लाना हमारी स्थूल वासनाओंका हानिकर परिणाम है।
जीवका मन भोगाभिमुख वासनाओंसे और तमोगुणी प्रवृत्तियोंसे अभिभूत रहता है । वह विषयोंमें
ही इधरसे-उधर भटकता रहता है और अनेकों प्रकारके रोग-शोकसे आक्रान्त रहता है। जब
कभी पुण्यकर्मोंके फल उदय होनेपर भगवान्की अचिन्त्य अहैतुकी कृपासे विचारका उदय
होता है, तब जीव दु:खज्वालासे त्राण पानेके लिये और अपने
प्राणोंको शान्तिमय धाममें पहुँचानेके लिये उत्सुक हो उठता है। वह भगवान्के
लीलाधामोंकी यात्रा करता है, सत्सङ्ग प्राप्त करता है और
उसके हृदयकी छटपटी उस आकाङ्क्षाको लेकर, जो अबतक सुप्त थी,
जगकर बड़े वेगसे परमात्माकी ओर चल पड़ती है। चिरकालसे विषयोंका ही
अभ्यास होनेके कारण बीच-बीचमें विषयोंके संस्कार उसे सताते हैं और बार-बार
विक्षेपोंका सामना करना पड़ता है। परंतु भगवान्की प्रार्थना, कीर्तन-स्मरण, चिन्तन करते-करते चित्त सरस होने लगता
है और धीरे-धीरे उसे भगवान्की सन्निधिका अनुभव भी होने लगता है। थोड़ा-सा रसका
अनुभव होते ही चित्त बड़े वेगसे अन्तर्देशमें प्रवेश कर जाता है और भगवान्
मार्गदर्शकके रूपमें संसार-सागरसे पार ले जानेवाली नावपर केवटके रूपमें अथवा यों
कहें कि साक्षात् चित्स्वरूप गुरुदेवके रूपमें प्रकट हो जाते हैं। ठीक उसी क्षण
अभाव, अपूर्णता और सीमाका बन्धन नष्ट हो जाता है, विशुद्ध आनन्द—विशुद्ध ज्ञानकी अनुभूति होने लगती
है।
गोपियाँ, जो अभी-अभी साधनसिद्ध होकर भगवान्की अन्तरङ्ग लीलामें प्रविष्ट होनेवाली
हैं, चिरकालसे श्रीकृष्णके प्राणोंमें अपने प्राण मिला
देनेके लिये उत्कण्ठित हैं, सिद्धिलाभके समीप पहुँच चुकी
हैं। अथवा जो नित्यसिद्धा होनेपर भी भगवान्की इच्छाके अनुसार उनकी दिव्य लीलामें
सहयोग प्रदान कर रही हैं, उनके हृदयके समस्त भावोंके एकान्त
ज्ञाता श्रीकृष्ण बाँसुरी बजाकर उन्हें आकृष्ट करते हैं और जो कुछ उनके हृदयमें
बचे-खुचे पुराने संस्कार हैं, मानो उन्हें धो डालनेके लिये
साधनामें लगाते हैं। उनकी कितनी दया है, वे अपने प्रेमियोंसे
कितना प्रेम करते हैं—यह सोचकर चित्त मुग्ध हो जाता है,
गद्गद हो जाता है।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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