॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)— बावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
द्वारकागमन,श्रीबलरामजी का विवाह तथा श्रीकृष्ण के पास
रुक्मिणी जी
का सन्देशा लेकर ब्राह्मण का आना
श्रीशुक
उवाच
इत्थं
सोऽनुग्रहीतोऽङ्ग कृष्णेनेक्ष्वाकु नन्दनः
तं
परिक्रम्य सन्नम्य निश्चक्राम गुहामुखात् १
संवीक्ष्य
क्षुल्लकान्मर्त्यान्पशून्वीरुद्वनस्पतीन्
मत्वा
कलियुगं प्राप्तं जगाम दिशमुत्तराम् २
तपःश्रद्धायुतो
धीरो निःसङ्गो मुक्तसंशयः
समाधाय
मनः कृष्णे प्राविशद्गन्धमादनम् ३
बदर्याश्रममासाद्य
नरनारायणालयम्
सर्वद्वन्द्वसहः
शान्तस्तपसाराधयद्धरिम् ४
भगवान्पुनराव्रज्य
पुरीं यवनवेष्टिताम्
हत्वा
म्लेच्छबलं निन्ये तदीयं द्वारकां धनम् ५
नीयमाने
धने गोभिर्नृभिश्चाच्युतचोदितैः
आजगाम
जरासन्धस्त्रयोविंशत्यनीकपः ६
विलोक्य
वेगरभसं रिपुसैन्यस्य माधवौ
मनुष्यचेष्टामापन्नौ
राजन्दुद्रुवतुर्द्रुतम् ७
विहाय
वित्तं प्रचुरमभीतौ भीरुभीतवत्
पद्भ्यां
पलाशाभ्यां चेलतुर्बहुयोजनम् ८
पलायमानौ
तौ दृष्ट्वा मागधः प्रहसन्बली
अन्वधावद्रथानीकैरीशयोरप्रमाणवित्
९
प्रद्रुत्य
दूरं संश्रान्तौ तुङ्गमारुहतां गिरिम्
प्रवर्षणाख्यं
भगवान्नित्यदा यत्र वर्षति १०
गिरौ
निलीनावाज्ञाय नाधिगम्य पदं नृप
ददाह
गिरिमेधोभिः समन्तादग्निमुत्सृजन् ११
तत
उत्पत्य तरसा दह्यमानतटादुभौ
दशैकयोजनात्तुङ्गान्निपेततुरधो
भुवि १२
अलक्ष्यमाणौ
रिपुणा सानुगेन यदूत्तमौ
स्वपुरं
पुनरायातौ समुद्र परिखां नृप १३
सोऽपि
दग्धाविति मृषा मन्वानो बलकेशवौ
बलमाकृष्य
सुमहन्मगधान्मागधो ययौ १४
आनर्ताधिपतिः
श्रीमान्रैवतो रैवतीं सुताम्
ब्रह्मणा
चोदितः प्रादाद्बलायेति पुरोदितम् १५
भगवानपि
गोविन्द उपयेमे कुरूद्वह
वैदर्भीं
भीष्मकसुतां श्रियो मात्रां स्वयंवरे १६
प्रमथ्य
तरसा राज्ञः शाल्वादींश्चैद्यपक्षगान्
पश्यतां
सर्वलोकानां तार्क्ष्यपुत्रः सुधामिव १७
श्रीराजोवाच
भगवान्भीष्मकसुतां
रुक्मिणीं रुचिराननाम्
राक्षसेन
विधानेन उपयेम इति श्रुतम् १८
भगवन्श्रोतुमिच्छामि
कृष्णस्यामिततेजसः
यथा
मागधशाल्वादीन्जित्वा कन्यामुपाहरत् १९
ब्रह्मन्कृष्णकथाः
पुण्या माध्वीर्लोकमलापहाः
को
नु तृप्येत शृण्वानः श्रुतज्ञो नित्यनूतनाः २०
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—प्यारे परीक्षित् ! भगवान्
श्रीकृष्ण ने इस प्रकार इक्ष्वाकुनन्दन राजा मुचुकुन्दपर अनुग्रह किया। अब
उन्होंने भगवान् की परिक्रमा की, उन्हें नमस्कार किया और
गुफासे बाहर निकले ।। १ ।। उन्होंने बाहर आकर देखा कि सब-के-सब मनुष्य, पशु, लता और वृक्ष- वनस्पति पहलेकी अपेक्षा बहुत
छोटे-छोटे आकारके हो गये हैं। इससे यह जानकर कि कलियुग आ गया, वे उत्तर दिशाकी ओर चल दिये ।। २ ।। महाराज मुचुकुन्द तपस्या, श्रद्धा, धैर्य तथा अनासक्तिसे युक्त एवं
संशय-सन्देहसे मुक्त थे। वे अपना चित्त भगवान् श्रीकृष्णमें लगाकर गन्धमादन
पर्वतपर जा पहुँचे ।। ३ ।। भगवान् नर-नारायणके नित्य निवासस्थान बदरिकाश्रममें
जाकर बड़े शान्तभावसे गर्मी-सर्दी आदि द्वन्द्व सहते हुए वे तपस्याके द्वारा
भगवान्की आराधना करने लगे ।। ४ ।।
इधर भगवान्
श्रीकृष्ण मथुरापुरीमें लौट आये। अबतक कालयवनकी सेनाने उसे घेर रखा था। अब
उन्होंने म्लेच्छोंकी सेनाका संहार किया और उसका सारा धन छीनकर द्वारकाको ले चले
।। ५ ।। जिस समय भगवान् श्रीकृष्णके आज्ञानुसार मनुष्यों और बैलोंपर वह धन ले
जाया जाने लगा, उसी समय मगधराज जरासन्ध फिर
(अठारहवीं बार) तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर आ धमका ।। ६ ।। परीक्षित् !
शत्रु-सेनाका प्रबल वेग देखकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम मनुष्योंकी-सी लीला करते
हुए उसके सामनेसे बड़ी फुर्तीके साथ भाग निकले ।। ७ ।। उनके मनमें तनिक भी भय न
था। फिर भी मानो अत्यन्त भयभीत हो गये हों—इस प्रकारका नाट्य
करते हुए, वह सब-का-सब धन वहीं छोडक़र अनेक योजनोंतक वे अपने
कमलदलके समान सुकोमल चरणोंसे ही—पैदल भागते चले गये ।। ८ ।।
जब महाबली मगधराज जरासन्धने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम तो भाग रहे हैं, तब वह हँसने लगा और अपनी रथ-सेनाके साथ उनका पीछा करने लगा। उसे भगवान्
श्रीकृष्ण और बलरामजीके ऐश्वर्य, प्रभाव आदिका ज्ञान न था ।।
९ ।। बहुत दूरतक दौडऩेके कारण दोनों भाई कुछ थक-से गये। अब वे बहुत ऊँचे प्रवर्षण
पर्वतपर चढ़ गये। उस पर्वतका ‘प्रवर्षण’ नाम इसलिये पड़ा था कि वहाँ सदा ही—मेघ वर्षा किया
करते थे ।। १० ।। परीक्षित् ! जब जरासन्धने देखा कि वे दोनों पहाड़में छिप गये और
बहुत ढूँढनेपर भी पता न चला, तब उसने र्ईंधनसे भरे हुए
प्रवर्षण पर्वतके चारों ओर आग लगवाकर उसे जला दिया ।। ११ ।। जब भगवान् ने देखा कि
पर्वतके छोर जलने लगे हैं, तब दोनों भाई जरासन्धकी सेनाके
घेरेको लाँघते हुए बड़े वेगसे उस ग्यारह योजन (चौवालीस कोस) ऊँचे पर्वतसे एकदम
नीचे धरतीपर कूद आये ।। १२ ।। राजन् ! उन्हें जरासन्धने अथवा उसके किसी सैनिकने
देखा नहीं और वे दोनों भाई वहाँसे चलकर फिर अपनी समुद्रसे घिरी हुई द्वारकापुरीमें
चले आये ।। १३ ।। जरासन्ध ने झूठमूठ ऐसा मान लिया कि श्रीकृष्ण और बलराम तो जल गये,
और फिर वह अपनी बहुत बड़ी सेना लौटाकर मगधदेशको चला गया ।। १४ ।।
यह बात मैं
तुमसे पहले ही (नवम स्कन्धमें) कह चुका हूँ कि आनर्तदेशके राजा श्रीमान् रैवतजीने
अपनी रेवती नामकी कन्या ब्रह्माजीकी प्रेरणासे बलरामजीके साथ ब्याह दी ।। १५ ।।
परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण भी स्वयंवरमें आये हुए शिशुपाल और उसके पक्षपाती
शाल्व आदि नरपतियोंको बलपूर्वक हराकर सबके देखते-देखते, जैसे गरुडऩे सुधाका हरण किया था, वैसे ही विदर्भदेशकी राजकुमारी रुक्मिणीको हर लाये और उनसे विवाह कर लिया।
रुक्मिणीजी राजा भीष्मककी कन्या और स्वयं भगवती लक्ष्मीजीका अवतार थीं ।। १६-१७ ।।
राजा
परीक्षित्ने पूछा—भगवन् ! हमने सुना है कि
भगवान् श्रीकृष्णने भीष्मकनन्दिनी परम- सुन्दरी रुक्मिणीदेवीको बलपूर्वक हरण करके
राक्षसविधिसे उनके साथ विवाह किया था ।। १८ ।। महाराज ! अब मैं यह सुनना चाहता हूँ
कि परम तेजस्वी भगवान् श्रीकृष्णने जरासन्ध, शाल्व आदि
नरपतियोंको जीतकर किस प्रकार रुक्मिणीका हरण किया ? ।। १९ ।।
ब्रह्मर्षे ! भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाओंके सम्बन्धमें क्या कहना है ? वे स्वयं तो पवित्र हैं ही, सारे जगत्का मल धो-
बहाकर उसे भी पवित्र कर देनेवाली हैं। उनमें ऐसी लोकोत्तर माधुरी है, जिसे दिन-रात सेवन करते रहनेपर भी नित्य नया-नया रस मिलता रहता है। भला
ऐसा कौन रसिक, कौन मर्मज्ञ है, जो
उन्हें सुनकर तृप्त न हो जाय ।। २० ।।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से