॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
केशी
और व्योमासुर का उद्धार तथा नारदजी के द्वारा भगवान् की स्तुति
श्रीशुक
उवाच -
एवं
यदुपतिं कृष्णं भागवतप्रवरो मुनिः ।
प्रणिपत्याभ्यनुज्ञातो
ययौ तद्दर्शनोत्सवः ॥ २५ ॥
भगवानपि
गोविन्दो हत्वा केशिनमाहवे ।
पशूनपालयत्
पालैः प्रीतैर्व्रजसुखावहः ॥ २६ ॥
एकदा
ते पशून् पालाःन् चारयन्तोऽद्रिसानुषु ।
चक्रुर्निलायनक्रीडाः
चोरपालापदेशतः ॥ २७ ॥
तत्रासन्कतिचिच्चोराः
पालाश्च कतिचिन्नृप ।
मेषायिताश्च
तत्रैके विजह्रुरकुतोभयाः ॥ २८ ॥
मयपुत्रो
महामायो व्योमो गोपालवेषधृक् ।
मेषायितानपोवाह
प्रायश्चोरायितो बहून् ॥ २९ ॥
गिरिदर्यां
विनिक्षिप्य नीतं नीतं महासुरः ।
शिलया
पिदधे द्वारं चतुःपञ्चावशेषिताः ॥ ३० ॥
तस्य
तत्कर्म विज्ञाय कृष्णः शरणदः सताम् ।
गोपान्
नयन्तं जग्राह वृकं हरिरिवौजसा ॥ ३१ ॥
स
निजं रूपमास्थाय गिरीन्द्रसदृशं बली ।
इच्छन्
विमोक्तुमात्मानं नाशक्नोद् ग्रहणातुरः ॥ ३२ ॥
तं
निगृह्याच्युतो दोर्भ्यां पातयित्वा महीतले ।
पश्यतां
दिवि देवानां पशुमारममारयत् ॥ ३३ ॥
गुहापिधानं
निर्भिद्य गोपान् निःसार्य कृच्छ्रतः ।
स्तूयमानः
सुरैर्गोपैः प्रविवेश स्वगोकुलम् ॥ ३४ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! भगवान् के परमप्रेमी भक्त देवर्षि नारदजीने इस प्रकार
भगवान्की स्तुति और प्रणाम किया। भगवान् के दर्शनोंके आह्लाद से नारदजी का
रोम-रोम खिल उठा। तदनन्तर उनकी आज्ञा प्राप्त करके वे चले गये ॥ २५ ॥ इधर भगवान्
श्रीकृष्ण केशी को लड़ाईमें मारकर फिर अपने प्रेमी एवं प्रसन्नचित्त ग्वालबालोंके
साथ पूर्ववत् पशुपालनके काममें लग गये तथा व्रजवासियोंको परमानन्द वितरण करने लगे
॥ २६ ॥ एक समय वे सब ग्वालबाल पहाडक़ी चोटियोंपर गाय आदि पशुओंको चरा रहे थे तथा
कुछ चोर और कुछ रक्षक बनकर छिपने-छिपानेका—लुका-लुकीका खेल
खेल रहे थे ॥ २७ ॥ राजन् ! उन लोगोंमेंसे कुछ तो चोर और कुछ रक्षक तथा कुछ भेड़ बन
गये थे। इस प्रकार वे निर्भय होकर खेलमें रम गये थे ॥ २८ ॥ उसी समय ग्वालका वेष
धारण करके व्योमासुर वहाँ आया। वह मायावियोंके आचार्य मयासुरका पुत्र था और स्वयं
भी बड़ा मायावी था। वह खेलमें बहुधा चोर ही बनता और भेड़ बने हुए बहुत-से बालकोंको
चुराकर छिपा आता ॥ २९ ॥ वह महान् असुर बार-बार उन्हें ले जाकर एक पहाडक़ी गुफामें
डाल देता और उसका दरवाजा एक बड़ी चट्टानसे ढक देता। इस प्रकार ग्वालबालोंमें केवल
चार-पाँच बालक ही बच रहे ॥ ३० ॥ भक्तवत्सल भगवान् उसकी यह करतूत जान गये। जिस समय
वह ग्वालबालोंको लिये जा रहा था, उसी समय उन्होंने, जैसे सिंह भेडिय़ेको दबोच ले, उसी प्रकार उसे धर
दबाया ॥ ३१ ॥ व्योमासुर बड़ा बली था। उसने पहाडक़े समान अपना असली रूप प्रकट कर
दिया और चाहा कि अपनेको छुड़ा लूँ। परंतु भगवान्ने उसको इस प्रकार अपने शिकंजेमें
फाँस लिया था कि वह अपनेको छुड़ा न सका ॥ ३२ ॥ तब भगवान् श्रीकृष्णने अपने दोनों
हाथोंसे जकडक़र उसे भूमिपर गिरा दिया और पशुकी भाँति गला घोंटकर मार डाला। देवतालोग
विमानोंपर चढक़र उनकी यह लीला देख रहे थे ॥ ३३ ॥ अब भगवान् श्रीकृष्ण ने गुफाके
द्वारपर लगे हुए चट्टानोंके पिहान तोड़ डाले और ग्वालबालोंको उस संकटपूर्ण स्थानसे
निकाल लिया। बड़े-बड़े देवता और ग्वालबाल उनकी स्तुति करने लगे और भगवान्
श्रीकृष्ण व्रजमें चले आये ॥ ३४ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे
पूर्वार्धे व्योमासुरवधो नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३७ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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