॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इकतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
श्रीकृष्णका
मथुराजी में प्रवेश
श्रीअक्रूर
उवाच -
नाहं
भवद्भ्यां रहितः प्रवेक्ष्ये मथुरां प्रभो ।
त्यक्तुं
नार्हसि मां नाथ भक्तं ते भक्तवत्सल ॥ ११ ॥
आगच्छ
याम गेहान् नः सनाथान् कुर्वधोक्षज ।
सहाग्रजः
सगोपालैः सुहृद्भिश्च सुहृत्तम ॥ १२ ॥
पुनीहि
पादरजसा गृहान्नो गृहमेधिनाम् ।
यच्छौचेनानुतृप्यन्ति
पितरः साग्नयः सुराः ॥ १३ ॥
अवनिज्याङ्घ्रियुगलं
आसीत् श्लोक्यो बलिर्महान् ।
ऐश्वर्यं
अतुलं लेभे गतिं चैकान्तिनां तु या ॥ १४ ॥
आपस्तेऽङ्घ्र्यवनेजन्यः
त्रींल्लोकान् शुचयोऽपुनन् ।
शिरसाधत्त
याः शर्वः स्वर्याताः सगरात्मजाः ॥ १५ ॥
देवदेव
जगन्नाथ पुण्यश्रवणकीर्तन ।
यदूत्तमोत्तमःश्लोक
नारायण नमोऽस्तु ते ॥ १६ ॥
श्रीभगवानुवाच
।
आयास्ये
भवतो गेहं अहमार्यसमन्वितः ।
यदुचक्रद्रुहं
हत्वा वितरिष्ये सुहृत्प्रियम् ॥ १७ ॥
श्रीशुक
उवाच -
एवमुक्तो
भगवता सोऽक्रूरो विमना इव ।
पुरीं
प्रविष्टः कंसाय कर्मावेद्य गृहं ययौ ॥ १८ ॥
अथापराह्ने
भगवान् कृष्णः सङ्कर्षणान्वितः ।
मथुरां
प्राविशद् गोपैः दिदृक्षुः परिवारितः ॥ १९ ॥
ददर्श
तां स्फाटिकतुङ्ग गोपुर
द्वारां
बृहद् हेमकपाटतोरणाम् ।
ताम्रारकोष्ठां
परिखादुरासदां
उद्यान
रम्योप वनोपशोभिताम् ॥ २० ॥
सौवर्णशृङ्गाटकहर्म्यनिष्कुटैः
श्रेणीसभाभिः
भवनैरुपस्कृताम् ।
वैदूर्यवज्रामलनीलविद्रुमैः
मुक्ताहरिद्भिर्वलभीषु
वेदिषु ॥ २१ ॥
जुष्टेषु
जालामुखरन्ध्रकुट्टिमेषु
आविष्टपारावतबर्हिनादिताम्
।
संसिक्तरथ्यापणमार्गचत्वरां
प्रकीर्णमाल्याङ्कुरलाजतण्डुलाम्
॥ २२ ॥
आपूर्णकुम्भैर्दधिचन्दनोक्षितैः
प्रसूनदीपावलिभिः
सपल्लवैः ।
सवृन्दरम्भाक्रमुकैः
सकेतुभिः
स्वलङ्कृतत्
द्वारगृहां सपट्टिकैः ॥ २३ ॥
अक्रूरजीने
कहा—प्रभो ! आप दोनोंके बिना मैं मथुरामें नहीं जा सकता। स्वामी ! मैं आपका
भक्त हूँ ! भक्तवत्सल प्रभो ! आप मुझे मत छोडिय़े ॥ ११ ॥ भगवन् ! आइये, चलें। मेरे परम हितैषी और सच्चे सुहृद् भगवन् ! आप बलरामजी, ग्वालबालों तथा नन्दरायजी आदि आत्मीयोंके साथ चलकर हमारा घर सनाथ कीजिये ॥
१२ ॥ हम गृहस्थ हैं। आप अपने चरणोंकी धूलिसे हमारा घर पवित्र कीजिये। आपके चरणोंकी
धोवन (गङ्गाजल या चरणामृत) से अग्रि, देवता, पितर—सब-के-सब तृप्त हो जाते हैं ॥ १३ ॥ प्रभो !
आपके युगल चरणोंको पखारकर महात्मा बलिने वह यश प्राप्त किया, जिसका गान संत पुरुष करते हैं। केवल यश ही नहीं—उन्हें
अतुलनीय ऐश्वर्य तथा वह गति प्राप्त हुई, जो अनन्य प्रेमी
भक्तोंको प्राप्त होती है ॥ १४ ॥ आपके चरणोदक— गङ्गाजीने
तीनों लोक पवित्र कर दिये। सचमुच वे मूर्तिमान् पवित्रता हैं। उन्हींके स्पर्शसे
सगरके पुत्रोंको सद्गति प्राप्त हुई और उसी जलको स्वयं भगवान् शङ्करने अपने सिरपर
धारण किया ॥ १५ ॥ यदुवंशशिरोमणे ! आप देवताओंके भी आराध्यदेव हैं। जगत्के स्वामी
हैं। आपके गुण और लीलाओंका श्रवण तथा कीर्तन बड़ा ही मङ्गलकारी है। उत्तम पुरुष
आपके गुणोंका कीर्तन करते रहते हैं। नारायण ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ १६ ॥
श्रीभगवान्
ने कहा—चाचाजी ! मैं दाऊ भैयाके साथ आपके घर आऊँगा और पहले इस यदुवंशियोंके
द्रोही कंसको मारकर तब अपने सभी सुहृद्-स्वजनोंका प्रिय करूँगा ॥ १७ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! भगवान् के इस प्रकार कहनेपर अक्रूरजी कुछ अनमने-से हो गये।
उन्होंने पुरीमें प्रवेश करके कंससे श्रीकृष्ण और बलरामके ले आनेका समाचार निवेदन
किया और फिर अपने घर गये ॥ १८ ॥ दूसरे दिन तीसरे पहर बलरामजी और ग्वालबालोंके साथ
भगवान् श्रीकृष्णने मथुरापुरीको देखनेके लिये नगरमें प्रवेश किया ॥ १९ ॥ भगवान्ने
देखा कि नगरके परकोटेमें स्फटिकमणि (बिल्लौर) के बहुत ऊँचे-ऊँचे गोपुर (प्रधान
दरवाजे) तथा घरोंमें भी बड़े-बड़े फाटक बने हुए हैं। उनमें सोनेके बड़े-बड़े
ङ्क्षकवाड़ लगे हैं और सोनेके ही तोरण (बाहरी दरवाजे) बने हुए हैं। नगरके चारों ओर
ताँबे और पीतलकी चहारदीवारी बनी हुई है। खार्ईंके कारण और कहींसे उस नगरमें प्रवेश
करना बहुत कठिन है। स्थान-स्थानपर सुन्दर-सुन्दर उद्यान और रमणीय उपवन (केवल
स्त्रियोंके उपयोगमें आनेवाले बगीचे) शोभायमान हैं ॥ २० ॥ सुवर्णसे सजे हुए चौराहे,
धनियोंके महल, उन्हींके साथके बगीचे, कारीगरोंके बैठनेके स्थान या प्रजावर्गके सभा-भवन (टाउनहाल) और साधारण
लोगोंके निवासगृह नगरकी शोभा बढ़ा रहे हैं। वैदूर्य, हीरे,
स्फटिक (बिल्लौर), नीलम, मूँगे, मोती और पन्ने आदिसे जड़े हुए छज्जे, चबूतरे, झरोखे एवं फर्श आदि जगमगा रहे हैं। उनपर
बैठे हुए कबूतर, मोर आदि पक्षी भाँति-भाँतिकी बोली बोल रहे
हैं। सडक़, बाजार, गली एवं चौराहोंपर
खूब छिडक़ाव किया गया है। स्थान-स्थानपर फूलोंके गजरे, जवारे
(जौके अङ्कुर), खील और चावल बिखरे हुए हैं ॥ २१-२२ ॥ घरोंके
दरवाजोंपर दही और चन्दन आदिसे चॢचत जलसे भरे हुए कलश रखे हैं और वे फूल, दीपक, नयी-नयी कोंपलें फलसहित केले और सुपारीके
वृक्ष, छोटी-छोटी झंडियों और रेशमी वस्त्रोंसे भलीभाँति सजाए
हुए हैं ॥ २३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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