रविवार, 16 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

कुवलयापीड का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश

 

जनेष्वेवं ब्रुवाणेषु तूर्येषु निनदत्सु च ।

कृष्णरामौ समाभाष्य चाणूरो वाक्यमब्रवीत् ॥ ३१ ॥

हे नन्दसूनो हे राम भवन्तौ वीरसंमतौ ।

नियुद्धकुशलौ श्रुत्वा राज्ञाऽऽहूतौ दिदृक्षुणा ॥ ३२ ॥

प्रियं राज्ञः प्रकुर्वत्यः श्रेयो विन्दन्ति वै प्रजाः ।

मनसा कर्मणा वाचा विपरीत मतोऽन्यथा ॥ ३३ ॥

नित्यं प्रमुदिता गोपा वत्सपाला यथा स्फुटम् ।

वनेषु मल्लयुद्धेन क्रीडन्तश्चारयन्ति गाः ॥ ३४ ॥

तस्माद् राज्ञः प्रियं यूयं वयं च करवाम हे ।

भूतानि नः प्रसीदन्ति सर्वभूतमयो नृपः ॥ ३५ ॥

तन्निशम्याब्रवीत् कृष्णो देशकालोचितं वचः ।

नियुद्धमात्मनोऽभीष्टं मन्यमानोऽभिनन्द्य च ॥ ३६ ॥

प्रजा भोजपतेरस्य वयं चापि वनेचराः ।

करवाम प्रियं नित्यं तन्नः परमनुग्रहः ॥ ३७ ॥

बाला वयं तुल्यबलैः क्रीडिष्यामो यथोचितम् ।

भवेन्नियुद्धं माधर्मः स्पृशेन्मल्ल सभासदः ॥ ३८ ॥

 

चाणूर उवाच -

न बालो न किशोरस्त्वं बलश्च बलिनां वरः ।

लीलयेभो हतो येन सहस्रद्विपसत्त्वभृत् ॥ ३९ ॥

तस्माद् भवद्‍भ्यां बलिभिः योद्धव्यं नानयोऽत्र वै ।

मयि विक्रम वार्ष्णेय बलेन सह मुष्टिकः ॥ ४० ॥

 

जिस समय दर्शकों मे यह चर्चा हो रही थी और अखाडे मे तुरही अदि बजे बज रहे समय चाणूर ने भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामको सम्बोधन करके यह बात कही॥ ३१ ॥ नन्दनन्दन श्रीकृष्ण और बलरामजी ! तुम दोनों वीरोंके आदरणीय हो। हमारे महाराजने यह सुनकर कि तुमलोग कुश्ती लडऩेमें बड़े निपुण हो, तुम्हारा कौशल देखनेके लिये तुम्हें यहाँ बुलवाया है ॥ ३२ ॥ देखो भाई ! जो प्रजा मन, वचन और कर्मसे राजाका प्रिय कार्य करती है, उसका भला होता है और जो राजाकी इच्छाके विपरीत काम करती है, उसे हानि उठानी पड़ती है ॥ ३३ ॥ यह सभी जानते हैं कि गाय और बछड़े चरानेवाले ग्वालिये प्रतिदिन आनन्दसे जंगलोंमें कुश्ती लड़- लडक़र खेलते रहते हैं और गायें चराते रहते हैं ॥ ३४ ॥ इसलिये आओ, हम और तुम मिलकर महाराजाको प्रसन्न करनेके लिये कुश्ती लड़ें। ऐसा करनेसे हमपर सभी प्राणी प्रसन्न होंगे, क्योंकि राजा सारी प्रजाका प्रतीक है॥ ३५ ॥

 

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण तो चाहते ही थे कि इनसे दो-दो हाथ करें। इसलिये उन्होंने चाणूरकी बात सुनकर उसका अनुमोदन किया और देश-कालके अनुसार यह बात कही॥ ३६ ॥ चाणूर ! हम भी इन भोजराज कंसकी वनवासी प्रजा हैं। हमें इनको प्रसन्न करनेका प्रयत्न अवश्य करना चाहिये। इसीमें हमारा कल्याण है ॥ ३७ ॥ किन्तु चाणूर ! हमलोग अभी बालक हैं। इसलिये हम अपने समान बलवाले बालकोंके साथ ही कुश्ती लडऩेका खेल करेंगे। कुश्ती समान बलवालोंके साथ ही होनी चाहिये, जिससे देखनेवाले सभासदोंको अन्यायके समर्थक होनेका पाप न लगे॥ ३८ ॥

 

चाणूरने कहाअजी ! तुम और बलराम न बालक हो और न तो किशोर। तुम दोनों बलवानोंमें श्रेष्ठ हो, तुमने अभी-अभी हजार हाथियोंका बल रखनेवाले कुवलयापीडक़ो खेल-ही-खेलमें मार डाला ॥ ३९ ॥ इसलिये तुम दोनोंको हम-जैसे बलवानोंके साथ ही लडऩा चाहिये। इसमें अन्याय की कोई बात नहीं है। इसलिये श्रीकृष्ण ! तुम मुझपर अपना जोर आजमाओ और बलराम के साथ मुष्टिक लड़ेगा ॥ ४० ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे कुवलयापीडवधो नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

कुवलयापीड का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश

 

जनेष्वेवं ब्रुवाणेषु तूर्येषु निनदत्सु च ।

कृष्णरामौ समाभाष्य चाणूरो वाक्यमब्रवीत् ॥ ३१ ॥

हे नन्दसूनो हे राम भवन्तौ वीरसंमतौ ।

नियुद्धकुशलौ श्रुत्वा राज्ञाऽऽहूतौ दिदृक्षुणा ॥ ३२ ॥

प्रियं राज्ञः प्रकुर्वत्यः श्रेयो विन्दन्ति वै प्रजाः ।

मनसा कर्मणा वाचा विपरीत मतोऽन्यथा ॥ ३३ ॥

नित्यं प्रमुदिता गोपा वत्सपाला यथा स्फुटम् ।

वनेषु मल्लयुद्धेन क्रीडन्तश्चारयन्ति गाः ॥ ३४ ॥

तस्माद् राज्ञः प्रियं यूयं वयं च करवाम हे ।

भूतानि नः प्रसीदन्ति सर्वभूतमयो नृपः ॥ ३५ ॥

तन्निशम्याब्रवीत् कृष्णो देशकालोचितं वचः ।

नियुद्धमात्मनोऽभीष्टं मन्यमानोऽभिनन्द्य च ॥ ३६ ॥

प्रजा भोजपतेरस्य वयं चापि वनेचराः ।

करवाम प्रियं नित्यं तन्नः परमनुग्रहः ॥ ३७ ॥

बाला वयं तुल्यबलैः क्रीडिष्यामो यथोचितम् ।

भवेन्नियुद्धं माधर्मः स्पृशेन्मल्ल सभासदः ॥ ३८ ॥

 

चाणूर उवाच -

न बालो न किशोरस्त्वं बलश्च बलिनां वरः ।

लीलयेभो हतो येन सहस्रद्विपसत्त्वभृत् ॥ ३९ ॥

तस्माद् भवद्‍भ्यां बलिभिः योद्धव्यं नानयोऽत्र वै ।

मयि विक्रम वार्ष्णेय बलेन सह मुष्टिकः ॥ ४० ॥

 

जिस समय दर्शकों मे यह चर्चा हो रही थी और अखाडे मे तुरही अदि बजे बज रहे समय चाणूर ने भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामको सम्बोधन करके यह बात कही॥ ३१ ॥ नन्दनन्दन श्रीकृष्ण और बलरामजी ! तुम दोनों वीरोंके आदरणीय हो। हमारे महाराजने यह सुनकर कि तुमलोग कुश्ती लडऩेमें बड़े निपुण हो, तुम्हारा कौशल देखनेके लिये तुम्हें यहाँ बुलवाया है ॥ ३२ ॥ देखो भाई ! जो प्रजा मन, वचन और कर्मसे राजाका प्रिय कार्य करती है, उसका भला होता है और जो राजाकी इच्छाके विपरीत काम करती है, उसे हानि उठानी पड़ती है ॥ ३३ ॥ यह सभी जानते हैं कि गाय और बछड़े चरानेवाले ग्वालिये प्रतिदिन आनन्दसे जंगलोंमें कुश्ती लड़- लडक़र खेलते रहते हैं और गायें चराते रहते हैं ॥ ३४ ॥ इसलिये आओ, हम और तुम मिलकर महाराजाको प्रसन्न करनेके लिये कुश्ती लड़ें। ऐसा करनेसे हमपर सभी प्राणी प्रसन्न होंगे, क्योंकि राजा सारी प्रजाका प्रतीक है॥ ३५ ॥

 

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण तो चाहते ही थे कि इनसे दो-दो हाथ करें। इसलिये उन्होंने चाणूरकी बात सुनकर उसका अनुमोदन किया और देश-कालके अनुसार यह बात कही॥ ३६ ॥ चाणूर ! हम भी इन भोजराज कंसकी वनवासी प्रजा हैं। हमें इनको प्रसन्न करनेका प्रयत्न अवश्य करना चाहिये। इसीमें हमारा कल्याण है ॥ ३७ ॥ किन्तु चाणूर ! हमलोग अभी बालक हैं। इसलिये हम अपने समान बलवाले बालकोंके साथ ही कुश्ती लडऩेका खेल करेंगे। कुश्ती समान बलवालोंके साथ ही होनी चाहिये, जिससे देखनेवाले सभासदोंको अन्यायके समर्थक होनेका पाप न लगे॥ ३८ ॥

 

चाणूरने कहाअजी ! तुम और बलराम न बालक हो और न तो किशोर। तुम दोनों बलवानोंमें श्रेष्ठ हो, तुमने अभी-अभी हजार हाथियोंका बल रखनेवाले कुवलयापीडक़ो खेल-ही-खेलमें मार डाला ॥ ३९ ॥ इसलिये तुम दोनोंको हम-जैसे बलवानोंके साथ ही लडऩा चाहिये। इसमें अन्याय की कोई बात नहीं है। इसलिये श्रीकृष्ण ! तुम मुझपर अपना जोर आजमाओ और बलराम के साथ मुष्टिक लड़ेगा ॥ ४० ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे कुवलयापीडवधो नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४३ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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