शनिवार, 15 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

कुवलयापीड का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश

 

अंसन्यस्तविषाणोऽसृङ्‌ मदबिन्दुभिरङ्‌कितः ।

विरूढस्वेदकणिका वदनाम्बुरुहो बभौ ॥ १५ ॥

वृतौ गोपैः कतिपयैः बलदेवजनार्दनौ ।

रङ्‌गं विविशतू राजन् गजदन्तवरायुधौ ॥ १६ ॥

मल्लानामशनिर्नृणां नरवरः

स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान् ।

गोपानां स्वजनोऽसतां क्षितिभुजां

शास्ता स्वपित्रोः शिशुः ।

मृत्युर्भोजपतेर्विराडविदुषां

तत्त्वं परं योगिनां ।

वृष्णीनां परदेवतेति विदितो

रङ्‌गं गतः साग्रजः ॥ १७ ॥

हतं कुवलयापीडं दृष्ट्वा तावपि दुर्जयौ ।

कंसो मनस्व्यपि तदा भृशमुद्विविजे नृप ॥ १८ ॥

तौ रेजतू रङ्‌गगतौ महाभुजौ

विचित्रवेषाभरणस्रगम्बरौ ।

यथा नटावुत्तमवेषधारिणौ

मनः क्षिपन्तौ प्रभया निरीक्षताम् ॥ १९ ॥

निरीक्ष्य तावुत्तमपूरुषौ जना

मञ्चस्थिता नागरराष्ट्रका नृप ।

प्रहर्षवेगोत्कलितेक्षणाननाः

पपुर्न तृप्ता नयनैस्तदाननम् ॥ २० ॥

पिबन्त इव चक्षुर्भ्यां लिहन्त इव जिह्वया ।

जिघ्रन्त इव नासाभ्यां श्लिष्यन्त इव बाहुभिः ॥ २१ ॥

ऊचुः परस्परं ते वै यथादृष्टं यथाश्रुतम् ।

तद् रूपगुणमाधुर्य प्रागल्भ्यस्मारिता इव ॥ २२ ॥

एतौ भगवतः साक्षात् हरेर्नारायणस्य हि ।

अवतीर्णाविहांशेन वसुदेवस्य वेश्मनि ॥ २३ ॥

एष वै किल देवक्यां जातो नीतश्च गोकुलम् ।

कालमेतं वसन् गूढो ववृधे नन्दवेश्मनि ॥ २४ ॥

पूतनानेन नीतान्तं चक्रवातश्च दानवः ।

अर्जुनौ गुह्यकः केशी धेनुकोऽन्ये च तद्विधाः ॥ २५ ॥

गावः सपाला एतेन दावाग्नेः परिमोचिताः ।

कालियो दमितः सर्प इन्द्रश्च विमदः कृतः ॥ २६ ॥

सप्ताहमेकहस्तेन धृतोऽद्रिप्रवरोऽमुना ।

वर्षवाताशनिभ्यश्च परित्रातं च गोकुलम् ॥ २७ ॥

गोप्योऽस्य नित्यमुदित हसितप्रेक्षणं मुखम् ।

पश्यन्त्यो विविधांस्तापान् तरन्ति स्माश्रमं मुदा ॥ २८ ॥

वदन्त्यनेन वंशोऽयं यदोः सुबहुविश्रुतः ।

श्रियं यशो महत्वं च लप्स्यते परिरक्षितः ॥ २९ ॥

अयं चास्याग्रजः श्रीमान् रामः कमललोचनः ।

प्रलम्बो निहतो येन वत्सको ये बकादयः ॥ ३० ॥

 

परीक्षित्‌ ! मरे हुए हाथीको छोडक़र भगवान्‌ श्रीकृष्णने हाथमें उसके दाँत लिये-लिये ही रंगभूमिमें प्रवेश किया। उस समय उनकी शोभा देखने ही योग्य थी। उनके कंधेपर हाथीका दाँत रखा हुआ था, शरीर रक्त और मदकी बूँदोंसे सुशोभित था और मुखकमलपर पसीनेकी बूँदें झलक रही थीं ॥ १५ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलराम दोनोंके ही हाथोंमें कुवलयापीडक़े बड़े-बड़े दाँत शस्त्रके रूपमें सुशोभित हो रहे थे और कुछ ग्वालबाल उनके साथ-साथ चल रहे थे। इस प्रकार उन्होंने रंगभूमिमें प्रवेश किया ॥ १६ ॥ जिस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ रंगभूमिमें पधारे, उस समय वे पहलवानोंको वज्रकठोर शरीर, साधारण मनुष्योंको नर-रत्न, स्त्रियोंको मूर्तिमान् कामदेव, गोपोंको स्वजन, दुष्ट राजाओंको दण्ड देनेवाले शासक, माता-पिताके समान बड़े-बूढ़ोंको शिशु, कंसको मृत्यु, अज्ञानियोंको विराट्, योगियोंको परम तत्त्व और भक्तशिरोमणि वृष्णिवंशियोंको अपने इष्टदेव जान पड़े (सबने अपने-अपने भावानुरूप क्रमश: रौद्र, अद्भुत, सृंगार, हास्य, वीर, वात्सल्य, भयानक, बीभत्स, शान्त और प्रेमभक्तिरसका अनुभव किया) ॥ १७ ॥ राजन् ! वैसे तो कंस बड़ा धीर-वीर था; फिर भी जब उसने देखा कि इन दोनोंने कुवलयापीडक़ो मार डाला, तब उसकी समझमें यह बात आयी कि इनको जीतना तो बहुत कठिन है। उस समय वह बहुत घबड़ा गया ॥ १८ ॥ श्रीकृष्ण और बलरामकी बाँहें बड़ी लंबी-लंबी थीं। पुष्पोंके हार, वस्त्र और आभूषण आदिसे उनका वेष विचित्र हो रहा था; ऐसा जान पड़ता था, मानो उत्तम वेष धारण करके दो नट अभिनय करनेके लिये आये हों। जिनके नेत्र एक बार उनपर पड़ जाते, बस, लग ही जाते। यही नहीं, वे अपनी कान्तिसे उनका मन भी चुरा लेते। इस प्रकार दोनों रंगभूमिमें शोभायमान हुए ॥ १९ ॥ परीक्षित्‌ ! मञ्चोंपर जितने लोग बैठे थेवे मथुराके नागरिक और राष्ट्रके जन-समुदाय पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीको देखकर इतने प्रसन्न हुए कि उनके नेत्र और मुखकमल खिल उठे, उत्कण्ठासे भर गये। वे नेत्रोंके द्वारा उनकी मुखमाधुरीका पान करते-करते तृप्त ही नहीं होते थे ॥ २० ॥ मानो वे उन्हें नेत्रोंसे पी रहे हों, जिह्वा से चाट रहे हों, नासिकासे सूँघ रहे हों और भुजाओंसे पकडक़र हृदयसे सटा रहे हों ॥ २१ ॥ उनके सौन्दर्य, गुण, माधुर्य और निर्भयताने मानो दर्शकोंको उनकी लीलाओंका स्मरण करा दिया और वे लोग आपसमें उनके सम्बन्धकी देखी-सुनी बातें कहने-सुनने लगे ॥ २२ ॥ ये दोनों साक्षात् भगवान्‌ नारायणके अंश हैं। इस पृथ्वीपर वसुदेवजीके घरमें अवतीर्ण हुए हैं ॥ २३ ॥ [ अँगुलीसे दिखलाकर ] ये साँवले-सलोने कुमार देवकीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। जन्मते ही वसुदेवजीने इन्हें गोकुल पहुँचा दिया था। इतने दिनोंतक ये वहाँ छिपकर रहे और नन्दजीके घरमें ही पलकर इतने बड़े हुए ॥ २४ ॥ इन्होंने ही पूतना, तृणावर्त, शङ्खचूड़, केशी और धेनुक आदिका तथा और भी दुष्ट दैत्योंका वध तथा यमलार्जुनका उद्धार किया है ॥ २५ ॥ इन्होंने ही गौ और ग्वालोंको दावानलकी ज्वालासे बचाया था। कालियनागका दमन और इन्द्रका मान-मर्दन भी इन्होंने ही किया था ॥ २६ ॥ इन्होंने सात दिनोंतक एक ही हाथपर गिरिराज गोवर्धनको उठाये रखा और उसके द्वारा आँधी-पानी तथा वज्रपातसे गोकुलको बचा लिया ॥ २७ ॥ गोपियाँ इनकी मन्द-मन्द मुसकान, मधुर चितवन और सर्वदा एकरस प्रसन्न रहनेवाले मुखारविन्दके दर्शनसे आनन्दित रहती थीं और अनायास ही सब प्रकारके तापोंसे मुक्त हो जाती थीं ॥ २८ ॥ कहते हैं कि ये यदुवंशकी रक्षा करेंगे। यह विख्यात वंश इनके द्वारा महान् समृद्धि, यश और गौरव प्राप्त करेगा ॥ २९ ॥ ये दूसरे इन्हीं श्यामसुन्दरके बड़े भाई कमलनयन श्रीबलरामजी हैं। हमने किसी-किसीके मुँहसे ऐसा सुना है कि इन्होंने ही प्रलम्बासुर, वत्सासुर और बकासुर आदिको मारा है॥ । ३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

कुवलयापीड का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश

 

अंसन्यस्तविषाणोऽसृङ्‌ मदबिन्दुभिरङ्‌कितः ।

विरूढस्वेदकणिका वदनाम्बुरुहो बभौ ॥ १५ ॥

वृतौ गोपैः कतिपयैः बलदेवजनार्दनौ ।

रङ्‌गं विविशतू राजन् गजदन्तवरायुधौ ॥ १६ ॥

मल्लानामशनिर्नृणां नरवरः

स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान् ।

गोपानां स्वजनोऽसतां क्षितिभुजां

शास्ता स्वपित्रोः शिशुः ।

मृत्युर्भोजपतेर्विराडविदुषां

तत्त्वं परं योगिनां ।

वृष्णीनां परदेवतेति विदितो

रङ्‌गं गतः साग्रजः ॥ १७ ॥

हतं कुवलयापीडं दृष्ट्वा तावपि दुर्जयौ ।

कंसो मनस्व्यपि तदा भृशमुद्विविजे नृप ॥ १८ ॥

तौ रेजतू रङ्‌गगतौ महाभुजौ

विचित्रवेषाभरणस्रगम्बरौ ।

यथा नटावुत्तमवेषधारिणौ

मनः क्षिपन्तौ प्रभया निरीक्षताम् ॥ १९ ॥

निरीक्ष्य तावुत्तमपूरुषौ जना

मञ्चस्थिता नागरराष्ट्रका नृप ।

प्रहर्षवेगोत्कलितेक्षणाननाः

पपुर्न तृप्ता नयनैस्तदाननम् ॥ २० ॥

पिबन्त इव चक्षुर्भ्यां लिहन्त इव जिह्वया ।

जिघ्रन्त इव नासाभ्यां श्लिष्यन्त इव बाहुभिः ॥ २१ ॥

ऊचुः परस्परं ते वै यथादृष्टं यथाश्रुतम् ।

तद् रूपगुणमाधुर्य प्रागल्भ्यस्मारिता इव ॥ २२ ॥

एतौ भगवतः साक्षात् हरेर्नारायणस्य हि ।

अवतीर्णाविहांशेन वसुदेवस्य वेश्मनि ॥ २३ ॥

एष वै किल देवक्यां जातो नीतश्च गोकुलम् ।

कालमेतं वसन् गूढो ववृधे नन्दवेश्मनि ॥ २४ ॥

पूतनानेन नीतान्तं चक्रवातश्च दानवः ।

अर्जुनौ गुह्यकः केशी धेनुकोऽन्ये च तद्विधाः ॥ २५ ॥

गावः सपाला एतेन दावाग्नेः परिमोचिताः ।

कालियो दमितः सर्प इन्द्रश्च विमदः कृतः ॥ २६ ॥

सप्ताहमेकहस्तेन धृतोऽद्रिप्रवरोऽमुना ।

वर्षवाताशनिभ्यश्च परित्रातं च गोकुलम् ॥ २७ ॥

गोप्योऽस्य नित्यमुदित हसितप्रेक्षणं मुखम् ।

पश्यन्त्यो विविधांस्तापान् तरन्ति स्माश्रमं मुदा ॥ २८ ॥

वदन्त्यनेन वंशोऽयं यदोः सुबहुविश्रुतः ।

श्रियं यशो महत्वं च लप्स्यते परिरक्षितः ॥ २९ ॥

अयं चास्याग्रजः श्रीमान् रामः कमललोचनः ।

प्रलम्बो निहतो येन वत्सको ये बकादयः ॥ ३० ॥

 

परीक्षित्‌ ! मरे हुए हाथीको छोडक़र भगवान्‌ श्रीकृष्णने हाथमें उसके दाँत लिये-लिये ही रंगभूमिमें प्रवेश किया। उस समय उनकी शोभा देखने ही योग्य थी। उनके कंधेपर हाथीका दाँत रखा हुआ था, शरीर रक्त और मदकी बूँदोंसे सुशोभित था और मुखकमलपर पसीनेकी बूँदें झलक रही थीं ॥ १५ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलराम दोनोंके ही हाथोंमें कुवलयापीडक़े बड़े-बड़े दाँत शस्त्रके रूपमें सुशोभित हो रहे थे और कुछ ग्वालबाल उनके साथ-साथ चल रहे थे। इस प्रकार उन्होंने रंगभूमिमें प्रवेश किया ॥ १६ ॥ जिस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ रंगभूमिमें पधारे, उस समय वे पहलवानोंको वज्रकठोर शरीर, साधारण मनुष्योंको नर-रत्न, स्त्रियोंको मूर्तिमान् कामदेव, गोपोंको स्वजन, दुष्ट राजाओंको दण्ड देनेवाले शासक, माता-पिताके समान बड़े-बूढ़ोंको शिशु, कंसको मृत्यु, अज्ञानियोंको विराट्, योगियोंको परम तत्त्व और भक्तशिरोमणि वृष्णिवंशियोंको अपने इष्टदेव जान पड़े (सबने अपने-अपने भावानुरूप क्रमश: रौद्र, अद्भुत, सृंगार, हास्य, वीर, वात्सल्य, भयानक, बीभत्स, शान्त और प्रेमभक्तिरसका अनुभव किया) ॥ १७ ॥ राजन् ! वैसे तो कंस बड़ा धीर-वीर था; फिर भी जब उसने देखा कि इन दोनोंने कुवलयापीडक़ो मार डाला, तब उसकी समझमें यह बात आयी कि इनको जीतना तो बहुत कठिन है। उस समय वह बहुत घबड़ा गया ॥ १८ ॥ श्रीकृष्ण और बलरामकी बाँहें बड़ी लंबी-लंबी थीं। पुष्पोंके हार, वस्त्र और आभूषण आदिसे उनका वेष विचित्र हो रहा था; ऐसा जान पड़ता था, मानो उत्तम वेष धारण करके दो नट अभिनय करनेके लिये आये हों। जिनके नेत्र एक बार उनपर पड़ जाते, बस, लग ही जाते। यही नहीं, वे अपनी कान्तिसे उनका मन भी चुरा लेते। इस प्रकार दोनों रंगभूमिमें शोभायमान हुए ॥ १९ ॥ परीक्षित्‌ ! मञ्चोंपर जितने लोग बैठे थेवे मथुराके नागरिक और राष्ट्रके जन-समुदाय पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीको देखकर इतने प्रसन्न हुए कि उनके नेत्र और मुखकमल खिल उठे, उत्कण्ठासे भर गये। वे नेत्रोंके द्वारा उनकी मुखमाधुरीका पान करते-करते तृप्त ही नहीं होते थे ॥ २० ॥ मानो वे उन्हें नेत्रोंसे पी रहे हों, जिह्वा से चाट रहे हों, नासिकासे सूँघ रहे हों और भुजाओंसे पकडक़र हृदयसे सटा रहे हों ॥ २१ ॥ उनके सौन्दर्य, गुण, माधुर्य और निर्भयताने मानो दर्शकोंको उनकी लीलाओंका स्मरण करा दिया और वे लोग आपसमें उनके सम्बन्धकी देखी-सुनी बातें कहने-सुनने लगे ॥ २२ ॥ ये दोनों साक्षात् भगवान्‌ नारायणके अंश हैं। इस पृथ्वीपर वसुदेवजीके घरमें अवतीर्ण हुए हैं ॥ २३ ॥ [ अँगुलीसे दिखलाकर ] ये साँवले-सलोने कुमार देवकीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। जन्मते ही वसुदेवजीने इन्हें गोकुल पहुँचा दिया था। इतने दिनोंतक ये वहाँ छिपकर रहे और नन्दजीके घरमें ही पलकर इतने बड़े हुए ॥ २४ ॥ इन्होंने ही पूतना, तृणावर्त, शङ्खचूड़, केशी और धेनुक आदिका तथा और भी दुष्ट दैत्योंका वध तथा यमलार्जुनका उद्धार किया है ॥ २५ ॥ इन्होंने ही गौ और ग्वालोंको दावानलकी ज्वालासे बचाया था। कालियनागका दमन और इन्द्रका मान-मर्दन भी इन्होंने ही किया था ॥ २६ ॥ इन्होंने सात दिनोंतक एक ही हाथपर गिरिराज गोवर्धनको उठाये रखा और उसके द्वारा आँधी-पानी तथा वज्रपातसे गोकुलको बचा लिया ॥ २७ ॥ गोपियाँ इनकी मन्द-मन्द मुसकान, मधुर चितवन और सर्वदा एकरस प्रसन्न रहनेवाले मुखारविन्दके दर्शनसे आनन्दित रहती थीं और अनायास ही सब प्रकारके तापोंसे मुक्त हो जाती थीं ॥ २८ ॥ कहते हैं कि ये यदुवंशकी रक्षा करेंगे। यह विख्यात वंश इनके द्वारा महान् समृद्धि, यश और गौरव प्राप्त करेगा ॥ २९ ॥ ये दूसरे इन्हीं श्यामसुन्दरके बड़े भाई कमलनयन श्रीबलरामजी हैं। हमने किसी-किसीके मुँहसे ऐसा सुना है कि इन्होंने ही प्रलम्बासुर, वत्सासुर और बकासुर आदिको मारा है॥ । ३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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