॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
भगवान्
का प्रकट होकर गोपियों को सान्त्वना देना
श्रीशुक
उवाच -
इति
गोप्यः प्रगायन्त्यः प्रलपन्त्यश्च चित्रधा ।
रुरुदुः
सुस्वरं राजन् कृष्णदर्शनलालसाः ॥ १ ॥
तासामाविरभूच्छौरिः
स्मयमानमुखाम्बुजः ।
पीताम्बरधरः
स्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथः ॥ २ ॥
तं
विलोक्यागतं प्रेष्ठं प्रीत्युत्फुल्लदृशोऽबलाः ।
उत्तस्थुर्युगपत्
सर्वाः तन्वः प्राणमिवागतम् ॥ ३ ॥
काचित्
कराम्बुजं शौरेः जगृहेऽञ्जलिना मुदा ।
काचिद्
दधार तद्बाहुं अंसे चन्दनरूषितम् ॥ ४ ॥
काचिद्
अञ्जलिनागृह्णात् तन्वी ताम्बूलचर्वितम् ।
एका
तदङ्घ्रिकमलं सन्तप्ता स्तनयोरधात् ॥ ५ ॥
एका
भ्रुकुटिमाबध्य प्रेमसंरम्भविह्वला ।
घ्नन्तीवैक्षत्
कटाक्षेपैः सन्दष्टदशनच्छदा ॥ ६ ॥
अपरानिमिषद्
दृग्भ्यां जुषाणा तन्मुखाम्बुजम् ।
आपीतमपि
नातृप्यत् सन्तस्तच्चरणं यथा ॥ ७ ॥
तं
काचिन्नेत्ररन्ध्रेण हृदिकृत्य निमील्य च ।
पुलकाङ्ग्युपगुह्यास्ते
योगीवानन्दसम्प्लुता ॥ ८ ॥
सर्वास्ताः
केशवालोक परमोत्सवनिर्वृताः ।
जहुर्विरहजं
तापं प्राज्ञं प्राप्य यथा जनाः ॥ ९ ॥
ताभिर्विधूतशोकाभिः
भगवानच्युतो वृतः ।
व्यरोचताधिकं
तात पुरुषः शक्तिभिर्यथा ॥ १० ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! भगवान् की प्यारी गोपियाँ विरह के आवेश में इस प्रकार
भाँति-भाँति से गाने और प्रलाप करने लगीं। अपने कृष्ण-प्यारेके दर्शन की लालसा से
वे अपने को रोक न सकीं, करुणाजनक सुमधुर स्वरसे फूट-फूटकर
रोने लगीं ॥ १ ॥ ठीक उसी समय उनके बीचो-बीच भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उनका
मुखकमल मन्द-मन्द मुसकानसे खिला हुआ था। गलेमें वनमाला थी, पीताम्बर
धारण किये हुए थे। उनका यह रूप क्या था, सबके मनको मथ
डालनेवाले कामदेवके मनको भी मथनेवाला था ॥ २ ॥ कोटि-कोटि कामोंसे भी सुन्दर परम
मनोहर प्राणवल्लभ श्यामसुन्दरको आया देख गोपियोंके नेत्र प्रेम और आनन्दसे खिल
उठे। वे सब-की-सब एक ही साथ इस प्रकार उठ खड़ी हुर्ईं, मानो
प्राणहीन शरीरमें दिव्य प्राणोंका सञ्चार हो गया हो, शरीरके
एक-एक अङ्ग में नवीन चेतना—नूतन स्फूर्ति आ गयी हो ॥ ३ ॥ एक
गोपीने बड़े प्रेम और आनन्दसे श्रीकृष्ण के करकमल को अपने दोनों हाथोंमें ले लिया
और वह धीरे-धीरे उसे सहलाने लगी। दूसरी गोपीने उनके चन्दनचर्चित भुजदण्ड को अपने
कंधेपर रख लिया ॥ ४ ॥ तीसरी सुन्दरी ने भगवान् का चबाया हुआ पान अपने हाथोंमें ले
लिया। चौथी गोपी, जिसके हृदयमें भगवान् के विरहसे बड़ी जलन
हो रही थी, बैठ गयी और उनके चरणकमलों को अपने वक्ष:स्थलपर रख
लिया ॥ ५ ॥ पाँचवीं गोपी प्रणयकोप से विह्वल होकर, भौहें
चढ़ाकर, दाँतोंसे होठ दबाकर अपने कटाक्ष-बाणोंसे बींधती हुई
उनकी ओर ताकने लगी ॥ ६ ॥ छठी गोपी अपने निर्निमेष नयनों से उनके मुखकमल का
मकरन्द-रस पान करने लगी। परंतु जैसे संत पुरुष भगवान् के चरणों के दर्शन से कभी
तृप्त नहीं होते, वैसे ही वह उनकी मुख-माधुरीका निरन्तर पान
करते रहनेपर भी तृप्त नहीं होती थी ॥ ७ ॥ सातवीं गोपी नेत्रोंके मार्गसे भगवान् को
अपने हृदयमें ले गयी और फिर उसने आँखें बंद कर लीं। अब मन-ही-मन भगवान् का
आलिङ्गन करनेसे उसका शरीर पुलकित हो गया, रोम-रोम खिल उठा और
वह सिद्ध योगियोंके समान परमानन्द में मग्न हो गयी ॥ ८ ॥ परीक्षित् ! जैसे
मुमुक्षुजन परम ज्ञानी संत पुरुषको प्राप्त करके संसार की पीड़ा से मुक्त हो जाते
हैं, वैसे ही सभी गोपियों को भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन से
परम आनन्द और परम उल्लास प्राप्त हुआ । उनके विरह के कारण गोपियों को जो दु:ख हुआ
था, उससे वे मुक्त हो गयीं और शान्तिके समुद्र में
डूबने-उतराने लगीं ॥ ९ ॥ परीक्षित् ! यों तो भगवान् श्रीकृष्ण अच्युत और एकरस
हैं, उनका सौन्दर्य और माधुर्य निरतिशय है; फिर भी विरह-व्यथा से मुक्त हुई गोपियों के बीच में उनकी शोभा और भी बढ़
गयी । ठीक वैसे ही, जैसे परमेश्वर अपने नित्य ज्ञान, बल आदि शक्तियों से सेवित होनेपर और भी शोभायमान होता है ॥१० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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