शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बयालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बयालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

कुब्जापर कृपा, धनुषभङ्ग और कंसकी घबड़ाहट

 

कंसस्तु धनुषो भङ्‌गं रक्षिणां स्वबलस्य च ।

वधं निशम्य गोविन्द रामविक्रीडितं परम् ॥ २६ ॥

दीर्घप्रजागरो भीतो दुर्निमित्तानि दुर्मतिः ।

बहून्यचष्टोभयथा मृत्योर्दौत्यकराणि च ॥ २७ ॥

अदर्शनं स्वशिरसः प्रतिरूपे च सत्यपि ।

असत्यपि द्वितीये च द्वैरूप्यं ज्योतिषां तथा ॥ २८ ॥

छिद्रप्रतीतिश्छायायां प्राणघोषानुपश्रुतिः ।

स्वर्णप्रतीतिर्वृक्षेषु स्वपदानामदर्शनम् ॥ २९ ॥

स्वप्ने प्रेतपरिष्वङ्‌गः खरयानं विषादनम् ।

यायान्नलदमाल्येकः तैलाभ्यक्तो दिगम्बरः ॥ ३० ॥

अन्यानि चेत्थं भूतानि स्वप्नजागरितानि च ।

पश्यन् मरणसन्त्रस्तो निद्रां लेभे न चिन्तया ॥ ३१ ॥

व्युष्टायां निशि कौरव्य सूर्ये चाद्‍भ्यः समुत्थिते ।

कारयामास वै कंसो मल्लक्रीडामहोत्सवम् ॥ ३२ ॥

आनर्चुः पुरुषा रङ्‌गं तूर्यभेर्यश्च जघ्निरे ।

मञ्चाश्चालङ्‌कृताः स्रग्भिः पताकाचैलतोरणैः ॥ ३३ ॥

तेषु पौरा जानपदा ब्रह्मक्षत्रपुरोगमाः ।

यथोपजोषं विविशू राजानश्च कृतासनाः ॥ ३४ ॥

कंसः परिवृतोऽमात्यै राजमञ्च उपाविशत् ।

मण्डलेश्वरमध्यस्थो हृदयेन विदूयता ॥ ३५ ॥

वाद्यमानेसु तूर्येषु मल्लतालोत्तरेषु च ।

मल्लाः स्वलङ्‌कृताः दृप्ताः सोपाध्यायाः समाविशन् ॥ ३६ ॥

चाणूरो मुष्टिकः कूतः शलस्तोशल एव च ।

त आसेदुरुपस्थानं वल्गुवाद्यप्रहर्षिताः ॥ ३७ ॥

नन्दगोपादयो गोपा भोजराजसमाहुताः ।

निवेदितोपायनास्ते एकस्मिन् मञ्च आविशन् ॥ ३८ ॥

 

जब कंस ने सुना कि श्रीकृष्ण और बलराम ने धनुष तोड़ डाला, रक्षकों तथा उनकी सहायता के लिये भेजी हुई सेनाका भी संहार कर डाला और यह सब उनके लिये केवल एक खिलवाड़ ही थाइसके लिये उन्हें कोई श्रम या कठिनाई नहीं उठानी पड़ी ॥ २६ ॥ तब वह बहुत ही डर गया, उस दुर्बुद्धिको बहुत देरतक नींद न आयी। उसे जाग्रत्-अवस्थामें तथा स्वप्नमें भी बहुत-से ऐसे अपशकुन हुए, जो उसकी मृत्यु के सूचक थे ॥ २७ ॥ जाग्रत्-अवस्थामें उसने देखा कि जल या दर्पणमें शरीरकी परछार्ईं तो पड़ती है, परंतु सिर नहीं दिखायी देता; अँगुली आदिकी आड़ न होनेपर भी चन्द्रमा, तारे और दीपक आदिकी ज्योतियाँ उसे दो-दो दिखायी पड़ती हैं ॥ २८ ॥ छायामें छेद दिखायी पड़ता है और कानोंमें अँगुली डालकर सुननेपर भी प्राणोंका घूँ-घूँ शब्द नहीं सुनायी पड़ता। वृक्ष सुनहले प्रतीत होते हैं और बालू या कीचड़में अपने पैरोंके चिह्न नहीं दीख पड़ते ॥ २९ ॥ कंसने स्वप्नावस्थामें देखा कि वह प्रेतोंके गले लग रहा है, गधेपर चढक़र चलता है और विष खा रहा है। उसका सारा शरीर तेलसे तर है, गलेमें जपाकुसुम (अड़हुल) की माला है और नग्न होकर कहीं जा रहा है ॥ ३० ॥ स्वप्न और जाग्रत्-अवस्थामें उसने इसी प्रकारके और भी बहुत-से अपशकुन देखे। उनके कारण उसे बड़ी चिन्ता हो गयी, वह मृत्युसे डर गया और उसे नींद न आयी ॥ ३१ ॥

 

परीक्षित्‌ ! जब रात बीत गयी और सूर्यनारायण पूर्व समुद्रसे ऊपर उठे, तब राजा कंसने मल्ल- क्रीड़ा-(दंगल-) का महोत्सव प्रारम्भ कराया ॥ ३२ ॥ राजकर्मचारियोंने रंगभूमिको भलीभाँति सजाया। तुरही, भेरी आदि बाजे बजने लगे। लोगोंके बैठनेके मञ्च फूलोंके गजरों, झंडियों, वस्त्र और बंदनवारोंसे सजा दिये गये ॥ ३३ ॥ उनपर ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि नागरिक तथा ग्रामवासीसब यथास्थान बैठ गये। राजालोग भी अपने-अपने निश्चित स्थानपर जा डटे ॥ ३४ ॥ राजा कंस अपने मन्ङ्क्षत्रयोंके साथ मण्डलेश्वरों (छोटे-छोटे राजाओं) के बीचमें सबसे श्रेष्ठ राज-सिंहासनपर जा बैठा। इस समय भी अपशकुनोंके कारण उसका चित्त घबड़ाया हुआ था ॥ ३५ ॥ तब पहलवानोंके ताल ठोंकनेके साथ ही बाजे बजने लगे और गरबीले पहलवान खूब सज-धजकर अपने-अपने उस्तादोंके साथ अखाड़ेमें आ उतरे ॥ ३६ ॥ चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तोशल आदि प्रधान-प्रधान पहलवान बाजोंकी सुमधुर ध्वनिसे उत्साहित होकर अखाड़ेमें आ-आकर बैठ गये ॥ ३७ ॥ इसी समय भोजराज कंसने नन्द आदि गोपोंको बुलवाया। उन लोगोंने आकर उसे तरह-तरहकी भेंटें दीं और फिर जाकर वे एक मञ्चपर बैठ गये ॥ ३८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे मल्लरङोपवर्णनं नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४२ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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