॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
कालयवन का भस्म होना, मुचुकुन्द की कथा
करोति कर्माणि तपःसुनिष्ठितो
निवृत्तभोगस्तदपेक्षयाददत्
पुनश्च भूयासमहं स्वराडिति
प्रवृद्धतर्षो न सुखाय कल्पते ५३
भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवे-
ज्जनस्य तर्ह्यच्युत सत्समागमः
सत्सङ्गमो यर्हि तदैव सद्गतौ
परावरेशे त्वयि जायते मतिः ५४
मन्ये ममानुग्रह ईश ते कृतो
राज्यानुबन्धापगमो यदृच्छया
यः प्रार्थ्यते साधुभिरेकचर्यया
वनं विविक्षद्भिरखण्डभूमिपैः ५५
न कामयेऽन्यं तव पादसेवना-
दकिञ्चनप्रार्थ्यतमाद्वरं विभो
आराध्य कस्त्वां ह्यपवर्गदं हरे वृ
णीत आर्यो वरमात्मबन्धनम् ५६
तस्माद्विसृज्याशिष ईश सर्वतो
रजस्तमःसत्त्वगुणानुबन्धनाः
निरञ्जनं निर्गुणमद्वयं परं
त्वां ज्ञाप्तिमात्रं पुरुषं व्रजाम्यहम् ५७
चिरमिह वृजिनार्तस्तप्यमानोऽनुतापै-
रवितृषषडमित्रोऽलब्धशान्तिः कथञ्चित्
शरणद समुपेतस्त्वत्पदाब्जं परात्मन्
अभयमृतमशोकं पाहि मापन्नमीश ५८
श्रीभगवानुवाच
सार्वभौम महाराज मतिस्ते विमलोर्जिता
वरैः प्रलोभितस्यापि न कामैर्विहता यतः ५९
प्रलोभितो वरैर्यत्त्वमप्रमादाय विद्धि तत्
न धीरेकान्तभक्तानामाशीर्भिर्भिद्यते क्वचित् ६०
युञ्जानानामभक्तानां प्राणायामादिभिर्मनः
अक्षीणवासनं राजन्दृश्यते पुनरुत्थितम् ६१
विचरस्व महीं कामं मय्यावेशितमानसः
अस्त्वेवं नित्यदा तुभ्यं भक्तिर्मय्यनपायिनी ६२
क्षात्रधर्मस्थितो जन्तून्न्यवधीर्मृगयादिभिः
समाहितस्तत्तपसा जह्यघं मदुपाश्रितः ६३
जन्मन्यनन्तरे राजन्सर्वभूतसुहृत्तमः
भूत्वा द्विजवरस्त्वं वै मामुपैष्यसि केवलम् ६४
बहुत-से लोग विषय-भोग छोड़कर पुनः राज्यादि भोग मिलने की
इच्छा से दान-पुण्य करते हैं और ‘मैं फिर जन्म लेकर सबसे बड़ा परम स्वतन्त्र
सम्राट होऊँ’ ऐसी कामना रखकर तपस्या में भलीभाँति स्थित हो शुभ कर्म करते हैं। इस
प्रकार जिसकी तृष्णा बढ़ी हुई है, वह कदापि
सुखी नहीं हो सकता। अपने स्वरूप में एकरस स्थित रहने वाले भगवन! जीव अनादिकाल से
जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्कर में भटक रहा है। जब उस चक्कर से छूटने का समय आता
है, तब उसे सत्संग प्राप्त होता है। यह निश्चय है कि जिस
क्षण सत्संग प्राप्त होता है, उसी क्षण संतों के आश्रय,
कार्य-कारणरूप जगत के एकमात्र स्वामी आप में जीव की बुद्धि अत्यन्त
दृढ़ता से लग जाती है।
भगवन! मैं तो ऐसा समझता हूँ कि आपने मेरे ऊपर परम अनुग्रह
की वर्षा की, क्योंकि बिना किसी परिश्रम के, अनायास ही मेरे राज्य का बन्धन टूट गया। साधु-स्वभाव के चक्रवर्ती राजा भी
अब अपना राज्य छोड़कर एकान्त में भजन-साधन करने के उद्देश्य से वन में जाना चाहते
हैं, तब उसके ममता-बन्धन से मुक्त होने के लिये बड़े प्रेम
से आपसे प्रार्थन किया करते हैं। अन्तर्यामी प्रभो! आपसे क्या छिपा है? मैं आपके चरणों की सेवा के अतिरिक्त और कोई भी वर नहीं चाहता; क्योंकि जिनके पास किसी प्रकार का संग्रह-परग्रह नहीं है अथवा जो उसके
अभिमान से रहित हैं, वे लोग भी केवल उसी के लिये प्रार्थना
करते हैं। भगवन! भला, बतलाइये तो सही- मोक्ष देने वाले आपकी
आराधना करके ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ पुरुष होगा, जो अपने को
बाँधने वाले सांसारिक विषयों का वर माँगे।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे मुचुकुन्दस्तुतिर्नामैकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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