॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
महारास
श्रीपरीक्षिदुवाच
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संस्थापनाय
धर्मस्य प्रशमायेतरस्य च ।
अवतीर्णो
हि भगवानंन् अंशेन जगदीश्वरः ॥ २७ ॥
स
कथं धर्मसेतूनां वक्ता कर्ताभिरक्षिता ।
प्रतीपमाचरद्
ब्रह्मन् परदाराभिमर्शनम् ॥ २८ ॥
आप्तकामो
यदुपतिः कृतवान् वै जुगुप्सितम् ।
किमभिप्राय
एतन्नः संशयं छिन्धि सुव्रत ॥ २९ ॥
श्रीशुक
उवाच -
धर्मव्यतिक्रमो
दृष्ट ईश्वराणां च साहसम् ।
तेजीयसां
न दोषाय वह्नेः सर्वभुजो यथा ॥ ३० ॥
नैतत्समाचरेज्जातु
मनसापि ह्यनीश्वरः ।
विनश्यत्याचरन्मौढ्याद्
यथारुद्रोऽब्धिजं विषम् ॥ ३१ ॥
ईश्वराणां
वचः सत्यं तथैवाचरितं क्वचित् ।
तेषां
यत् स्ववचोयुक्तं बुद्धिमांस्तत् समाचरेत् ॥ ३२ ॥
कुशलाचरितेनैषां
इह स्वार्थो न विद्यते ।
विपर्ययेण
वानर्थो निरहङ्कारिणां प्रभो ॥ ३३ ॥
किमुताखिलसत्त्वानां
तिर्यङ् मर्त्यदिवौकसाम् ।
ईशितुश्चेशितव्यानां
कुशलाकुशलान्वयः ॥ ३४ ॥
राजा
परीक्षित् ने पूछा—भगवन् ! भगवान् श्रीकृष्ण सारे जगत्के एकमात्र स्वामी हैं। उन्होंने अपने
अंश श्रीबलरामजीके सहित पूर्णरूपमें अवतार ग्रहण किया था। उनके अवतारका उद्देश्य
ही यह था कि धर्मकी स्थापना हो और अधर्मका नाश ॥ २७ ॥ ब्रह्मन् ! वे धर्ममर्यादा के
बनानेवाले, उपदेश करनेवाले और रक्षक थे। फिर उन्होंने स्वयं
धर्मके विपरीत परस्त्रियोंका स्पर्श कैसे किया ॥ २८ ॥ मैं मानता हूँ कि भगवान्
श्रीकृष्ण पूर्णकाम थे, उन्हें किसी भी वस्तुकी कामना नहीं
थी, फिर भी उन्होंने किस अभिप्रायसे यह निन्दनीय कर्म किया ?
परम ब्रह्मचारी मुनीश्वर ! आप कृपा करके मेरा यह सन्देह मिटाइये ॥
२९ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—सूर्य, अग्नि आदि ईश्वर (समर्थ) कभी-कभी धर्मका
उल्लङ्घन और साहसका काम करते देखे जाते हैं। परंतु उन कामोंसे उन तेजस्वी
पुरुषोंको कोई दोष नहीं होता। देखो, अग्रि सब कुछ खा जाता है,
परंतु उन पदार्थोंके दोषसे लिप्त नहीं होता ॥ ३० ॥ जिन लोगोंमें ऐसी
सामर्थ्य नहीं है, उन्हें मनसे भी वैसी बात कभी नहीं सोचनी
चाहिये, शरीरसे करना तो दूर रहा। यदि मूर्खतावश कोई ऐसा काम
कर बैठे, तो उसका नाश हो जाता है। भगवान् शङ्करने हलाहल विष
पी लिया था, दूसरा कोई पिये तो वह जलकर भस्म हो जायगा ॥ ३१ ॥
इसलिये इस प्रकारके जो शङ्कर आदि ईश्वर हैं, अपने अधिकारके
अनुसार उनके वचनको ही सत्य मानना और उसीके अनुसार आचरण करना चाहिये। उनके आचरणका
अनुकरण तो कहीं-कहीं ही किया जाता है। इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि उनका
जो आचरण उनके उपदेशके अनुकूल हो, उसीको जीवनमें उतारे ॥ ३२ ॥
परीक्षित् ! वे सामथ्र्यवान् पुरुष अहंकारहीन होते हैं, शुभकर्म
करनेमें उनका कोई सांसारिक स्वार्थ नहीं होता और अशुभ कर्म करनेमें अनर्थ (नुकसान)
नहीं होता। वे स्वार्थ और अनर्थसे ऊपर उठे होते हैं ॥ ३३ ॥ जब उन्हींके सम्बन्धमें
ऐसी बात है तब जो पशु, पक्षी, मनुष्य,
देवता आदि समस्त चराचर जीवोंके एकमात्र प्रभु सर्वेश्वर भगवान् हैं,
उनके साथ मानवीय शुभ और अशुभका सम्बन्ध कैसे जोड़ा जा सकता है ॥ ३४
॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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