श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
कुवलयापीड
का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश
जनेष्वेवं
ब्रुवाणेषु तूर्येषु निनदत्सु च ।
कृष्णरामौ
समाभाष्य चाणूरो वाक्यमब्रवीत् ॥ ३१ ॥
हे
नन्दसूनो हे राम भवन्तौ वीरसंमतौ ।
नियुद्धकुशलौ
श्रुत्वा राज्ञाऽऽहूतौ दिदृक्षुणा ॥ ३२ ॥
प्रियं
राज्ञः प्रकुर्वत्यः श्रेयो विन्दन्ति वै प्रजाः ।
मनसा
कर्मणा वाचा विपरीत मतोऽन्यथा ॥ ३३ ॥
नित्यं
प्रमुदिता गोपा वत्सपाला यथा स्फुटम् ।
वनेषु
मल्लयुद्धेन क्रीडन्तश्चारयन्ति गाः ॥ ३४ ॥
तस्माद्
राज्ञः प्रियं यूयं वयं च करवाम हे ।
भूतानि
नः प्रसीदन्ति सर्वभूतमयो नृपः ॥ ३५ ॥
तन्निशम्याब्रवीत्
कृष्णो देशकालोचितं वचः ।
नियुद्धमात्मनोऽभीष्टं
मन्यमानोऽभिनन्द्य च ॥ ३६ ॥
प्रजा
भोजपतेरस्य वयं चापि वनेचराः ।
करवाम
प्रियं नित्यं तन्नः परमनुग्रहः ॥ ३७ ॥
बाला
वयं तुल्यबलैः क्रीडिष्यामो यथोचितम् ।
भवेन्नियुद्धं
माधर्मः स्पृशेन्मल्ल सभासदः ॥ ३८ ॥
चाणूर
उवाच -
न
बालो न किशोरस्त्वं बलश्च बलिनां वरः ।
लीलयेभो
हतो येन सहस्रद्विपसत्त्वभृत् ॥ ३९ ॥
तस्माद्
भवद्भ्यां बलिभिः योद्धव्यं नानयोऽत्र वै ।
मयि
विक्रम वार्ष्णेय बलेन सह मुष्टिकः ॥ ४० ॥
जिस
समय दर्शकों मे यह चर्चा हो रही थी और अखाडे मे तुरही अदि बजे बज रहे समय चाणूर ने
भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामको सम्बोधन करके यह बात कही— ॥ ३१ ॥ ‘नन्दनन्दन श्रीकृष्ण और बलरामजी ! तुम दोनों
वीरोंके आदरणीय हो। हमारे महाराजने यह सुनकर कि तुमलोग कुश्ती लडऩेमें बड़े निपुण
हो, तुम्हारा कौशल देखनेके लिये तुम्हें यहाँ बुलवाया है ॥
३२ ॥ देखो भाई ! जो प्रजा मन, वचन और कर्मसे राजाका प्रिय
कार्य करती है, उसका भला होता है और जो राजाकी इच्छाके
विपरीत काम करती है, उसे हानि उठानी पड़ती है ॥ ३३ ॥ यह सभी
जानते हैं कि गाय और बछड़े चरानेवाले ग्वालिये प्रतिदिन आनन्दसे जंगलोंमें कुश्ती
लड़- लडक़र खेलते रहते हैं और गायें चराते रहते हैं ॥ ३४ ॥ इसलिये आओ, हम और तुम मिलकर महाराजाको प्रसन्न करनेके लिये कुश्ती लड़ें। ऐसा करनेसे
हमपर सभी प्राणी प्रसन्न होंगे, क्योंकि राजा सारी प्रजाका
प्रतीक है’ ॥ ३५ ॥
परीक्षित्
! भगवान् श्रीकृष्ण तो चाहते ही थे कि इनसे दो-दो हाथ करें। इसलिये उन्होंने चाणूरकी
बात सुनकर उसका अनुमोदन किया और देश-कालके अनुसार यह बात कही— ॥ ३६ ॥ ‘चाणूर ! हम भी इन भोजराज कंसकी वनवासी प्रजा
हैं। हमें इनको प्रसन्न करनेका प्रयत्न अवश्य करना चाहिये। इसीमें हमारा कल्याण है
॥ ३७ ॥ किन्तु चाणूर ! हमलोग अभी बालक हैं। इसलिये हम अपने समान बलवाले बालकोंके
साथ ही कुश्ती लडऩेका खेल करेंगे। कुश्ती समान बलवालोंके साथ ही होनी चाहिये,
जिससे देखनेवाले सभासदोंको अन्यायके समर्थक होनेका पाप न लगे’
॥ ३८ ॥
चाणूरने
कहा—अजी ! तुम और बलराम न बालक हो और न तो किशोर। तुम दोनों बलवानोंमें
श्रेष्ठ हो, तुमने अभी-अभी हजार हाथियोंका बल रखनेवाले
कुवलयापीडक़ो खेल-ही-खेलमें मार डाला ॥ ३९ ॥ इसलिये तुम दोनोंको हम-जैसे बलवानोंके
साथ ही लडऩा चाहिये। इसमें अन्याय की कोई बात नहीं है। इसलिये श्रीकृष्ण ! तुम
मुझपर अपना जोर आजमाओ और बलराम के साथ मुष्टिक लड़ेगा ॥ ४० ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे
पूर्वार्धे कुवलयापीडवधो नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
कुवलयापीड
का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश
जनेष्वेवं
ब्रुवाणेषु तूर्येषु निनदत्सु च ।
कृष्णरामौ
समाभाष्य चाणूरो वाक्यमब्रवीत् ॥ ३१ ॥
हे
नन्दसूनो हे राम भवन्तौ वीरसंमतौ ।
नियुद्धकुशलौ
श्रुत्वा राज्ञाऽऽहूतौ दिदृक्षुणा ॥ ३२ ॥
प्रियं
राज्ञः प्रकुर्वत्यः श्रेयो विन्दन्ति वै प्रजाः ।
मनसा
कर्मणा वाचा विपरीत मतोऽन्यथा ॥ ३३ ॥
नित्यं
प्रमुदिता गोपा वत्सपाला यथा स्फुटम् ।
वनेषु
मल्लयुद्धेन क्रीडन्तश्चारयन्ति गाः ॥ ३४ ॥
तस्माद्
राज्ञः प्रियं यूयं वयं च करवाम हे ।
भूतानि
नः प्रसीदन्ति सर्वभूतमयो नृपः ॥ ३५ ॥
तन्निशम्याब्रवीत्
कृष्णो देशकालोचितं वचः ।
नियुद्धमात्मनोऽभीष्टं
मन्यमानोऽभिनन्द्य च ॥ ३६ ॥
प्रजा
भोजपतेरस्य वयं चापि वनेचराः ।
करवाम
प्रियं नित्यं तन्नः परमनुग्रहः ॥ ३७ ॥
बाला
वयं तुल्यबलैः क्रीडिष्यामो यथोचितम् ।
भवेन्नियुद्धं
माधर्मः स्पृशेन्मल्ल सभासदः ॥ ३८ ॥
चाणूर
उवाच -
न
बालो न किशोरस्त्वं बलश्च बलिनां वरः ।
लीलयेभो
हतो येन सहस्रद्विपसत्त्वभृत् ॥ ३९ ॥
तस्माद्
भवद्भ्यां बलिभिः योद्धव्यं नानयोऽत्र वै ।
मयि
विक्रम वार्ष्णेय बलेन सह मुष्टिकः ॥ ४० ॥
जिस
समय दर्शकों मे यह चर्चा हो रही थी और अखाडे मे तुरही अदि बजे बज रहे समय चाणूर ने
भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामको सम्बोधन करके यह बात कही— ॥ ३१ ॥ ‘नन्दनन्दन श्रीकृष्ण और बलरामजी ! तुम दोनों
वीरोंके आदरणीय हो। हमारे महाराजने यह सुनकर कि तुमलोग कुश्ती लडऩेमें बड़े निपुण
हो, तुम्हारा कौशल देखनेके लिये तुम्हें यहाँ बुलवाया है ॥
३२ ॥ देखो भाई ! जो प्रजा मन, वचन और कर्मसे राजाका प्रिय
कार्य करती है, उसका भला होता है और जो राजाकी इच्छाके
विपरीत काम करती है, उसे हानि उठानी पड़ती है ॥ ३३ ॥ यह सभी
जानते हैं कि गाय और बछड़े चरानेवाले ग्वालिये प्रतिदिन आनन्दसे जंगलोंमें कुश्ती
लड़- लडक़र खेलते रहते हैं और गायें चराते रहते हैं ॥ ३४ ॥ इसलिये आओ, हम और तुम मिलकर महाराजाको प्रसन्न करनेके लिये कुश्ती लड़ें। ऐसा करनेसे
हमपर सभी प्राणी प्रसन्न होंगे, क्योंकि राजा सारी प्रजाका
प्रतीक है’ ॥ ३५ ॥
परीक्षित्
! भगवान् श्रीकृष्ण तो चाहते ही थे कि इनसे दो-दो हाथ करें। इसलिये उन्होंने चाणूरकी
बात सुनकर उसका अनुमोदन किया और देश-कालके अनुसार यह बात कही— ॥ ३६ ॥ ‘चाणूर ! हम भी इन भोजराज कंसकी वनवासी प्रजा
हैं। हमें इनको प्रसन्न करनेका प्रयत्न अवश्य करना चाहिये। इसीमें हमारा कल्याण है
॥ ३७ ॥ किन्तु चाणूर ! हमलोग अभी बालक हैं। इसलिये हम अपने समान बलवाले बालकोंके
साथ ही कुश्ती लडऩेका खेल करेंगे। कुश्ती समान बलवालोंके साथ ही होनी चाहिये,
जिससे देखनेवाले सभासदोंको अन्यायके समर्थक होनेका पाप न लगे’
॥ ३८ ॥
चाणूरने
कहा—अजी ! तुम और बलराम न बालक हो और न तो किशोर। तुम दोनों बलवानोंमें
श्रेष्ठ हो, तुमने अभी-अभी हजार हाथियोंका बल रखनेवाले
कुवलयापीडक़ो खेल-ही-खेलमें मार डाला ॥ ३९ ॥ इसलिये तुम दोनोंको हम-जैसे बलवानोंके
साथ ही लडऩा चाहिये। इसमें अन्याय की कोई बात नहीं है। इसलिये श्रीकृष्ण ! तुम
मुझपर अपना जोर आजमाओ और बलराम के साथ मुष्टिक लड़ेगा ॥ ४० ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे
पूर्वार्धे कुवलयापीडवधो नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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