॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
इन्द्रयज्ञ-निवारण
श्रीशुक
उवाच -
भगवानपि
तत्रैव बलदेवेन संयुतः ।
अपश्यत्
निवसन् गोपान् इन्द्रयागकृतोद्यमान् ॥ १ ॥
तदभिज्ञोऽपि
भगवान् सर्वात्मा सर्वदर्शनः ।
प्रश्रयावनतोऽपृच्छत्
वृद्धान् नन्दपुरोगमान् ॥ २ ॥
कथ्यतां
मे पितः कोऽयं सम्भ्रमो व उपागतः ।
किं
फलं कस्य चोद्देशः केन वा साध्यते मखः ॥ ३ ॥
एतद्ब्रूहि
महान् कामो मह्यं शुश्रूषवे पितः ।
न
हि गोप्यं हि साधूनां कृत्यं सर्वात्मनामिह ॥ ४ ॥
अस्त्यस्व-परदृष्टीनां
अमित्रोदास्तविद्विषाम् ।
उदासीनोऽरिवद्
वर्ज्य आत्मवत् सुहृदुच्यते ॥ ५ ॥
ज्ञात्वाज्ञात्वा
च कर्माणि जनोऽयमनुतिष्ठति ।
विदुषः
कर्मसिद्धिः स्यात् तथा नाविदुषो भवेत् ॥ ६ ॥
तत्र
तावत् क्रियायोगो भवतां किं विचारितः ।
अथ
वा लौकिकस्तन्मे पृच्छतः साधु भण्यताम् ॥ ७ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ वृन्दावन में रहकर अनेकों
प्रकारकी लीलाएँ कर रहे थे। उन्होंने एक दिन देखा कि वहाँके सब गोप इन्द्र-यज्ञ
करनेकी तैयारी कर रहे हैं ॥ १ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण सबके अन्तर्यामी और सर्वज्ञ
हैं। उनसे कोई बात छिपी नहीं थी, वे सब जानते थे। फिर भी
विनयावनत होकर उन्होंने नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपोंसे पूछा— ॥ २ ॥ ‘पिताजी ! आपलोगोंके सामने यह कौन-सा बड़ा
भारी काम, कौन-सा उत्सव आ पहुँचा है ? इसका
फल क्या है ? किस उद्देश्यसे, कौन लोग,
किन साधनोंके द्वारा यह यज्ञ किया करते हैं ? पिताजी
! आप मुझे यह अवश्य बतलाइये ॥ ३ ॥ आप मेरे पिता हैं और मैं आपका पुत्र। ये बातें
सुनने के लिये मुझे बड़ी उत्कण्ठा भी है। पिताजी ! जो संत पुरुष सबको अपनी आत्मा
मानते हैं, जिनकी दृष्टि में अपने और पराये का भेद नहीं है,
जिनका न कोई मित्र है, न शत्रु और न उदासीन—उनके पास छिपाने की तो कोई बात होती ही नहीं। परंतु यदि ऐसी स्थिति न हो,
तो रहस्यकी बात शत्रुकी भाँति उदासीनसे भी नहीं कहनी चाहिये। मित्र
तो अपने समान ही कहा गया है, इसलिये उससे कोई बात छिपायी
नहीं जाती ॥ ४-५ ॥ यह संसारी मनुष्य समझे-बेसमझे अनेकों प्रकारके कर्मोंका
अनुष्ठान करता है। उनमें से समझ-बूझकर करनेवाले पुरुषों के कर्म जैसे सफल होते हैं,
वैसे बेसमझ के नहीं ॥ ६ ॥ अत: इस समय आपलोग जो क्रियायोग करने जा
रहे हैं, वह सुहृदों के साथ विचारित—शास्त्रसम्मत
है अथवा लौकिक ही है—मैं यह सब जानना चाहता हूँ; आप कृपा करके स्पष्टरूप से बतलाइये’ ॥ ७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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