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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौवालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानों का तथा कंस का उद्धार
श्रीशुक
उवाच -
एवं
चर्चितसङ्कल्पो भगवान् मधुसूदनः ।
आससादाथ
चणूरं मुष्टिकं रोहिणीसुतः ॥ १ ॥
हस्ताभ्यां
हस्तयोर्बद्ध्वा पद्भ्यामेव च पादयोः ।
विचकर्षतुरन्योन्यं
प्रसह्य विजिगीषया ॥ २ ॥
अरत्नी
द्वे अरत्निभ्यां जानुभ्यां चैव जानुनी ।
शिरः
शीर्ष्णोरसोरस्तौ अन्योन्यं अभिजघ्नतुः ॥ ३ ॥
परिभ्रामणविक्षेप
परिरम्भावपातनैः ।
उत्सर्पणापसर्पणैः
चान्योन्यं प्रत्यरुन्धताम् ॥ ४ ॥
उत्थापनैरुन्नयनैः
चालनैः स्थापनैरपि ।
परस्परं
जिगीषन्तौ अपचक्रतुरात्मनः ॥ ५ ॥
तद्बलाबलवद्
युद्धं समेताः सर्वयोषितः ।
ऊचुः
परस्परं राजन् सानुकम्पा वरूथशः ॥ ६ ॥
महानयं
बताधर्म एषां राजसभासदाम् ।
ये
बलाबलवद् युद्धं राज्ञोऽन्विच्छन्ति पश्यतः ॥ ७ ॥
क्व
वज्रसारसर्वाङ्गौ मल्लौ शैलेन्द्रसन्निभौ ।
क्व
चातिसुकुमाराङ्गौ किशोरौ नाप्तयौवनौ ॥ ८ ॥
धर्मव्यतिक्रमो
ह्यस्य समाजस्य ध्रुवं भवेत् ।
यत्राधर्मः
समुत्तिष्ठेत् न स्थेयं तत्र कर्हिचित् ॥ ९ ॥
न
सभां प्रविशेत् प्राज्ञः सभ्यदोषान् अनुस्मरन् ।
अब्रुवन्
विब्रुवन्नज्ञो नरः किल्बिषमश्नुते ॥ १० ॥
वल्गतः
शत्रुमभितः कृष्णस्य वदनाम्बुजम् ।
वीक्ष्यतां
श्रमवार्युप्तं पद्मकोशमिवाम्बुभिः ॥ ११ ॥
किं
न पश्यत रामस्य मुखमाताम्रलोचनम् ।
मुष्टिकं
प्रति सामर्षं हाससंरम्भशोभितम् ॥ १२ ॥
पुण्या
बत व्रजभुवो यदयं नृलिङ्ग
गूढः
पुराणपुरुषो वनचित्रमाल्यः ।
गाः
पालयन्सहबलः क्वणयंश्च वेणुं
विक्रीदयाञ्चति
गिरित्ररमार्चिताङ्घ्रिः ॥ १३ ॥
गोप्यस्तपः
किमचरन् यदमुष्य रूपं
लावण्यसारमसमोर्ध्वमनन्यसिद्धम्
।
दृग्भिः
पिबन्त्यनुसवाभिनवं दुरापम्
एकान्तधाम
यशसः श्रीय ऐश्वरस्य ॥ १४ ॥
या
दोहनेऽवहनने मथनोपलेप
प्रेङ्खेङ्खनार्भरुदितो-क्षणमार्जनादौ
।
गायन्ति
चैनमनुरक्तधियोऽश्रुकण्ठ्यो
धन्या
व्रजस्त्रिय उरुक्रमचित्तयानाः ॥ १५ ॥
प्रातर्व्रजाद्
व्रजत आविशतश्च सायं
गोभिः
समं क्वणयतोऽस्य निशम्य वेणुम् ।
निर्गम्य
तूर्णमबलाः पथि भूरिपुण्याः
पश्यन्ति
सस्मितमुखं सदयावलोकम् ॥ १६ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्णने चाणूर आदिके वधका निश्चित संकल्प कर
लिया। जोड़ बद दिये जानेपर श्रीकृष्ण चाणूरसे और बलरामजी मुष्टिक से जा भिड़े ॥ १
॥ वे लोग एक-दूसरेको जीत लेनेकी इच्छासे हाथसे हाथ बाँधकर और पैरोंमें पैर अड़ाकर
बलपूर्वक अपनी-अपनी ओर खींचने लगे ॥ २ ॥ वे पंजोंसे पंजे, घुटनोंसे
घुटने, माथेसे माथा और छातीसे छाती भिड़ाकर एक-दूसरेपर चोट
करने लगे ॥ ३ ॥ इस प्रकार दाँव-पेंच करते-करते अपने-अपने जोड़ीदारको पकडक़र इधर-उधर
घुमाते, दूर ढकेल देते, जोरसे जकड़
लेते, लिपट जाते, उठाकर पटक देते,
छूटकर निकल भागते और कभी छोडक़र पीछे हट जाते थे। इस प्रकार
एक-दूसरेको रोकते, प्रहार करते और अपने जोड़ीदारको पछाड़
देनेकी चेष्टा करते। कभी कोई नीचे गिर जाता, तो दूसरा उसे
घुटनों और पैरोंमें दबाकर उठा लेता। हाथोंसे पकडक़र ऊपर ले जाता। गलेमें लिपट
जानेपर ढकेल देता और आवश्यकता होनेपर हाथ-पाँव इकट्ठेकरके गाँठ बाँध देता ॥ ४-५ ॥
परीक्षित्
! इस दंगलको देखनेके लिये नगरकी बहुत-सी महिलाएँ भी आयी हुई थीं। उन्होंने जब देखा
कि बड़े-बड़े पहलवानोंके साथ ये छोटे-छोटे बलहीन बालक लड़ाये जा रहे हैं, तब वे अलग-अलग टोलियाँ बनाकर करुणावश आपसमें बातचीत करने लगीं— ॥ ६ ॥ ‘यहाँ राजा कंसके सभासद् बड़ा अन्याय और अधर्म
कर रहे हैं। कितने खेदकी बात है कि राजाके सामने ही ये बली पहलवानों और निर्बल
बालकोंके युद्धका अनुमोदन करते हैं ॥ ७ ॥ बहिन ! देखो, इन
पहलवानोंका एक-एक अङ्ग वज्रके समान कठोर है। ये देखनेमें बड़े भारी पर्वत-से मालूम
होते हैं। परंतु श्रीकृष्ण और बलराम अभी जवान भी नहीं हुए हैं। इनकी किशोरावस्था
है। इनका एक- एक अङ्ग अत्यन्त सुकुमार है। कहाँ ये और कहाँ वे ? ॥ ८ ॥ जितने लोग यहाँ इकट्ठेहुए हैं, देख रहे हैं,
उन्हें अवश्य-अवश्य धर्मोल्लङ्घनका पाप लगेगा। सखी ! अब हमें भी
यहाँसे चल देना चाहिये। जहाँ अधर्मकी प्रधानता हो, वहाँ कभी
न रहे; यही शास्त्रका नियम है ॥ ९ ॥ देखो, शास्त्र कहता है कि बुद्धिमान् पुरुषको सभासदोंके दोषोंको जानते हुए,
सभामें जाना ठीक नहीं है। क्योंकि वहाँ जाकर उन अवगुणोंको कहना,
चुप रह जाना अथवा मैं नहीं जानता ऐसा कह देना—ये
तीनों ही बातें मनुष्यको दोषभागी बनाती हैं ॥ १० ॥ देखो, देखो,
श्रीकृष्ण शत्रुके चारों ओर पैंतरा बदल रहे हैं। उनके मुखपर पसीनेकी
बूँदें ठीक वैसे ही शोभा दे रही हैं, जैसे कमलकोशपर जलकी
बूँदें ॥ ११ ॥ सखियो ! क्या तुम नहीं देख रही हो कि बलरामजीका मुख मुष्टिकके प्रति
क्रोधके कारण कुछ-कुछ लाल लोचनोंसे युक्त हो रहा है ! फिर भी हास्यका अनिरुद्ध
आवेग कितना सुन्दर लग रहा है ॥ १२ ॥ सखी ! सच पूछो तो व्रजभूमि ही परम पवित्र और
धन्य है। क्योंकि वहाँ ये पुरुषोत्तम मनुष्यके वेषमें छिपकर रहते हैं। स्वयं
भगवान् शङ्कर और लक्ष्मीजी जिनके चरणोंकी पूजा करती हैं, वे
ही प्रभु वहाँ रंग-बिरंगे जंगली पुष्पोंकी माला धारण कर लेते हैं तथा बलरामजीके
साथ बाँसुरी बजाते, गौएँ चराते और तरह-तरहके खेल खेलते हुए
आनन्दसे विचरते हैं ॥ १३ ॥ सखी ! पता नहीं, गोपियोंने कौन-सी
तपस्या की थी, जो नेत्रोंके दोनोंसे नित्य-निरन्तर इनकी रूप-
माधुरीका पान करती रहती हैं। इनका रूप क्या है, लावण्यका सार
! संसारमें या उससे परे किसीका भी रूप इनके रूपके समान नहीं है, फिर बढक़र होनेकी तो बात ही क्या है ! सो भी किसीके सँवारने-सजानेसे नहीं,
गहने-कपड़ेसे भी नहीं, बल्कि स्वयंसिद्ध है।
इस रूपको देखते- देखते तृप्ति भी नहीं होती। क्योंकि यह प्रतिक्षण नया होता जाता
है, नित्य नूतन है। समग्र यश, सौन्दर्य
और ऐश्वर्य इसीके आश्रित हैं। सखियो ! परंतु इसका दर्शन तो औरोंके लिये बड़ा ही
दुर्लभ है। वह तो गोपियोंके ही भाग्यमें बदा है ॥ १४ ॥ सखी ! व्रजकी गोपियाँ धन्य
हैं। निरन्तर श्रीकृष्णमें ही चित्त लगा रहनेके कारण प्रेमभरे हृदयसे, आँसुओंके कारण गद्गद कण्ठसे वे इन्हींकी लीलाओंका गान करती रहती हैं। वे
दूध दुहते, दही मथते, धान कूटते,
घर लीपते, बालकोंको झूला झुलाते, रोते हुए बालकोंको चुप कराते, उन्हें नहलाते-धुलाते,
घरोंको झाड़ते- बुहारते—कहाँतक कहें, सारे काम-काज करते समय श्रीकृष्णके गुणोंके गानमें ही मस्त रहती हैं ॥ १५
॥ ये श्रीकृष्ण जब प्रात:काल गौओंको चरानेके लिये व्रजसे वनमें जाते हैं और
सायंकाल उन्हें लेकर व्रजमें लौटते हैं, तब बड़े मधुर स्वरसे
बाँसुरी बजाते हैं। उसकी टेर सुनकर गोपियाँ घरका सारा कामकाज छोडक़र झटपट रास्तेमें
दौड़ आती हैं और श्रीकृष्णका मन्द-मन्द मुसकान एवं दयाभरी चितवनसे युक्त मुखकमल
निहार-निहारकर निहाल होती हैं। सचमुच गोपियाँ ही परम पुण्यवती हैं’ ॥ १६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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