॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
भगवान्
का प्रकट होकर गोपियों को सान्त्वना देना
ताः
समादाय कालिन्द्या निर्विश्य पुलिनं विभुः ।
विकसत्कुन्दमन्दार
सुरभ्यनिलषट्पदम् ॥ ११ ॥
शरच्चन्द्रांशुसन्दोह
ध्वस्तदोषातमः शिवम् ।
कृष्णाया
हस्ततरला चितकोमलवालुकम् ॥ १२ ॥
तद्दर्शनाह्लादविधूतहृद्रुजो
मनोरथान्तं
श्रुतयो यथा ययुः ।
स्वैरुत्तरीयैः
कुचकुङ्कुमाङ्कितैः
अचीक्लृपन्नासनमात्मबन्धवे
॥ १३ ॥
तत्रोपविष्टो
भगवान् स ईश्वरो
योगेश्वरान्तर्हृदि
कल्पितासनः ।
चकास
गोपीपरिषद्गतोऽर्चितः
त्रैलोक्यलक्ष्म्येकपदं
वपुर्दधत् ॥ १४ ॥
सभाजयित्वा
तमनङ्गदीपनं
सहासलीलेक्षणविभ्रमभ्रुवा
।
संस्पर्शनेनाङ्ककृताङ्घ्रिहस्तयोः
संस्तुत्य
ईषत्कुपिता बभाषिरे ॥ १५ ॥
इसके
बाद भगवान् श्रीकृष्णने उन व्रजसुन्दरियों को साथ लेकर यमुनाजीके पुलिनमें प्रवेश
किया। उस समय खिले हुए कुन्द और मन्दारके पुष्पोंकी सुरभि लेकर बड़ी ही शीतल और
सुगन्धित मन्द-मन्द वायु चल रही थी और उसकी महँकसे मतवाले होकर भौंरे इधर-उधर
मँडरा रहे थे ॥ ११ ॥ शरत्पूर्णिमाके चन्द्रमाकी चाँदनी अपनी निराली ही छटा दिखला
रही थी। उसके कारण रात्रिके अन्धकारका तो कहीं पता ही न था, सर्वत्र आनन्द-मङ्गल का ही साम्राज्य छाया था। वह पुलिन क्या था, यमुनाजीने स्वयं अपनी लहरोंके हाथों भगवान् की लीलाके लिये सुकोमल बालुका
का रंगमञ्च बना रखा था ॥ १२ ॥ परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनसे गोपियोंके
हृदयमें इतने आनन्द और इतने रसका उल्लास हुआ कि उनके हृदयकी सारी आधि-व्याधि मिट
गयी। जैसे कर्मकाण्डकी श्रुतियाँ उसका वर्णन करते-करते अन्तमें ज्ञानकाण्डका प्रतिपादन
करने लगती हैं और फिर वे समस्त मनोरथोंसे ऊपर उठ जाती हैं, कृतकृत्य
हो जाती हैं—वैसे ही गोपियाँ भी पूर्णकाम हो गयीं। अब
उन्होंने अपने वक्ष:स्थलपर लगी हुई रोली-केसरसे चिह्नित ओढऩी को अपने परम प्यारे
सुहृद् श्रीकृष्णके विराजनेके लिये बिछा दिया ॥ १३ ॥ बड़े-बड़े योगेश्वर अपने
योगसाधन से पवित्र किये हुए हृदयमें जिनके लिये आसनकी कल्पना करते रहते हैं,
किन्तु फिर भी अपने हृदय-सिंहासनपर बिठा नहीं पाते, वही सर्वशक्तिमान् भगवान् यमुनाजी की रेती में गोपियोंकी ओढऩीपर बैठ गये।
सहस्र-सहस्र गोपियोंके बीचमें उनसे पूजित होकर भगवान् बड़े ही शोभायमान हो रहे
थे। परीक्षित् ! तीनों लोकोंमें—तीनों कालोंमें जितना भी
सौन्दर्य प्रकाशित होता है, वह सब तो भगवान्के बिन्दुमात्र
सौन्दर्यका आभासभर है। वे उसके एकमात्र आश्रय हैं ॥ १४ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण अपने
इस अलौकिक सौन्दर्यके द्वारा उनके प्रेम और आकाङ्क्षा को और भी उभाड़ रहे थे।
गोपियोंने अपनी मन्द-मन्द मुसकान, विलासपूर्ण चितवन और तिरछी
भौंहों से उनका सम्मान किया। किसीने उनके चरणकमलों को अपनी गोदमें रख लिया,
तो किसीने उनके करकमलोंको। वे उनके संस्पर्श का आनन्द लेती हुई
कभी-कभी कह उठती थीं—कितना सुकुमार है, कितना मधुर है ! इसके बाद श्रीकृष्ण के छिप जानेसे मन-ही-मन तनिक रूठकर
उनके मुँहसे ही उनका दोष स्वीकार करानेके लिये वे कहने लगीं ॥ १५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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