गुरुवार, 30 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

 

महारास

 

श्रीगोपीजन साधनाके इसी उच्च स्तरमें परम आदर्श थीं। इसीसे उन्होंने देह-गेह, पति-पुत्र, लोक-परलोक, कर्तव्य-धर्मसबको छोडक़र, सबका उल्लङ्घन कर, एकमात्र परमधर्मस्वरूप भगवान्‌ श्रीकृष्णको ही पानेके लिये अभिसार किया था। उनका यह पति-पुत्रोंका त्याग, यह सर्वधर्मका त्याग ही उनके स्तरके अनुरूप स्वधर्म है।

इस सर्वधर्मत्यागरूप स्वधर्मका आचरण गोपियों-जैसे उच्च स्तरके साधकोंमें ही सम्भव है; क्योंकि सब धर्मोंका यह त्याग वही कर सकते हैं, जो इसका यथाविधि पूरा पालन कर चुकनेके बाद इसके परमफल अनन्य और अचिन्त्य देवदुर्लभ भगवत्प्रेमको प्राप्त कर चुकते हैं, वे भी जान-बूझकर त्याग नहीं करते। सूर्यका प्रखर प्रकाश हो जानेपर तैलदीपककी भाँति स्वत: ही ये धर्म उसे त्याग देते हैं। यह त्याग तिरस्कारमूलक नहीं, वरं तृप्तिमूलक है। भगवत्प्रेमकी ऊँची स्थितिका यही स्वरूप है। देवर्षि नारदजीका एक सूत्र है

 

वेदानपि संन्यस्यति, केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते।

 

जो वेदोंका (वेदमूलक समस्त धर्ममर्यादाओंका) भी भलीभाँति त्याग कर देता है, वह अखण्ड, असीम भगवत्प्रेमको प्राप्त करता है।

जिसको भगवान्‌ अपनी वंशीध्वनि सुनाकरनाम ले-लेकर बुलायें, वह भला, किसी दूसरे धर्मकी ओर ताककर कब और कैसे रुक सकता है। रोकनेवालोंने रोका भी, परंतु हिमालयसे निकलकर समुद्रमें गिरनेवाली ब्रह्मपुत्र नदीकी प्रखर धाराको क्या कोई रोक सकता है ? वे न रुकीं, नहीं रोकी जा सकीं। जिनके चित्तमें कुछ प्राक्तन संस्कार अवशिष्ट थे, वे अपने अनधिकारके कारण सशरीर जानेमें समर्थ न हुर्ईं। उनका शरीर घरमें पड़ा रह गया, भगवान्‌ के वियोग दू:ख से उनके सारे कलुष धुल गए , ध्यान में प्राप्त भगवान् के प्रेमालिंगन से उनके समस्त सौभाग्य का परम फल प्राप्त हो गया और भगवान् के पास सशरीर जाने वाली गोपियों के पहुँचने से पहले ही भगवान् के पास पहुँच गईं | भगवान्  में मिल गईं | यह शास्त्र का प्रसिद्ध सिद्धांत है की पाप-पुण्य के कारण ही बंधन  होता है और शुभाशुभ का भोग होता है | शुभाशुभ क्लार्मों के भोग से जब पाप-पुण्य दोनों नष्ट हो जाते हैं, तब जीव की मुक्ति हो जाती है | यद्यपि गोपियाँ पाप-पुण्य से रहित श्री भगवान् की प्रेम-प्रतिमास्वरूपा थीं, तथापि लीला के लिए यह दिखाया गया है की अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के पास न जा सकने से, उनके विरहानल से उनको इतना महान संताप हुआ कि उससे उनके सम्पूर्ण अशुभ का भोग होगया, उनके समस्त पाप नष्ट हो गए | और प्रियतम भगवान् के ध्यान से उन्हें इतना आनंद हुआ कि उससे उनके सारे पुण्यों का फल मिलगया | इस प्रकार पाप-पुण्यों का पूर्णरूप से अभाव होने से उनकी मुक्ति हो गयी | चाहे किसी भी भाव से हो – काम से,क्रोध से,लोभ से—जो भगवान् के मंगलमय श्रीविग्रह का चिंतन करता है, उसके भाव की अपेक्षा न करके वस्तुशक्ति से ही उसका कल्याण हो जाता है | यह भगवान् के श्रीविग्रह की विशेषता है | भाव के द्वारा तो एक प्रस्तर मूर्ति भी परमकल्याण का दान कर सकती है , बिना भाव के ही कल्यान्दान भगवद्विग्रह का सहज दान है |

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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