॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)
गोपिकागीत
यत्ते
सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु
भीताः
शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।
तेनाटवीमटसि
तद् व्यथते न किं स्वित्
कूर्पादिभिर्भ्रमति
धीर्भवदायुषां नः ॥ १९ ॥
तुम्हारे
चरणकमल से भी सुकुमार हैं। उन्हें हम अपने कठोर स्तनों पर भी डरते-डरते बहुत धीरे से
रखती हैं कि कहीं उन्हें चोट न लग जाय। उन्हीं चरणोंसे तुम रात्रि के समय घोर जंगल
में छिपे-छिपे भटक रहे हो ! क्या कंकड़, पत्थर आदि की चोट
लगने से उनमें पीड़ा नहीं होती, हमें तो इसकी सम्भावनामात्र से
ही चक्कर आ रहा है। हम अचेत होती जा रही हैं। श्रीकृष्ण ! श्यामसुन्दर ! प्राणनाथ
! हमारा जीवन तुम्हारे लिये है, हम तुम्हारे लिये जी रही हैं,
हम तुम्हारी हैं ॥ १९ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे रासक्रीडायां गोपीगीतं नामैकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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