श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
कुवलयापीड
का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश
श्रीशुक
उवाच -
अथ
कृष्णश्च रामश्च कृतशौचौ परन्तप ।
मल्लदुन्दुभिनिर्घोषं
श्रुत्वा द्रष्टुमुपेयतुः ॥ १ ॥
रङ्गद्वारं
समासाद्य तस्मिन् नागमवस्थितम् ।
अपश्यत्कुवलयापीडं
कृष्णोऽम्बष्ठप्रचोदितम् ॥ २ ॥
बद्ध्वा
परिकरं शौरिः समुह्य कुटिलालकान् ।
उवाच
हस्तिपं वाचा मेघनादगभीरया ॥ ३ ॥
अम्बष्ठाम्बष्ठ
मार्गं नौ देह्यपक्रम मा चिरम् ।
नो
चेत्सकुञ्जरं त्वाद्य नयामि यमसादनम् ॥ ४ ॥
एवं
निर्भर्त्सितोऽम्बष्ठः कुपितः कोपितं गजम् ।
चोदयामास
कृष्णाय कालान्तक यमोपमम् ॥ ५ ॥
करीन्द्रस्तमभिद्रुत्य
करेण तरसाग्रहीत् ।
कराद्
विगलितः सोऽमुं निहत्याङ्घ्रिष्वलीयत ॥ ६ ॥
सङ्क्रुद्धस्तमचक्षाणो
घ्राणदृष्टिः स केशवम् ।
परामृशत्
पुष्करेण स प्रसह्य विनिर्गतः ॥ ७ ॥
पुच्छे
प्रगृह्यातिबलं धनुषः पञ्चविंशतिम् ।
विचकर्ष
यथा नागं सुपर्ण इव लीलया ॥ ८ ॥
स
पर्यावर्तमानेन सव्यदक्षिणतोऽच्युतः ।
बभ्राम
भ्राम्यमाणेन गोवत्सेनेव बालकः ॥ ९ ॥
ततोऽभिमखमभ्येत्य
पाणिनाऽऽहत्य वारणम् ।
प्राद्रवन्
पातयामास स्पृश्यमानः पदे पदे ॥ १० ॥
स
धावन् क्रीडया भूमौ पतित्वा सहसोत्थितः ।
तं
मत्वा पतितं क्रुद्धो दन्ताभ्यां सोऽहनत् क्षितिम् ॥ ११ ॥
स्वविक्रमे
प्रतिहते कुंजरेन्द्रोऽत्यमर्षितः ।
चोद्यमानो
महामात्रैः कृष्णमभ्यद्रवद् रुषा ॥ १२ ॥
तमापतन्तमासाद्य
भगवान् मधुसूदनः ।
निगृह्य
पाणिना हस्तं पातयामास भूतले ॥ १३ ॥
पतितस्य
पदाऽऽक्रम्य मृगेन्द्र इव लीलया ।
दन्तमुत्पाट्य
तेनेभं हस्तिपांश्चाहनद्धरिः ॥ १४ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—काम-क्रोधादि शत्रुओंको पराजित करनेवाले परीक्षित् ! अब श्रीकृष्ण और
बलराम भी स्नानादि नित्यकर्मसे निवृत्त हो दंगलके अनुरूप नगाड़ेकी ध्वनि सुनकर
रङ्गभूमि देखनेके लिये चल पड़े ॥ १ ॥ भगवान् श्रीकृष्णने रंगभूमिके दरवाजेपर
पहुँचकर देखा कि वहाँ महावतकी प्रेरणासे कुवलयापीड़ नामका हाथी खड़ा है ॥ २ ॥ तब
भगवान् श्रीकृष्णने अपनी कमर कस ली और घुँघराली अलकें समेट लीं तथा मेघके समान
गम्भीर वाणीसे महावतको ललकारकर कहा ॥ ३ ॥ ‘महावत, ओ महावत ! हमदोनों को रास्ता दे दे। हमारे मार्गसे हट जा। अरे, सुनता नहीं ? देर मत कर। नहीं तो मैं हाथीके साथ अभी
तुझे यमराजके घर पहुँचाता हूँ’ ॥ ४ ॥ भगवान् श्रीकृष्णने
महावतको जब इस प्रकार धमकाया, तब वह क्रोधसे तिलमिला उठा और
उसने काल, मृत्यु तथा यमराजके समान अत्यन्त भयंकर
कुवलयापीडक़ो अङ्कुशकी मारसे क्रुद्ध करके श्रीकृष्णकी ओर बढ़ाया ॥ ५ ॥ कुवलयापीडऩे
भगवान्की ओर झपटकर उन्हें बड़ी तेजीसे सूँड़में लपेट लिया; परंतु
भगवान् सूँड़से बाहर सरक आये और उसे एक घूँसा जमाकर उसके पैरोंके बीचमें जा छिपे ॥
६ ॥ उन्हें अपने सामने न देखकर कुवलयापीडक़ो बड़ा क्रोध हुआ। उसने सूँघकर भगवान्को
अपनी सूँड़से टटोल लिया और पकड़ा भी; परंतु उन्होंने
बलपूर्वक अपनेको उससे छुड़ा लिया ॥ ७ ॥ इसके बाद भगवान् उस बलवान् हाथीकी पूँछ
पकडक़र खेल- खेलमें ही उसे सौ हाथतक पीछे घसीट लाये; जैसे
गरुड़ साँपको घसीट लाते हैं ॥ ८ ॥ जिस प्रकार घूमते हुए बछड़ेके साथ बालक घूमता है
अथवा स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण जिस प्रकार बछड़ोंसे खेलते थे, वैसे ही वे उसकी पूँछ पकडक़र उसे घुमाने और खेलने लगे। जब वह दायेंसे घूमकर
उनको पकडऩा चाहता, तब वे बायें आ जाते और जब वह बायेंकी ओर
घूमता, तब वे दायें घूम जाते ॥ ९ ॥ इसके बाद हाथीके सामने
आकर उन्होंने उसे एक घूँसा जमाया और वे उसे गिरानेके लिये इस प्रकार उसके सामनेसे
भागने लगे, मानो वह अब छू लेता है, तब
छू लेता है ॥ १० ॥ भगवान् श्रीकृष्णने दौड़ते-दौड़ते एक बार खेल-खेलमें ही
पृथ्वीपर गिरने का अभिनय किया और झट वहाँसे उठकर भाग खड़े हुए। उस समय वह हाथी
क्रोधसे जल-भुन रहा था। उसने समझा कि वे गिर पड़े और बड़े जोरसे अपने दोनों दाँत
धरतीपर मारे ॥ ११ ॥ जब कुवलयापीडक़ा यह आक्रमण व्यर्थ हो गया, तब वह और भी चिढ़ गया। महावतोंकी प्रेरणासे वह क्रुद्ध होकर भगवान्
श्रीकृष्णपर टूट पड़ा ॥ १२ ॥ भगवान् मधुसूदन ने जब उसे अपनी ओर झपटते देखा,
तब उसके पास चले गये और अपने एक ही हाथसे उसकी सूँड़ पकडक़र उसे
धरतीपर पटक दिया ॥ १३ ॥ उसके गिर जानेपर भगवान् ने सिंह के समान खेल-ही-खेलमें
उसे पैरोंसे दबाकर उसके दाँत उखाड़ लिये और उन्हींसे हाथी और महावतों का काम तमाम
कर दिया ॥ १४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
कुवलयापीड
का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश
श्रीशुक
उवाच -
अथ
कृष्णश्च रामश्च कृतशौचौ परन्तप ।
मल्लदुन्दुभिनिर्घोषं
श्रुत्वा द्रष्टुमुपेयतुः ॥ १ ॥
रङ्गद्वारं
समासाद्य तस्मिन् नागमवस्थितम् ।
अपश्यत्कुवलयापीडं
कृष्णोऽम्बष्ठप्रचोदितम् ॥ २ ॥
बद्ध्वा
परिकरं शौरिः समुह्य कुटिलालकान् ।
उवाच
हस्तिपं वाचा मेघनादगभीरया ॥ ३ ॥
अम्बष्ठाम्बष्ठ
मार्गं नौ देह्यपक्रम मा चिरम् ।
नो
चेत्सकुञ्जरं त्वाद्य नयामि यमसादनम् ॥ ४ ॥
एवं
निर्भर्त्सितोऽम्बष्ठः कुपितः कोपितं गजम् ।
चोदयामास
कृष्णाय कालान्तक यमोपमम् ॥ ५ ॥
करीन्द्रस्तमभिद्रुत्य
करेण तरसाग्रहीत् ।
कराद्
विगलितः सोऽमुं निहत्याङ्घ्रिष्वलीयत ॥ ६ ॥
सङ्क्रुद्धस्तमचक्षाणो
घ्राणदृष्टिः स केशवम् ।
परामृशत्
पुष्करेण स प्रसह्य विनिर्गतः ॥ ७ ॥
पुच्छे
प्रगृह्यातिबलं धनुषः पञ्चविंशतिम् ।
विचकर्ष
यथा नागं सुपर्ण इव लीलया ॥ ८ ॥
स
पर्यावर्तमानेन सव्यदक्षिणतोऽच्युतः ।
बभ्राम
भ्राम्यमाणेन गोवत्सेनेव बालकः ॥ ९ ॥
ततोऽभिमखमभ्येत्य
पाणिनाऽऽहत्य वारणम् ।
प्राद्रवन्
पातयामास स्पृश्यमानः पदे पदे ॥ १० ॥
स
धावन् क्रीडया भूमौ पतित्वा सहसोत्थितः ।
तं
मत्वा पतितं क्रुद्धो दन्ताभ्यां सोऽहनत् क्षितिम् ॥ ११ ॥
स्वविक्रमे
प्रतिहते कुंजरेन्द्रोऽत्यमर्षितः ।
चोद्यमानो
महामात्रैः कृष्णमभ्यद्रवद् रुषा ॥ १२ ॥
तमापतन्तमासाद्य
भगवान् मधुसूदनः ।
निगृह्य
पाणिना हस्तं पातयामास भूतले ॥ १३ ॥
पतितस्य
पदाऽऽक्रम्य मृगेन्द्र इव लीलया ।
दन्तमुत्पाट्य
तेनेभं हस्तिपांश्चाहनद्धरिः ॥ १४ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—काम-क्रोधादि शत्रुओंको पराजित करनेवाले परीक्षित् ! अब श्रीकृष्ण और
बलराम भी स्नानादि नित्यकर्मसे निवृत्त हो दंगलके अनुरूप नगाड़ेकी ध्वनि सुनकर
रङ्गभूमि देखनेके लिये चल पड़े ॥ १ ॥ भगवान् श्रीकृष्णने रंगभूमिके दरवाजेपर
पहुँचकर देखा कि वहाँ महावतकी प्रेरणासे कुवलयापीड़ नामका हाथी खड़ा है ॥ २ ॥ तब
भगवान् श्रीकृष्णने अपनी कमर कस ली और घुँघराली अलकें समेट लीं तथा मेघके समान
गम्भीर वाणीसे महावतको ललकारकर कहा ॥ ३ ॥ ‘महावत, ओ महावत ! हमदोनों को रास्ता दे दे। हमारे मार्गसे हट जा। अरे, सुनता नहीं ? देर मत कर। नहीं तो मैं हाथीके साथ अभी
तुझे यमराजके घर पहुँचाता हूँ’ ॥ ४ ॥ भगवान् श्रीकृष्णने
महावतको जब इस प्रकार धमकाया, तब वह क्रोधसे तिलमिला उठा और
उसने काल, मृत्यु तथा यमराजके समान अत्यन्त भयंकर
कुवलयापीडक़ो अङ्कुशकी मारसे क्रुद्ध करके श्रीकृष्णकी ओर बढ़ाया ॥ ५ ॥ कुवलयापीडऩे
भगवान्की ओर झपटकर उन्हें बड़ी तेजीसे सूँड़में लपेट लिया; परंतु
भगवान् सूँड़से बाहर सरक आये और उसे एक घूँसा जमाकर उसके पैरोंके बीचमें जा छिपे ॥
६ ॥ उन्हें अपने सामने न देखकर कुवलयापीडक़ो बड़ा क्रोध हुआ। उसने सूँघकर भगवान्को
अपनी सूँड़से टटोल लिया और पकड़ा भी; परंतु उन्होंने
बलपूर्वक अपनेको उससे छुड़ा लिया ॥ ७ ॥ इसके बाद भगवान् उस बलवान् हाथीकी पूँछ
पकडक़र खेल- खेलमें ही उसे सौ हाथतक पीछे घसीट लाये; जैसे
गरुड़ साँपको घसीट लाते हैं ॥ ८ ॥ जिस प्रकार घूमते हुए बछड़ेके साथ बालक घूमता है
अथवा स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण जिस प्रकार बछड़ोंसे खेलते थे, वैसे ही वे उसकी पूँछ पकडक़र उसे घुमाने और खेलने लगे। जब वह दायेंसे घूमकर
उनको पकडऩा चाहता, तब वे बायें आ जाते और जब वह बायेंकी ओर
घूमता, तब वे दायें घूम जाते ॥ ९ ॥ इसके बाद हाथीके सामने
आकर उन्होंने उसे एक घूँसा जमाया और वे उसे गिरानेके लिये इस प्रकार उसके सामनेसे
भागने लगे, मानो वह अब छू लेता है, तब
छू लेता है ॥ १० ॥ भगवान् श्रीकृष्णने दौड़ते-दौड़ते एक बार खेल-खेलमें ही
पृथ्वीपर गिरने का अभिनय किया और झट वहाँसे उठकर भाग खड़े हुए। उस समय वह हाथी
क्रोधसे जल-भुन रहा था। उसने समझा कि वे गिर पड़े और बड़े जोरसे अपने दोनों दाँत
धरतीपर मारे ॥ ११ ॥ जब कुवलयापीडक़ा यह आक्रमण व्यर्थ हो गया, तब वह और भी चिढ़ गया। महावतोंकी प्रेरणासे वह क्रुद्ध होकर भगवान्
श्रीकृष्णपर टूट पड़ा ॥ १२ ॥ भगवान् मधुसूदन ने जब उसे अपनी ओर झपटते देखा,
तब उसके पास चले गये और अपने एक ही हाथसे उसकी सूँड़ पकडक़र उसे
धरतीपर पटक दिया ॥ १३ ॥ उसके गिर जानेपर भगवान् ने सिंह के समान खेल-ही-खेलमें
उसे पैरोंसे दबाकर उसके दाँत उखाड़ लिये और उन्हींसे हाथी और महावतों का काम तमाम
कर दिया ॥ १४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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