॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
श्रीकृष्ण
का अभिषेक
श्रीभगवानुवाच
-
मया
तेऽकारि मघवन् मखभङ्गोऽनुगृह्णता ।
मदनुस्मृतये
नित्यं मत्तस्येन्द्रश्रिया भृशम् ॥ १५ ॥
मामैश्वर्यश्रीमदान्धो
दण्डपाणिं न पश्यति ।
तं
भ्रंशयामि सम्पद्भ्यो यस्य चेच्छाम्यनुग्रहम् ॥ १६ ॥
गम्यतां
शक्र भद्रं वः क्रियतां मेऽनुशासनम् ।
स्थीयतां
स्वाधिकारेषु युक्तैर्वः स्तम्भवर्जितैः ॥ १७ ॥
अथाह
सुरभिः कृष्णं अभिवन्द्य मनस्विनी ।
स्वसन्तानैरुपामन्त्र्य
गोपरूपिणमीश्वरम् ॥ १८ ॥
सुरभिरुवाच
-
कृष्ण
कृष्ण महायोगिन् विश्वात्मन् विश्वसम्भव ।
भवता
लोकनाथेन सनाथा वयमच्युत ॥ १९ ॥
त्वं
नः परमकं दैवं त्वं न इन्द्रो जगत्पते ।
भवाय
भव गोविप्र देवानां ये च साधवः ॥ २० ॥
इन्द्रं
नस्त्वाभिषेक्ष्यामो ब्रह्मणा चोदिता वयम् ।
अवतीर्णोऽसि
विश्वात्मम् भूमेर्भारापनुत्तये ॥ २१ ॥
श्रीशुक
उवाच -
एवं
कृष्णमुपामन्त्र्य सुरभिः पयसात्मनः ।
जलैराकाशगङ्गाया
ऐरावतकरोद्धृतैः ॥ २२ ॥
इन्द्रः
सुरर्षिभिः साकं चोदितो देवमातृभिः ।
अभ्यसिञ्चत
दाशार्हं गोविन्द इति चाभ्यधात् ॥ २३ ॥
तत्रागतास्तुम्बुरुनारदादयो
गन्धर्वविद्याधरसिद्धचारणाः
।
जगुर्यशो
लोकमलापहं हरेः
सुराङ्गनाः
संननृतुर्मुदान्विताः ॥ २४ ॥
तं
तुष्टुवुर्देवनिकायकेतवो
व्यवाकिरन्
चाद्भुतपुष्पवृष्टिभिः ।
लोकाः
परां निर्वृतिमाप्नुवंस्त्रयो
गावस्तदा
गामनयन् पयोद्रुताम् ॥ २५ ॥
नानारसौघाः
सरितो वृक्षा आसन् मधुस्रवाः ।
अकृष्टपच्यौषधयो
गिरयोऽबिभ्रदुन्मणीन् ॥ २६ ॥
कृष्णेऽभिषिक्त
एतानि सत्त्वानि कुरुनन्दन ।
निर्वैराण्यभवंस्तात
क्रूराण्यपि निसर्गतः ॥ २७ ॥
इति
गोगोकुलपतिं गोविन्दमभिषिच्य सः ।
अनुज्ञातो
ययौ शक्रो वृतो देवादिभिर्दिवम् ॥ २८ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! जब देवराज इन्द्रने भगवान् श्रीकृष्णकी इस प्रकार स्तुति की,
तब उन्होंने हँसते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीसे इन्द्रको सम्बोधन
करके कहा— ॥ १४ ॥
श्रीभगवान्
ने कहा—इन्द्र ! तुम ऐश्वर्य और धन सम्पत्तिके मदसे पूरे-पूरे मतवाले हो रहे थे।
इसलिये तुमपर अनुग्रह करके ही मैंने तुम्हारा यज्ञ भङ्ग किया है। यह इसलिये कि अब
तुम मुझे नित्य-निरन्तर स्मरण रख सको ॥ १५ ॥ जो ऐश्वर्य और धन-सम्पत्तिके मदसे
अंधा हो जाता है, वह यह नहीं देखता कि मैं कालरूप परमेश्वर
हाथमें दण्ड लेकर उसके सिरपर सवार हूँ। मैं जिसपर अनुग्रह करना चाहता हूँ, उसे ऐश्वर्यभ्रष्ट कर देता हूँ ॥ १६ ॥ इन्द्र ! तुम्हारा मङ्गल हो। अब तुम
अपनी राजधानी अमरावतीमें जाओ और मेरी आज्ञाका पालन करो। अब कभी घमंड न करना।
नित्य-निरन्तर मेरी सन्निधिका, मेरे संयोगका अनुभव करते रहना
और अपने अधिकारके अनुसार उचित रीतिसे मर्यादाका पालन करना ॥ १७ ॥
परीक्षित्
! भगवान् इस प्रकार आज्ञा दे ही रहे थे कि मनस्विनी कामधेनु ने अपनी सन्तानों के
साथ गोपवेषधारी परमेश्वर श्रीकृष्णकी वन्दना की और उनको सम्बोधित करके कहा— ॥ १८ ॥
कामधेनुने
कहा—सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! आप महायोगी—योगेश्वर
हैं। आप स्वयं विश्व हैं, विश्वके परमकारण हैं, अच्युत हैं। सम्पूर्ण विश्वके स्वामी आपको अपने रक्षकके रूपमें प्राप्तकर
हम सनाथ हो गयीं ॥ १९ ॥ आप जगत्के स्वामी हैं। परंतु हमारे तो परम पूजनीय
आराध्यदेव ही हैं। प्रभो ! इन्द्र त्रिलोकीके इन्द्र हुआ करें, परंतु हमारे इन्द्र तो आप ही हैं। अत: आप ही गौ, ब्राह्मण,
देवता और साधुजनों की रक्षाके लिये हमारे इन्द्र बन जाइये ॥ २० ॥ हम
गौएँ ब्रह्माजी की प्रेरणासे आपको अपना इन्द्र मानकर अभिषेक करेंगी। विश्वात्मन् !
आपने पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ही अवतार धारण किया है ॥ २१ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्णसे ऐसा कहकर कामधेनुने अपने दूधसे और
देवमाताओंकी प्रेरणासे देवराज इन्द्रने ऐरावतकी सूँडके द्वारा लाये हुए आकाशगङ्गा के
जलसे देवर्षियोंके साथ यदुनाथ श्रीकृष्णका अभिषेक किया और उन्हें ‘गोविन्द’ नामसे सम्बोधित किया ॥ २२-२३ ॥ उस समय वहाँ
नारद, तुम्बुरु आदि गन्धर्व, विद्याधर,
सिद्ध और चारण पहलेसे ही आ गये थे। वे समस्त संसारके पाप-तापको मिटा
देनेवाले भगवान्के लोकमलापह यशका गान करने लगे और अप्सराएँ आनन्दसे भरकर नृत्य
करने लगीं ॥ २४ ॥ मुख्य-मुख्य देवता भगवान् की स्तुति करके उनपर नन्दनवनके दिव्य
पुष्पोंकी वर्षा करने लगे। तीनों लोकोंमें परमानन्दकी बाढ़ आ गयी और गौओंके स्तनों
से आप-ही-आप इतना दूध गिरा कि पृथ्वी गीली हो गयी ॥ २५ ॥ नदियोंमें विविध रसोंकी
बाढ़ आ गयी। वृक्षोंसे मधुधारा बहने लगी। बिना जोते-बोये पृथ्वीमें अनेकों
प्रकारकी ओषधियाँ, अन्न पैदा हो गये। पर्वतोमें छिपे हुए
मणि-माणिक्य स्वयं ही बाहर निकल आये ॥ २६ ॥ परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण का
अभिषेक होनेपर जो जीव स्वभावसे ही क्रूर हैं, वे भी वैरहीन
हो गये, उनमें भी परस्पर मित्रता हो गयी ॥ २७ ॥ इन्द्र ने इस
प्रकार गौ और गोकुल के स्वामी श्रीगोविन्द का अभिषेक किया और उनसे अनुमति प्राप्त
होनेपर देवता, गन्धर्व आदि के साथ स्वर्गकी यात्रा की ॥ २८ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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