॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
इन्द्रयज्ञ-निवारण
श्रीनन्द
उवाच -
पर्जन्यो
भगवान् इन्द्रो मेघास्तस्यात्ममूर्तयः ।
तेऽभिवर्षन्ति
भूतानां प्रीणनं जीवनं पयः ॥ ८ ॥
तं
तात वयमन्ये च वार्मुचां पतिमीश्वरम् ।
द्रव्यैस्तद्
रेतसा सिद्धैः यजन्ते क्रतुभिर्नराः ॥ ९ ॥
तच्छेषेणोपजीवन्ति
त्रिवर्गफलहेतवे ।
पुंसां
पुरुषकाराणां पर्जन्यः फलभावनः ॥ १० ॥
य
एनं विसृजेत् धर्मं परम्पर्यागतं नरः ।
कामाल्लोभात्
भयाद् द्वेषात् स वै नाप्नोति शोभनम् ॥ ११ ॥
श्रीशुक
उवाच -
वचो
निशम्य नन्दस्य तथान्येषां व्रजौकसाम् ।
इन्द्राय
मन्युं जनयन् पितरं प्राह केशवः ॥ १२ ॥
श्रीभगवानुवाच
-
कर्मणा
जायते जन्तुः कर्मणैव विलीयते ।
सुखं
दुःखं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते ॥ १३ ॥
अस्ति
चेदीश्वरः कश्चित् फलरूप्यन्यकर्मणाम् ।
कर्तारं
भजते सोऽपि न ह्यकर्तुः प्रभुर्हि सः ॥ १४ ॥
किमिन्द्रेणेह
भूतानां स्वस्वकर्मानुवर्तिनाम् ।
अनीशेनान्यथा
कर्तुं स्वभावविहितं नृणाम् ॥ १५ ॥
स्वभावतन्त्रो
हि जनः स्वभावमनुवर्तते ।
स्वभावस्थमिदं
सर्वं सदेवासुरमानुषम् ॥ १६ ॥
नन्दबाबाने
कहा—बेटा ! भगवान् इन्द्र वर्षा करनेवाले मेघोंके स्वामी हैं। ये मेघ
उन्हींके अपने रूप हैं। वे समस्त प्राणियोंको तृप्त करनेवाला एवं जीवनदान करनेवाला
जल बरसाते हैं ॥ ८ ॥ मेरे प्यारे पुत्र ! हम और दूसरे लोग भी उन्हीं मेघपति भगवान्
इन्द्रकी यज्ञोंके द्वारा पूजा किया करते हैं। जिन सामग्रियोंसे यज्ञ होता है,
वे भी उनके बरसाये हुए शक्तिशाली जलसे ही उत्पन्न होती हैं ॥ ९ ॥
उनका यज्ञ करनेके बाद जो कुछ बच रहता है, उसी अन्नसे हम सब
मनुष्य अर्थ, धर्म और कामरूप त्रिवर्गकी सिद्धिके लिये अपना
जीवन निर्वाह करते हैं। मनुष्योंके खेती आदि प्रयत्नोंके फल देनेवाले इन्द्र ही
हैं ॥ १० ॥ यह धर्म हमारी कुलपरम्परासे चला आया है। जो मनुष्य काम, लोभ, भय अथवा द्वेषवश ऐसे परम्परागत धर्मको छोड़
देता है, उसका कभी मङ्गल नहीं होता ॥ ११ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! ब्रह्मा, शङ्कर आदिके भी शासन करनेवाले
केशव भगवान्ने नन्दबाबा और दूसरे व्रजवासियोंकी बात सुनकर इन्द्रको क्रोध
दिलानेके लिये अपने पिता नन्दबाबासे कहा ॥ १२ ॥
श्रीभगवान्
ने कहा—पिताजी ! प्राणी अपने कर्मके अनुसार ही पैदा होता और कर्मसे ही मर जाता
है। उसे उसके कर्मके अनुसार ही सुख-दु:ख, भय और मङ्गल के
निमित्तों की प्राप्ति होती है ॥ १३ ॥ यदि कर्मोंको ही सब कुछ न मानकर उनसे भिन्न
जीवोंके कर्मका फल देनेवाला ईश्वर माना भी जाय, तो वह कर्म
करनेवालोंको ही उनके कर्मके अनुसार फल दे सकता है। कर्म न करनेवालोंपर उसकी
प्रभुता नहीं चल सकती ॥ १४ ॥ जब सभी प्राणी अपने-अपने कर्मोंका ही फल भोग रहे हैं
तब हमें इन्द्रकी क्या आवश्यकता है ? पिताजी ! जब वे
पूर्वसंस्कारके अनुसार प्राप्त होनेवाले मनुष्योंके कर्म-फलको बदल ही नहीं सकते—तब उनसे प्रयोजन ? ॥ १५ ॥ मनुष्य अपने स्वभाव
(पूर्व-संस्कारों) के अधीन है। वह उसीका अनुसरण करता है। यहाँतक कि देवता, असुर, मनुष्य आदिको लिये हुए यह सारा जगत् स्वभावमें
ही स्थित है ॥ १६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें