बुधवार, 29 जुलाई 2020

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

 

महारास

 

साधनाके दो भेद हैंमर्यादापूर्ण वैध साधना और २मर्यादारहित अवैध प्रेमसाधना। दोनोंके ही अपने-अपने स्वतन्त्र नियम हैं। वैध साधनामें जैसे नियमोंके बन्धनका, सनातन पद्धतिका, कर्तव्योंका और विविध पालनीय कर्मोंका त्याग साधनासे भ्रष्ट करनेवाला और महान् हानिकर है, वैसे ही अवैध प्रेमसाधनामें इनका पालन कलङ्करूप होता है। यह बात नहीं कि इन सब आत्मोन्नतिके साधनोंको वह अवैध प्रेमसाधनाका साधक जान-बूझकर छोड़ देता है। बात यह है कि वह स्तर ही ऐसा है, जहाँ इनकी आवश्यकता नहीं है। ये वहाँ अपने-आप वैसे ही छूट जाते हैं, जैसे नदीके पार पहुँच जानेपर स्वाभाविक ही नौकाकी सवारी छूट जाती है। जमीनपर न तो नौका पर बैठकर चलनेका प्रश्र उठता है और न ऐसा चाहने या करनेवाला बुद्धिमान् ही माना जाता है। ये सब साधन वहींतक रहते हैं, जहाँतक सारी वृत्तियाँ सहज स्वेच्छासे सदा-सर्वदा एकमात्र भगवान्‌ की ओर दौडऩे नहीं लग जातीं। इसीलिये भगवान्‌ ने गीतामें एक जगह तो अर्जुनसे कहा है

 

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।

नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ।।

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित:।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ।।

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।

सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा: ।।

सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।

कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ।।

...............(३। २२२५)

अर्जुन ! यद्यपि तीनों लोकोंमें मुझे कुछ भी करना नहीं है, और न मुझे किसी वस्तुको प्राप्त ही करना है, जो मुझे न प्राप्त है; तो भी मैं कर्म करता ही हूँ। यदि मैं सावधान होकर कर्म न करूँ तो अर्जुन ! मेरी देखा-देखी लोग कर्मोंको छोड़ बैठें और यों मेरे कर्म न करनेसे ये सारे लोक भ्रष्ट हो जायँ तथा मैं इन्हें वर्णसङ्कर बनानेवाला और सारी प्रजाका नाश करनेवाला बनूँ। इसलिये मेरे इस आदर्श के अनुसार अनासक्त ज्ञानी पुरुषको भी लोकसंग्रहके लिये वैसे ही कर्म करना चाहिये, जैसे कर्म में आसक्त अज्ञानी लोग करते हैं।

यहाँ भगवान्‌ आदर्श लोकसंग्रही महापुरुषके रूपमें बोलते हैं, लोकनायक बनकर सर्वसाधारणको शिक्षा देते हैं। इसलिये स्वयं अपना उदाहरण देकर लोगोंको कर्ममें प्रवृत्त करना चाहते हैं। ये ही भगवान्‌ उसी गीतामें जहाँ अन्तरङ्गता की बात कहते हैं, वहाँ स्पष्ट कहते हैं

 

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

.......(१८। ६६)

सारे धर्मोंका त्याग करके तू केवल एक मेरी शरणमें आ जा।

यह बात सबके लिये नहीं है। इसीसे भगवान्‌ १८। ६४ में इसे सबसे बढक़र छिपी हुई गुप्त बात (सर्वगुह्यतम) कहकर इसके बादके ही श्लोकमें कहते हैं

 

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।।

न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ।।

.............(१८। ६७)

भैया अर्जुन ! इस सर्वगुह्यतम बातको जो इन्द्रिय-विजयी तपस्वी न हो, मेरा भक्त न हो, सुनना न चाहता हो और मुझमें दोष लगाता हो, उसे न कहना।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...