॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
महारास
यत्पादपङ्कजपरागनिषेवतृप्ता
योगप्रभावविधुताखिलकर्मबन्धाः
।
स्वैरं
चरन्ति मुनयोऽपि न नह्यमानाः
तस्येच्छयाऽऽत्तवपुषः
कुत एव बन्धः ॥ ३५ ॥
गोपीनां
तत्पतीनां च सर्वेषामेव देहिनाम् ।
योऽन्तश्चरति
सोऽध्यक्षः क्रीडनेनेह देहभाक् ॥ ३६ ॥
अनुग्रहाय
भूतानां मानुषं देहमास्थितः ।
भजते
तादृशीः क्रीड याः श्रुत्वा तत्परो भवेत् ॥ ३७ ॥
नासूयन्
खलु कृष्णाय मोहितास्तस्य मायया ।
मन्यमानाः
स्वपार्श्वस्थान् स्वान् स्वान् दारान् व्रजौकसः ॥ ३८ ॥
ब्रह्मरात्र
उपावृत्ते वासुदेवानुमोदिताः ।
अनिच्छन्त्यो
ययुर्गोप्यः स्वगृहान् भगवत्प्रियाः ॥ ३९ ॥
जिनके
चरणकमलोंके रजका सेवन करके भक्तजन तृप्त हो जाते हैं, जिनके साथ योग प्राप्त करके उसके प्रभावसे योगीजन अपने सारे कर्मबन्धन काट
डालते हैं और विचारशील ज्ञानीजन जिनके तत्त्वका विचार करके तत्स्वरूप हो जाते हैं
तथा समस्त कर्मबन्धनोंसे मुक्त होकर स्वच्छन्द विचरते हैं, वे
ही भगवान् अपने भक्तोंकी इच्छासे अपना चिन्मय श्रीविग्रह प्रकट करते हैं; तब भला, उनमें कर्मष्ठ बन्धनकी कल्पना ही कैसे हो
सकती है ॥ ३५ ॥ गोपियोंके, उनके पतियोंके और सम्पूर्ण
शरीरधारियोंके अन्त:करणोंमें जो आत्मारूपसे विराजमान हैं, जो
सबके साक्षी और परमपति हैं, वही तो अपना दिव्य-चिन्मय
श्रीविग्रह प्रकट करके यह लीला कर रहे हैं ॥ ३६ ॥ भगवान् जीवोंपर कृपा करनेके
लिये ही अपनेको मनुष्यरूपमें प्रकट करते हैं और ऐसी लीलाएँ करते हैं, जिन्हें सुनकर जीव भगवत्परायण हो जायँ ॥ ३७ ॥ व्रजवासी गोपोंने भगवान्
श्रीकृष्णमें तनिक भी दोषबुद्धि नहीं की। वे उनकी योगमायासे मोहित होकर ऐसा समझ
रहे थे कि हमारी पत्नियाँ हमारे पास ही हैं ॥ ३८ ॥ ब्रह्माकी रात्रिके बराबर वह
रात्रि बीत गयी। ब्राह्ममुहूर्त आया। यद्यपि गोपियोंकी इच्छा अपने घर लौटनेकी नहीं
थी, फिर भी भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञासे वे अपने-अपने घर चली
गयीं। क्योंकि वे अपनी प्रत्येक चेष्टासे, प्रत्येक संकल्पसे
केवल भगवान् को ही प्रसन्न करना चाहती थीं ॥ ३९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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