शनिवार, 8 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अड़तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) अड़तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

अक्रूरजी की व्रज-यात्रा

 

श्रीशुक उवाच -

इति सञ्चिन्तयन्कृष्णं श्वफल्कतनयोऽध्वनि ।

रथेन गोकुलं प्राप्तः सूर्यश्चास्तगिरिं नृप ॥ २४ ॥

पदानि तस्याखिललोकपाल

किरीटजुष्टामलपादरेणोः ।

ददर्श गोष्ठे क्षितिकौतुकानि

विलक्षितान्यब्जयवाङ्‌कुशाद्यैः ॥ २५ ॥

तद्दर्शनाह्लादविवृद्धसम्भ्रमः

प्रेम्णोर्ध्वरोमाश्रुकलाकुलेक्षणः ।

रथादवस्कन्द्य स तेष्वचेष्टत

प्रभोरमून्यङ्‌घ्रिरजांस्यहो इति ॥ २६ ॥

देहंभृतामियानर्थो हित्वा दम्भं भियं शुचम् ।

सन्देशाद्यो हरेर्लिङ्‌ग दर्शनश्रवणादिभिः ॥ २७ ॥

ददर्श कृष्णं रामं च व्रजे गोदोहनं गतौ ।

पीतनीलाम्बरधरौ शरदम्बुरहेक्षणौ ॥ २८ ॥

किशोरौ श्यामलश्वेतौ श्रीनिकेतौ बृहद्‍भुजौ ।

सुमुखौ सुन्दरवरौ बलद्विरदविक्रमौ ॥ २९ ॥

ध्वजवज्राङ्‌कुशाम्भोजैः चिह्नितैरङ्‌घ्रिभिर्व्रजम् ।

शोभयन्तौ महात्मानौ सानुक्रोशस्मितेक्षणौ ॥ ३० ॥

उदाररुचिरक्रीडौ स्रग्विणौ वनमालिनौ ।

पुण्यगन्धानुलिप्ताङ्‌गौ स्नातौ विरजवाससौ ॥ ३१ ॥

प्रधानपुरुषावाद्यौ जगद्धेतू जगत्पती ।

अवतीर्णौ जगत्यर्थे स्वांशेन बलकेशवौ ॥ ३२ ॥

दिशो वितिमिरा राजन् कुर्वाणौ प्रभया स्वया ।

यथा मारकतः शैलो रौप्यश्च कनकाचितौ ॥ ३३ ॥

रथात् तूर्णं अवप्लुत्य सोऽक्रूरः स्नेहविह्वलः ।

पपात चरणोपान्ते दण्डवत् रामकृष्णयोः ॥ ३४ ॥

भगवद्दर्शनाह्लाद बाष्पपर्याकुलेक्षणः ।

पुलकचिताङ्‌ग औत्कण्ठ्यात् स्वाख्याने नाशकन् नृप ॥ ३५ ॥

भगवान् तमभिप्रेत्य रथाङ्‌गाङ्‌कितपाणिना ।

परिरेभेऽभ्युपाकृष्य प्रीतः प्रणतवत्सलः ॥ ३६ ॥

सङ्‌कर्षणश्च प्रणतं उपगुह्य महामनाः ।

गृहीत्वा पाणिना पाणी अनयत् सानुजो गृहम् ॥ ३७ ॥

पृष्ट्वाथ स्वागतं तस्मै निवेद्य च वरासनम् ।

प्रक्षाल्य विधिवत् पादौ मधुपर्कार्हणमाहरत् ॥ ३८ ॥

निवेद्य गां चातिथये संवाह्य श्रान्तमादृतः ।

अन्नं बहुगुणं मेध्यं श्रद्धयोपाहरद् विभुः ॥ ३९ ॥

तस्मै भुक्तवते प्रीत्या रामः परमधर्मवित् ।

मखवासैर्गन्धमाल्यैः परां प्रीतिं व्यधात् पुनः ॥ ४० ॥

पप्रच्छ सत्कृतं नन्दः कथं स्थ निरनुग्रहे ।

कंसे जीवति दाशार्ह सौनपाला इवावयः ॥ ४१ ॥

योऽवधीत् स्वस्वसुस्तोकान् क्रोशन्त्या असुतृप् खलः ।

किं नु स्वित्तत्प्रजानां वः कुशलं विमृशामहे ॥ ४२ ॥

इत्थं सूनृतया वाचा नन्देन सुसभाजितः ।

अक्रूरः परिपृष्टेन जहावध्वपरिश्रमम् ॥ ४३ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! श्वफल्कनन्दन अक्रूर मार्गमें इसी चिन्तन में डूबे-डूबे रथसे नन्दगाँव पहुँच गये और सूर्य अस्ताचलपर चले गये ॥ २४ ॥ जिनके चरणकमलकी रजका सभी लोकपाल अपने किरीटोंके द्वारा सेवन करते हैं, अक्रूरजीने गोष्ठमें उनके चरणचिह्नोंके दर्शन किये। कमल, यव, अङ्कुश आदि असाधारण चिह्नोंके द्वारा उनकी पहचान हो रही थी और उनसे पृथ्वीकी शोभा बढ़ रही थी ॥ २५ ॥ उन चरणचिह्नोंके दर्शन करते ही अक्रूरजीके हृदयमें इतना आह्लाद हुआ कि वे अपनेको सँभाल न सके, विह्वल हो गये। प्रेमके आवेगसे उनका रोम-रोम खिल उठा, नेत्रोंमें आँसू भर आये और टपटप टपकने लगे। वे रथसे कूदकर उस धूलिमें लोटने लगे और कहने लगे—‘अहो ! यह हमारे प्रभुके चरणोंकी रज है॥ २६ ॥ परीक्षित्‌ ! कंसके सन्देशसे लेकर यहाँतक अक्रूरजीके चित्तकी जैसी अवस्था रही है, यही जीवोंके देह धारण करनेका परम लाभ है। इसलिये जीवमात्रका यही परम कर्तव्य है कि दम्भ, भय और शोक त्यागकर भगवान्‌की मूर्ति (प्रतिमा, भक्त आदि) चिह्न, लीला, स्थान तथा गुणोंके दर्शन-श्रवण आदिके द्वारा ऐसा ही भाव सम्पादन करें ॥ २७ ॥

 

व्रजमें पहुँचकर अक्रूरजीने श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाइयोंको गाय दुहनेके स्थानमें विराजमान देखा। श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण पीताम्बर धारण किये हुए थे और गौरसुन्दर बलराम नीलाम्बर। उनके नेत्र शरत्कालीन कमलके समान खिले हुए थे ॥ २८ ॥ उन्होंने अभी किशोर- अवस्थामें प्रवेश ही किया था। वे दोनों गौर-श्याम निखिल सौन्दर्यकी खान थे। घुटनोंका स्पर्श करनेवाली लंबी-लंबी भुजाएँ, सुन्दर बदन, परम मनोहर और गजशावकके समान ललित चाल थी ॥ २९ ॥ उनके चरणोंमें ध्वजा, वज्र, अङ्कुश और कमलके चिह्न थे। जब वे चलते थे, उनसे चिह्नित होकर पृथ्वी शोभायमान हो जाती थी। उनकी मन्द-मन्द मुसकान और चितवन ऐसी थी, मानो दया बरस रही हो। वे उदारताकी तो मानो मूर्ति ही थे ॥ ३० ॥ उनकी एक-एक लीला उदारता और सुन्दर कलासे भरी थी। गलेमें वनमाला और मणियोंके हार जगमगा रहे थे। उन्होंने अभी- अभी स्नान करके निर्मल वस्त्र पहने थे और शरीरमें पवित्र अङ्गराग तथा चन्दनका लेप किया था ॥ ३१ ॥ परीक्षित्‌ ! अक्रूरने देखा कि जगत्के आदिकारण, जगत्के परमपति, पुरुषोत्तम ही संसारकी रक्षाके लिये अपने सम्पूर्ण अंशोंसे बलरामजी और श्रीकृष्णके रूपमें अवतीर्ण होकर अपनी अङ्गकान्तिसे दिशाओंका अन्धकार दूर कर रहे हैं। वे ऐसे भले मालूम होते थे, जैसे सोनेसे मढ़े हुए मरकतमणि और चाँदीके पर्वत जगमगा रहे हों ॥ ३२-३३ ॥ उन्हें देखते ही अक्रूरजी प्रेमावेगसे अधीर होकर रथसे कूद पड़े और भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा बलरामके चरणोंके पास साष्टाङ्ग लोट गये ॥ ३४ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌के दर्शनसे उन्हें इतना आह्लाद हुआ कि उनके नेत्र आँसूसे सर्वथा भर गये। सारे शरीरमें पुलकावली छा गयी। उत्कण्ठावश गला भर आनेके कारण वे अपना नाम भी न बतला सके ॥ ३५ ॥ शरणागतवत्सल भगवान्‌ श्रीकृष्ण उनके मनका भाव जान गये। उन्होंने बड़ी प्रसन्नतासे चक्राङ्कित हाथोंके द्वारा उन्हें खींचकर उठाया और हृदयसे लगा लिया ॥ ३६ ॥ इसके बाद जब वे परम मनस्वी श्रीबलरामजीके सामने विनीत भावसे खड़े हो गये, तब उन्होंने उनको गले लगा लिया और उनका एक हाथ श्रीकृष्णने पकड़ा तथा दूसरा बलरामजीने। दोनों भाई उन्हें घर ले गये ॥ ३७ ॥ घर ले जाकर भगवान्‌ ने उनका बड़ा स्वागत-सत्कार किया। कुशल-मङ्गल पूछकर श्रेष्ठ आसनपर बैठाया और विधिपूर्वक उनके पाँव पखारकर मधुपर्क (शहद मिला हुआ दही) आदि पूजाकी सामग्री भेंट की ॥ ३८ ॥ इसके बाद भगवान्‌ने अतिथि अक्रूरजीको एक गाय दी और पैर दबाकर उनकी थकावट दूर की तथा बड़े आदर एवं श्रद्धासे उन्हें पवित्र और अनेक गुणोंसे युक्त अन्नका भोजन कराया ॥ ३९ ॥ जब वे भोजन कर चुके, तब धर्मके परम मर्मज्ञ भगवान्‌ बलरामजीने बड़े प्रेमसे मुखवास (पान-इलायची आदि) और सुगन्धित माला आदि देकर उन्हें अत्यन्त आनन्दित किया ॥ ४० ॥ इस प्रकार सत्कार हो चुकनेपर नन्दरायजीने उनके पास आकर पूछा—‘अक्रूरजी ! आपलोग निर्दयी कंसके जीते-जी किस प्रकार अपने दिन काटते हैं ? अरे ! उसके रहते आप लोगोंकी वही दशा है, जो कसाई द्वारा पाली हुई भेड़ोंकी होती है ॥ ४१ ॥ जिस इन्द्रियाराम पापीने अपनी बिलखती हुई बहनके नन्हे-नन्हे बच्चोंको मार डाला। आपलोग उसकी प्रजा हैं। फिर आप सुखी हैं, यह अनुमान तो हम कर ही कैसे सकते हैं ? ॥ ४२ ॥ अक्रूरजीने नन्दबाबासे पहले ही कुशल-मङ्गल पूछ लिया था। जब इस प्रकार नन्दबाबाने मधुर वाणीसे अक्रूरजीसे कुशल-मङ्गल पूछा और उनका सम्मान किया तब अक्रूरजीके शरीरमें रास्ता चलनेकी जो कुछ थकावट थी, वह सब दूर हो गयी ॥ ४३ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अक्रूरागमनं नाम अष्टत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



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