रविवार, 9 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीकृष्ण-बलराम का मथुरागमन

 

श्रीशुक उवाच -

सुखोपविष्टः पर्यङ्‌के रमकृष्णोरुमानितः ।

लेभे मनोरथान् सर्वान् पन्पथि यान् स चकार ह ॥ १ ॥

किमलभ्यं भगवति प्रसन्ने श्रीनिकेतने ।

तथापि तत्परा राजन् न हि वाञ्छन्ति किञ्चन ॥ २ ॥

सायंतनाशनं कृत्वा भगवान् देवकीसुतः ।

सुहृत्सु वृत्तं कंसस्य पप्रच्छान्यच्चिकीर्षितम् ॥ ३ ॥

 

श्रीभगवानुवाच -

तात सौम्यागतः कच्चित् स्वागतं भद्रमस्तु वः ।

अपि स्वज्ञातिबन्धूनां अनमीवमनामयम् ॥ ४ ॥

किं नु नः कुशलं पृच्छे एधमाने कुलामये ।

कंसे मातुलनाम्न्यङ्‌ग स्वानां नस्तत्प्रजासु च ॥ ५ ॥

अहो अस्मदभूद् भूरि पित्रोर्वृजिनमार्ययोः ।

यद्धेतोः पुत्रमरणं यद्धेतोर्बन्धनं तयोः ॥ ६ ॥

दिष्ट्याद्य दर्शनं स्वानां मह्यं वः सौम्य काङ्‌क्षितम् ।

सञ्जातं वर्ण्यतां तात तवागमनकारणम् ॥ ७ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

पृष्टो भगवता सर्वं वर्णयामास माधवः ।

वैरानुबन्धं यदुषु वसुदेववधोद्यमम् ॥ ८ ॥

यत्सन्देशो यदर्थं वा दूतः सम्प्रेषितः स्वयम् ।

यदुक्तं नारदेनास्य स्वजन्मानकदुन्दुभेः ॥ ९ ॥

श्रुत्वाक्रूरवचः कृष्णो बलश्च परवीरहा ।

प्रहस्य नन्दं पितरं राज्ञा दिष्टं विजज्ञतुः ॥ १० ॥

गोपान् समादिशत् सोऽपि गृह्यतां सर्वगोरसः ।

उपायनानि गृह्णीध्वं युज्यन्तां शकटानि च ॥ ११ ॥

यास्यामः श्वो मधुपुरीं दास्यामो नृपते रसान् ।

द्रक्ष्यामः सुमहत्पर्व यान्ति जानपदाः किल ।

एवमाघोषयत्क्षत्रा नन्दगोपः स्वगोकुले ॥ १२ ॥

गोप्यस्तास्तद् उपश्रुत्य बभूवुर्व्यथिता भृशम् ।

रामकृष्णौ पुरीं नेतुं अक्रूरं व्रजमागतम् ॥ १३ ॥

काश्चित् तत्कृतहृत्ताप श्वासम्लानमुखश्रियः ।

स्रंसद्‌दुद्दुकूलवलय केशग्रंथ्यश्च काश्चन ॥ १४ ॥

अन्याश्च तदनुध्यान निवृत्ताशेषवृत्तयः ।

नाभ्यजानन् इमं लोकं आत्मलोकं गता इव ॥ १५ ॥

स्मरन्त्यश्चापराः शौरेः अनुरागस्मितेरिताः ।

हृदिस्पृशश्चित्रपदा गिरः संमुमुहुः स्त्रियः ॥ १६ ॥

गतिं सुललितां चेष्टां स्निग्धहासावलोकनम् ।

शोकापहानि नर्माणि प्रोद्दामचरितानि च ॥ १७ ॥

चिन्तयन्त्यो मुकुन्दस्य भीता विरहकातराः ।

समेताः सङ्‌घशः प्रोचुः अश्रुमुख्योऽच्युताशयाः ॥ १८ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंभगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीने अक्रूरजीका भलीभाँति सम्मान किया। वे आरामसे पलँगपर बैठ गये। उन्होंने मार्गमें जो-जो अभिलाषाएँ की थीं, वे सब पूरी हो गयीं ॥ १ ॥ परीक्षित्‌ ! लक्ष्मीके आश्रयस्थान भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्रसन्न होनेपर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो प्राप्त नहीं हो सकती ? फिर भी भगवान्‌के परमप्रेमी भक्तजन किसी भी वस्तुकी कामना नहीं करते ॥ २ ॥ देवकीनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णने सायंकालका भोजन करनेके बाद अक्रूरजीके पास जाकर अपने स्वजन-सम्बन्धियोंके साथ कंसके व्यवहार और उसके अगले कार्यक्रमके सम्बन्धमें पूछा ॥ ३ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाचाचाजी ! आपका हृदय बड़ा शुद्ध है। आपको यात्रामें कोई कष्ट तो नहीं हुआ ? स्वागत है। मैं आपकी मङ्गलकामना करता हूँ। मथुराके हमारे आत्मीय सुहृद्, कुटुम्बी तथा अन्य सम्बन्धी सब कुशल और स्वस्थ हैं न ? ॥ ४ ॥ हमारा नाममात्रका मामा कंस तो हमारे कुलके लिये एक भयङ्कर व्याधि है। जबतक उसकी बढ़ती हो रही है, तबतक हम अपने वंशवालों और उनके बाल-बच्चोंका कुशल-मङ्गल क्या पूछें ॥ ५ ॥ चाचाजी ! हमारे लिये यह बड़े खेदकी बात है कि मेरे ही कारण मेरे निरपराध और सदाचारी माता-पिताको अनेकों प्रकारकी यातनाएँ झेलनी पड़ींतरह-तरहके कष्ट उठाने पड़े। और तो क्या कहूँ, मेरे ही कारण उन्हें हथकड़ी-बेड़ीसे जकडक़र जेलमें डाल दिया गया तथा मेरे ही कारण उनके बच्चे भी मार डाले गये ॥ ६ ॥ मैं बहुत दिनोंसे चाहता था कि आपलोगोंमेंसे किसी-न-किसीका दर्शन हो। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज मेरी वह अभिलाषा पूरी हो गयी, सौम्य-स्वभाव चाचाजी ! अब आप कृपा करके यह बतलाइये कि आपका शुभागमन किस निमित्तसे हुआ ? ॥ ७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने अक्रूरजीसे इस प्रकार प्रश्र किया, तब उन्होंने बतलाया कि कंसने तो सभी यदुवंशियोंसे घोर वैर ठान रखा है। वह वसुदेवजीको मार डालनेका भी उद्यम कर चुका है॥ ८ ॥ अक्रूरजीने कंसका सन्देश और जिस उद्देश्यसे उसने स्वयं अक्रूरजीको दूत बनाकर भेजा था और नारदजीने जिस प्रकार वसुदेवजीके घर श्रीकृष्णके जन्म लेनेका वृत्तान्त उसको बता दिया था, सो सब कह सुनाया ॥ ९ ॥ अक्रूरजीकी यह बात सुनकर विपक्षी शत्रुओंका दमन करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी हँसने लगे और इसके बाद उन्होंने अपने पिता नन्दजीको कंसकी आज्ञा सुना दी ॥ १० ॥ तब नन्दबाबाने सब गोपोंको आज्ञा दी कि सारा गोरस एकत्र करो। भेंटकी सामग्री ले लो और छकड़े जोड़ो ॥ ११ ॥ कल प्रात:काल ही हम सब मथुराकी यात्रा करेंगे और वहाँ चलकर राजा कंसको गोरस देंगे। वहाँ एक बहुत बड़ा उत्सव हो रहा है। उसे देखनेके लिये देशकी सारी प्रजा इक_ी हो रही है। हमलोग भी उसे देखेंगे।नन्दबाबाने गाँवके कोतवालके द्वारा यह घोषणा सारे व्रजमें करवा दी ॥ १२ ॥

 

परीक्षित्‌ ! जब गोपियोंने सुना कि हमारे मनमोहन श्यामसुन्दर और गौरसुन्दर बलरामजीको मथुरा ले जानेके लिये अक्रूरजी व्रजमें आये हैं, तब उनके हृदयमें बड़ी व्यथा हुई। वे व्याकुल हो गयीं ॥ १३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णके मथुरा जानेकी बात सुनते ही बहुतोंके हृदयमें ऐसी जलन हुई कि गरम साँस चलने लगी, मुखकमल कुम्हला गया। और बहुतोंकी ऐसी दशा हुईवे इस प्रकार अचेत हो गयीं कि उन्हें खिसकी हुई ओढऩी, गिरते हुए कंगन और ढीले हुए जूड़ोंतकका पता न रहा ॥ १४ ॥ भगवान्‌ के स्वरूपका ध्यान आते ही बहुत-सी गोपियोंकी चित्तवृत्तियाँ सर्वथा निवृत्त हो गयीं, मानो वे समाधिस्थआत्मामें स्थित हो गयी हों, और उन्हें अपने शरीर और संसारका कुछ ध्यान ही न रहा ॥ १५ ॥ बहुत-सी गोपियोंके सामने भगवान्‌ श्रीकृष्णका प्रेम, उनकी मन्द- मन्द मुसकान और हृदयको स्पर्श करनेवाली विचित्र पदोंसे युक्त मधुर वाणी नाचने लगी। वे उसमें तल्लीन हो गयीं। मोहित हो गयीं ॥ १६ ॥ गोपियाँ मन-ही-मन भगवान्‌की लटकीली चाल, भाव- भङ्गी, प्रेमभरी मुसकान, चितवन, सारे शोकोंको मिटा देनेवाली ठिठोलियाँ तथा उदारताभरी लीलाओंका चिन्तन करने लगीं और उनके विरहके भयसे कातर हो गयीं। उनका हृदय, उनका जीवनसब कुछ भगवान्‌के प्रति समर्पित था। उनकी आँखोंसे आँसू बह रहे थे। वे झुंड-की-झुंड इकठ्ठी होकर इस प्रकार कहने लगीं ॥ १७-१८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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