गुरुवार, 9 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

इन्द्रयज्ञ-निवारण

 

देहानुच्चावचाञ्जन्तुः प्राप्योत् सृजति कर्मणा ।

शत्रुर्मित्रमुदासीनः कर्मैव गुरुरीश्वरः ॥ १७ ॥

तस्मात् संपूजयेत्कर्म स्वभावस्थः स्वकर्मकृत् ।

अन्जसा येन वर्तेत तदेवास्य हि दैवतम् ॥ १८ ॥

आजीव्यैकतरं भावं यस्त्वन्यमुपजीवति ।

न तस्माद् विन्दते क्षेमं जारान्नार्यसती यथा ॥ १९ ॥

वर्तेत ब्रह्मणा विप्रो राजन्यो रक्षया भुवः ।

वैश्यस्तु वार्तया जीवेत् शूद्रस्तु द्विजसेवया ॥ २० ॥

कृषिवाणिज्यगोरक्षा कुसीदं तूर्यमुच्यते ।

वार्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोऽनिशम् ॥ २१ ॥

सत्त्वं रजस्तम इति स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः ।

रजसोत्पद्यते विश्वं अन्योन्यं विविधं जगत् ॥ २२ ॥

रजसा चोदिता मेघा वर्षन्त्यम्बूनि सर्वतः ।

प्रजास्तैरेव सिध्यन्ति महेन्द्रः किं करिष्यति ॥ २३ ॥

न नः पुरोजनपदा न ग्रामा न गृहा वयम् ।

नित्यं वनौकसस्तात वनशैलनिवासिनः ॥ ॥

तस्माद्‍गवां ब्राह्मणानां अद्रेश्चारभ्यतां मखः ।

य इंद्रयागसंभाराः तैरयं साध्यतां मखः ॥ २५ ॥

पच्यन्तां विविधाः पाकाः सूपान्ताः पायसादयः ।

संयावापूपशष्कुल्यः सर्वदोहश्च गृह्यताम् ॥ २६ ॥

हूयन्तामग्नयः सम्यग् ब्राह्मणैर्ब्रह्मवादिभिः ।

अन्नं बहुगुणं तेभ्यो देयं वो धेनुदक्षिणाः ॥ २७ ॥

अन्येभ्यश्चाश्वचाण्डाल पतितेभ्यो यथार्हतः ।

यवसं च गवां दत्त्वा गिरये दीयतां बलिः ॥ २८ ॥

स्वलङ्‌कृता भुक्तवन्तः स्वनुलिप्ताः सुवाससः ।

प्रदक्षिणां च कुरुत गोविप्रानलपर्वतान् ॥ २९ ॥

एतन्मम मतं तात क्रियतां यदि रोचते ।

अयं गोब्राह्मणाद्रीणां मह्यं च दयितो मखः ॥ ३० ॥

 

जीव अपने कर्मों के अनुसार उत्तम और अधम शरीरों को ग्रहण करता और छोड़ता रहता है। अपने कर्मोंके अनुसार ही यह शत्रु है, यह मित्र है, यह उदासीन है’—ऐसा व्यवहार करता है। कहाँतक कहूँ, कर्म ही गुरु है और कर्म ही ईश्वर ॥ १७ ॥ इसलिये पिताजी ! मनुष्यको चाहिये कि पूर्व संस्कारोंके अनुसार अपने वर्ण तथा आश्रमके अनुकूल धर्मोंका पालन करता हुआ कर्मका ही आदर करे। जिसके द्वारा मनुष्यकी जीविका सुगमतासे चलती है, वही उसका इष्टदेव होता है ॥ १८ ॥ जैसे अपने विवाहित पतिको छोडक़र जार पतिका सेवन करनेवाली व्यभिचारिणी स्त्री कभी शान्तिलाभ नहीं करती, वैसे ही जो मनुष्य अपनी आजीविका चलानेवाले एक देवताको छोडक़र किसी दूसरेकी उपासना करते हैं, उससे उन्हें कभी सुख नहीं मिलता ॥ १९ ॥ ब्राह्मण वेदोंके अध्ययन-अध्यापनसे, क्षत्रिय पृथ्वी- पालनसे, वैश्य वार्ता वृत्तिसे और शूद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंकी सेवासे अपनी जीविकाका निर्वाह करें ॥ २० ॥ वैश्योंकी वार्तावृत्ति चार प्रकारकी हैकृषि, वाणिज्य, गोरक्षा और ब्याज लेना। हमलोग उन चारोंमेंसे एक केवल गोपालन ही सदासे करते आये हैं ॥ २१ ॥ पिताजी ! इस संसारकी स्थिति, उत्पत्ति और अन्तके कारण क्रमश: सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण हैं। यह विविध प्रकारका सम्पूर्ण जगत् स्त्री-पुरुषके संयोगसे रजोगुणके द्वारा उत्पन्न होता है ॥ २२ ॥ उसी रजोगुणकी प्रेरणासे मेघगण सब कहीं जल बरसाते हैं। उसीसे अन्न और अन्नसे ही सब जीवोंकी जीविका चलती है। इसमें भला इन्द्रका क्या लेना-देना है ? वह भला, क्या कर सकता है ? ॥ २३ ॥

 

पिताजी ! न तो हमारे पास किसी देशका राज्य है और न तो बड़े-बड़े नगर ही हमारे अधीन हैं। हमारे पास गाँव या घर भी नहीं हैं। हम तो सदाके वनवासी हैं, वन और पहाड़ ही हमारे घर हैं ॥ २४ ॥ इसलिये हमलोग गौओं, ब्राह्मणों और गिरिराजका यजन करनेकी तैयारी करें। इन्द्र- यज्ञके लिये जो सामग्रियाँ इकट्ठी की गयी हैं, उन्हींसे इस यज्ञका अनुष्ठान होने दें ॥ २५ ॥ अनेकों प्रकारके पकवानखीर, हलवा, पूआ, पूरी आदिसे लेकर मूँगकी दालतक बनाये जायँ। व्रजका सारा दूध एकत्र कर लिया जाय ॥ २६ ॥ वेदवादी ब्राह्मणोंके द्वारा भलीभाँति हवन करवाया जाय तथा उन्हें अनेकों प्रकारके अन्न, गौएँ और दक्षिणाएँ दी जायँ ॥ २७ ॥ और भी, चाण्डाल, पतित तथा कुत्तों तक को यथायोग्य वस्तुएँ देकर गायों को चारा दिया जाय और फिर गिरिराज को भोग लगाया जाय ॥ २८ ॥ इसके बाद खूब प्रसाद खा-पीकर, सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पहनकर गहनोंसे सज-सजा लिया जाय और चन्दन लगाकर गौ, ब्राह्मण, अग्रि तथा गिरिराज गोवर्धनकी प्रदक्षिणा की जाय ॥ २९ ॥ पिताजी ! मेरी तो ऐसी ही सम्मति है। यदि आपलोगोंको रुचे, तो ऐसा ही कीजिये। ऐसा यज्ञ गौ, ब्राह्मण और गिरिराजको तो प्रिय होगा ही; मुझे भी बहुत प्रिय है ॥ ३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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