॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
केशी
और व्योमासुर का उद्धार तथा नारदजी के द्वारा भगवान् की स्तुति
देवर्षिरुपसङ्गम्य
भागवतप्रवरो नृप ।
कृष्णमक्लिष्टकर्माणं
रहस्येतदभाषत ॥ १० ॥
कृष्ण
कृष्णाप्रमेयात्मन् योगेश जगदीश्वर ।
वासुदेवाखिलावास
सात्वतां प्रवर प्रभो ॥ ११ ॥
त्वमात्मा
सर्वभूतानां एको ज्योतिरिवैधसाम् ।
गूढो
गुहाशयः साक्षी महापुरुष ईश्वरः ॥ १२ ॥
आत्मनाऽऽत्माश्रयः
पूर्वं मायया ससृजे गुणान् ।
तैरिदं
सत्यसङ्कल्पः सृजस्यत्स्यवसीश्वरः ॥ १३ ॥
स
त्वं भूधरभूतानां दैत्यप्रमथरक्षसाम् ।
अवतीर्णो
विनाशाय साधुनां रक्षणाय च ॥ १४ ॥
दिष्ट्या
ते निहतो दैत्यो लीलयायं हयाकृतिः ।
यस्य
हेषितसन्त्रस्ताः त्यजन्त्यनिमिषा दिवम् ॥ १५ ॥
चाणूरं
मुष्टिकं चैव मल्लानन्यांश्च हस्तिनम् ।
कंसं
च निहतं द्रक्ष्ये परश्वोऽहनि ते विभो ॥ १६ ॥
तस्यानु
शङ्खयवन मुराणां नरकस्य च ।
पारिजातापहरणं
इन्द्रस्य च पराजयम् ॥ १७ ॥
उद्वाहं
वीरकन्यानां वीर्यशुल्कादिलक्षणम् ।
नृगस्य
मोक्षणं शापाद् द्वारकायां जगत्पते ॥ १८ ॥
स्यमन्तकस्य
च मणेः आदानं सह भार्यया ।
मृतपुत्रप्रदानं
च ब्राह्मणस्य स्वधामतः ॥ १९ ॥
पौण्ड्रकस्य
वधं पश्चात् काशिपुर्याश्च दीपनम् ।
दन्तवक्रस्य
निधनं चैद्यस्य च महाक्रतौ ॥ २० ॥
यानि
चान्यानि वीर्याणि द्वारकामावसन् भवान् ।
कर्ता
द्रक्ष्याम्यहं तानि गेयानि कविभिर्भुवि ॥ २१ ॥
अथ
ते कालरूपस्य क्षपयिष्णोरमुष्य वै ।
अक्षौहिणीनां
निधनं द्रक्ष्याम्यर्जुनसारथेः ॥ २२ ॥
विशुद्धविज्ञानघनं
स्वसंस्थया
समाप्तसर्वार्थममोघवाञ्छितम्
।
स्वतेजसा
नित्यनिवृत्तमाया
गुणप्रवाहं
भगवन्तमीमहि ॥ २३ ॥
त्वामीश्वरं
स्वाश्रयमात्ममायया
विनिर्मिताशेषविशेषकल्पनम्
।
क्रीडार्थमद्यात्तमनुष्यविग्रहं
नतोऽस्मि
धुर्यं यदुवृष्णिसात्वताम् ॥ २४ ॥
परीक्षित्!
देवर्षि नारदजी भगवान् के परम प्रेमी और समस्त जीवोंके सच्चे हितैषी हैं। कंसके
यहाँसे लौटकर वे अनायास ही अद्भुत कर्म करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णके पास आये और
एकान्तमें उनसे कहने लगे—
॥ १० ॥ ‘सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आपका
स्वरूप मन और वाणीका विषय नहीं है। आप योगेश्वर हैं। सारे जगत्का नियन्त्रण आप ही
करते हैं। आप सबके हृदयमें निवास करते हैं और सब-के-सब आपके हृदयमें निवास करते
हैं। आप भक्तों के एकमात्र वाञ्छनीय, यदुवंश-शिरोमणि और
हमारे स्वामी हैं ॥ ११ ॥ जैसे एक ही अग्नि सभी लकडिय़ों में व्याप्त रहती है,
वैसे एक ही आप समस्त प्राणियोंके आत्मा हैं। आत्माके रूपमें होनेपर
भी आप अपनेको छिपाये रखते हैं; क्योंकि आप पञ्चकोशरूप
गुफाओंके भीतर रहते हैं। फिर भी पुरुषोत्तमके रूपमें, सबके
नियन्ताके रूपमें और सबके साक्षीके रूपमें आपका अनुभव होता ही है ॥ १२ ॥ प्रभो! आप
सबके अधिष्ठान और स्वयं अधिष्ठानरहित हैं। आपने सृष्टिके प्रारम्भमें अपनी मायासे
ही गुणोंकी सृष्टि की और उन गुणोंको ही स्वीकार करके आप जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करते रहते हैं। यह सब करनेके लिये आपको अपनेसे अतिरिक्त
और किसी भी वस्तुकी आवश्यकता नहीं है। क्योंकि आप सर्वशक्तिमान् और सत्यसंकल्प हैं
॥ १३ ॥ वही आप दैत्य, प्रमथ और राक्षसोंका, जिन्होंने आजकल राजाओंका वेष धारण कर रखा है, विनाश
करनेके लिये तथा धर्मकी मर्यादाओंकी रक्षा करनेके लिये यदुवंशमें अवतीर्ण हुए हैं
॥ १४ ॥ यह बड़े आनन्दकी बात है कि आपने खेल-ही-खेलमें घोड़ेके रूपमें रहनेवाले इस
केशी दैत्यको मार डाला। इसकी हिनहिनाहटसे डरकर देवतालोग अपना स्वर्ग छोडक़र भाग
जाया करते थे ॥ १५ ॥
प्रभो!
अब परसों मैं आपके हाथों चाणूर, मुष्टिक, दूसरे
पहलवान, कुवलयापीड हाथी और स्वयं कंसको भी मरते देखूँगा ॥ १६
॥ उसके बाद शङ्खासुर, कालयवन, मुर और
नरकासुरका वध देखूँगा। आप स्वर्गसे कल्पवृक्ष उखाड़ लायेंगे और इन्द्रके चीं-चपड़
करनेपर उनको उसका मजा चखायेंगे ॥ १७ ॥ आप अपनी कृपा, वीरता,
सौन्दर्य आदिका शुल्क देकर वीर-कन्याओंसे विवाह करेंगे, और जगदीश्वर! आप द्वारकामें रहते हुए नृगको पापसे छुड़ायेंगे ॥ १८ ॥ आप
जाम्बवतीके साथ स्यमन्तक मणिको जाम्बवान्से ले आयेंगे और अपने धामसे ब्राह्मणके
मरे हुए पुत्रोंको ला देंगे ॥ १९ ॥ इसके पश्चात् आप पौण्ड्रिक—मिथ्यावासुदेव का वध करेंगे। काशीपुरीको जला देंगे। युधिष्ठिरके
राजसूय-यज्ञमें चेदिराज शिशुपालको और वहाँसे लौटते समय उसके मौसेरे भाई
दन्तवक्त्रको नष्ट करेंगे ॥ २० ॥ प्रभो! द्वारकामें निवास करते समय आप और भी
बहुत-से पराक्रम प्रकट करेंगे, जिन्हें पृथ्वीके बड़े-बड़े
ज्ञानी और प्रतिभाशील पुरुष आगे चलकर गायेंगे। मैं वह सब देखूँगा ॥ २१ ॥ इसके बाद
आप पृथ्वीका भार उतारनेके लिये कालरूपसे अर्जुनके सारथि बनेंगे और अनेक अक्षौहिणी
सेनाका संहार करेंगे। यह सब मैं अपनी आँखोंसे देखूँगा ॥ २२ ॥
प्रभो!
आप विशुद्ध विज्ञानघन हैं। आपके स्वरूपमें और किसीका अस्तित्व है ही नहीं। आप
नित्य-निरन्तर अपने परमानन्दस्वरूपमें स्थित रहते हैं। इसलिये सारे पदार्थ आपको
नित्य प्राप्त ही हैं। आपका संकल्प अमोघ है। आपकी चिन्मयी शक्तिके सामने माया और
मायासे होनेवाला यह त्रिगुणमय संसार-चक्र नित्यनिवृत्त है—कभी हुआ ही नहीं। ऐसे आप अखण्ड, एकरस, सच्चिदानन्द- स्वरूप, निरतिशय ऐश्वर्यसम्पन्न भगवान्की
मैं शरण ग्रहण करता हूँ ॥ २३ ॥ आप सबके अन्तर्यामी और नियन्ता हैं। अपने-आपमें
स्थित, परम स्वतन्त्र हैं। जगत् और उसके अशेष-विशेषों—भाव- अभावरूप सारे भेद-विभेदों की कल्पना केवल आपकी माया से ही हुई है। इस
समय आपने अपनी लीला प्रकट करने के लिये मनुष्य का-सा श्रीविग्रह प्रकट किया है और
आप यदु,वृष्णि तथा सात्वतवंशियों के शिरोमणि बने हैं। प्रभो
! मैं आपको नमस्कार करता हूँ’ ॥२४॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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