॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
श्रीकृष्ण-बलराम
का मथुरागमन
श्रीगोप्य
ऊचुः -
अहो
विधातस्तव न क्वचिद् दया
संयोज्य
मैत्र्या प्रणयेन देहिनः ।
तांश्चाकृतार्थान्
वियुनङ्क्ष्यपार्थकं
विक्रीडितं
तेऽर्भकचेष्टितं यथा ॥ १९ ॥
यस्त्वं
प्रदर्श्यासितकुन्तलावृतं
मुकुन्दवक्त्रं
सुकपोलमुन्नसम् ।
शोकापनोदस्मितलेशसुन्दरं
करोषि
पारोक्ष्यमसाधु ते कृतम् ॥ २० ॥
क्रूरस्त्वमक्रूरसमाख्यया
स्म नः
चक्षुर्हि
दत्तं हरसे बताज्ञवत् ।
येनैकदेशेऽखिलसर्गसौष्ठवं
त्वदीयमद्राक्ष्म
वयं मधुद्विषः ॥ २१ ॥
न
नन्दसूनुः क्षणभङ्गसौहृदः
समीक्षते
नः स्वकृतातुरा बत ।
विहाय
गेहान् स्वजनान् तान् पतीन्
तद्दास्यमद्धोपगता
नवप्रियः ॥ २२ ॥
सुखं
प्रभाता रजनीयमाशिषः
सत्या
बभूवुः पुरयोषितां ध्रुवम् ।
याः
संप्रविष्टस्य मुखं व्रजस्पतेः
पास्यन्त्यपाङ्गोत्
कलितस्मितासवम् ॥ २३ ॥
तासां
मुकुन्दो मधुमञ्जुभाषितैरः
गृहीतचित्तः
परवान् मनस्व्यपि ।
कथं
पुनर्नः प्रतियास्यतेऽबला
ग्राम्याः
सलज्जस्मितविभ्रमैर्भ्रमन् ॥ २४ ॥
अद्य
ध्रुवं तत्र दृशो भविष्यते
दाशार्हभोजान्धक
वृष्णिसात्वताम् ।
महोत्सवः
श्रीरमणं गुणास्पदं
द्रक्ष्यन्ति
ये चाध्वनि देवकीसुतम् ॥ २५ ॥
मैतद्विधस्याकरुणस्य
नाम भूद्
अक्रूर
इत्येतदतीव दारुणः ।
योऽसावनाश्वास्य
सुदुःखितं जनं
प्रियात्प्रियं
नेष्यति पारमध्वनः ॥ २६ ॥
अनार्द्रधीरेष
समास्थितो रथं
तमन्वमी
च त्वरयन्ति दुर्मदाः ।
गोपा
अनोभिः स्थविरैरुपेक्षितं
दैवं
च नोऽद्य प्रतिकूलमीहते ॥ २७ ॥
निवारयामः
समुपेत्य माधवं
किं
नोऽकरिष्यन् कुलवृद्धबान्धवाः ।
मुकुन्दसङ्गान्निमिषार्धदुस्त्यजाद्
दैवेन
विध्वंसितदीनचेतसाम् ॥ २८ ॥
यस्यानुरागललितस्मितवल्गुमन्त्र
लीलावलोकपरिरम्भणरासगोष्ठाम्
।
नीताः
स्म नः क्षणमिव क्षणदा विना तं
गोप्यः
कथं न्वतितरेम तमो दुरन्तम् ॥ २९ ॥
योऽह्नः
क्षये व्रजमनन्तसखः परीतो
गोपैर्विशन्
खुररजश्छुरितालकस्रक् ।
वेणुं
क्वणन् स्मितकटाक्षनिरीक्षणेन
चित्तं
क्षिणोत्यमुमृते नु कथं भवेम ॥ ३० ॥
गोपियोंने
कहा—धन्य हो विधाता ! तुम सब कुछ विधान तो करते हो, परंतु
तुम्हारे हृदयमें दयाका लेश भी नहीं है। पहले तो तुम सौहार्द और प्रेमसे जगत् के
प्राणियोंको एक-दूसरेके साथ जोड़ देते हो, उन्हें आपसमें एक
कर देते हो; मिला देते हो परंतु अभी उनकी आशा-अभिलाषाएँ पूरी
भी नहीं हो पातीं, वे तृप्त भी नहीं हो पाते कि तुम उन्हें
व्यर्थ ही अलग-अलग कर देते हो ! सच है, तुम्हारा यह खिलवाड़
बच्चोंके खेलकी तरह व्यर्थ ही है ॥ १९ ॥ यह कितने दु:खकी बात है ! विधाता ! तुमने
पहले हमें प्रेमका वितरण करनेवाले श्यामसुन्दरका मुखकमल दिखलाया। कितना सुन्दर है
वह ! काले-काले घुँघराले बाल कपोलोंपर झलक रहे हैं। मरकतमणि-से चिकने सुस्निग्ध
कपोल और तोतेकी चोंच-सी सुन्दर नासिका तथा अधरोंपर मन्द-मन्द मुसकानकी सुन्दर रेखा,
जो सारे शोकोंको तत्क्षण भगा देती है। विधाता ! तुमने एक बार तो
हमें वह परम सुन्दर मुखकमल दिखाया और अब उसे ही हमारी आँखोंसे ओझल कर रहे हो !
सचमुच तुम्हारी यह करतूत बहुत ही अनुचित है ॥ २० ॥ हम जानती हैं, इसमें अक्रूरका दोष नहीं है; यह तो साफ तुम्हारी
क्रूरता है। वास्तवमें तुम्हीं अक्रूरके नामसे यहाँ आये हो और अपनी ही दी हुई
आँखें तुम हमसे मूर्खकी भाँति छीन रहे हो। इनके द्वारा हम श्यामसुन्दरके एक-एक
अङ्गोंमें तुम्हारी सृष्टिका सम्पूर्ण सौन्दर्य निहारती रहती थीं। विधाता !
तुम्हें ऐसा नहीं चाहिये ॥ २१ ॥
अहो
! नन्दनन्दन श्यामसुन्दरको भी नये-नये लोगोंसे नेह लगानेकी चाट पड़ गयी है। देखो
तो सही—इनका सौहार्द, इनका प्रेम एक क्षणमें ही कहाँ चला
गया ? हम तो अपने घर-द्वार, स्वजन-सम्बन्धी,
पति-पुत्र आदिको छोडक़र इनकी दासी बनीं और इन्हींके लिये आज हमारा
हृदय शोकातुर हो रहा है, परंतु ये ऐसे हैं कि हमारी ओर
देखतेतक नहीं ॥ २२ ॥ आजकी रातका प्रात:काल मथुराकी स्त्रियोंके लिये निश्चय ही
बड़ा मङ्गलमय होगा। आज उनकी बहुत दिनोंकी अभिलाषाएँ अवश्य ही पूरी हो जायँगी। जब
हमारे व्रजराज श्यामसुन्दर अपनी तिरछी चितवन और मन्द-मन्द मुसकानसे युक्त मुखारविन्दका
मादक मधु वितरण करते हुए मथुरापुरीमें प्रवेश करेंगे, तब वे
उसका पान करके धन्य-धन्य हो जायँगी ॥ २३ ॥ यद्यपि हमारे श्यामसुन्दर धैर्यवान्
होनेके साथ ही नन्दबाबा आदि गुरुजनोंकी आज्ञामें रहते हैं, तथापि
मथुराकी युवतियाँ अपने मधुके समान मधुर वचनोंसे इनका चित्त बरबस अपनी ओर खींच
लेंगी और ये उनकी सलज्ज मुसकान तथा विलासपूर्ण भाव-भंगीसे वहीं रम जायँगे। फिर हम
गँवार ग्वालिनोंके पास ये लौटकर क्यों आने लगे ॥ २४ ॥ धन्य है आज हमारे
श्यामसुन्दरका दर्शन करके मथुराके दाशाहर्, भोज, अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंके नेत्र अवश्य ही परमानन्दका साक्षात्कार
करेंगे। आज उनके यहाँ महान् उत्सव होगा। साथ ही जो लोग यहाँ से मथुरा जाते हुए
रमारमण गुणसागर नटनागर देवकीनन्दन श्यामसुन्दर का मार्ग में दर्शन करेंगे,वे भी निहाल हो जायँगे ॥२५ ॥
देखो
सखी ! यह अक्रूर कितना निठुर, कितना हृदयहीन है। इधर तो हम
गोपियाँ इतनी दु:खित हो रही हैं और यह हमारे परम प्रियतम नन्ददुलारे श्यामसुन्दरको
हमारी आँखोंसे ओझल करके बहुत दूर ले जाना चाहता है और दो बात कहकर हमें धीरज भी
नहीं बँधाता, आश्वासन भी नहीं देता। सचमुच ऐसे अत्यन्त क्रूर
पुरुषका ‘अक्रूर’ नाम नहीं होना चाहिये
था ॥ २६ ॥ सखी ! हमारे ये श्यामसुन्दर भी तो कम निठुर नहीं हैं। देखो-देखो,
वे भी रथपर बैठ गये। और मतवाले गोपगण छकड़ोंद्वारा उनके साथ जानेके
लिये कितनी जल्दी मचा रहे हैं। सचमुच ये मूर्ख हैं। और हमारे बड़े-बूढ़े !
उन्होंने तो इन लोगोंकी जल्दबाजी देखकर उपेक्षा कर दी है कि ‘जाओ जो मनमें आवे, करो !’ अब
हम क्या करें ? आज विधाता सर्वथा हमारे प्रतिकूल चेष्टा कर
रहा है ॥ २७ ॥ चलो, हम स्वयं ही चलकर अपने प्राणप्यारे
श्यामसुन्दरको रोकेंगी; कुलके बड़े-बूढ़े और बन्धुजन हमारा
क्या कर लेंगे ? अरी सखी ! हम आधे क्षणके लिये भी प्राणवल्लभ
नन्दनन्दनका सङ्ग छोडऩेमें असमर्थ थीं। आज हमारे दुर्भाग्यने हमारे सामने उनका
वियोग उपस्थित करके हमारे चित्तको विनष्ट एवं व्याकुल कर दिया है ॥ २८ ॥ सखियो !
जिनकी प्रेमभरी मनोहर मुसकान, रहस्यकी मीठी-मीठी बातें,
विलासपूर्ण चितवन और प्रेमालिङ्गनसे हमने रासलीलाकी वे रात्रियाँ—
जो बहुत विशाल थीं—एक क्षणके समान बिता दी
थीं। अब भला, उनके बिना हम उन्हींकी दी हुई अपार विरहव्यथाका
पार कैसे पावेंगी ॥ २९ ॥ एक दिनकी नहीं, प्रतिदिनकी बात है,
सायंकालमें प्रतिदिन वे ग्वालबालोंसे घिरे हुए बलरामजीके साथ वनसे
गौएँ चराकर लौटते हैं। उनकी काली-काली घुँघराली अलकें और गलेके पुष्पहार गौओंके
खुरकी रजसे ढके रहते हैं। वे बाँसुरी बजाते हुए अपनी मन्द-मन्द मुसकान और तिरछी
चितवनसे देख-देखकर हमारे हृदयको वेध डालते हैं। उनके बिना भला, हम कैसे जी सकेंगी ? ॥ ३० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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