श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
जरासन्ध से
युद्ध और द्वारकापुरी का निर्माण
श्रीशुक उवाच
जरासुतस्तावभिसृत्य माधवौ
महाबलौघेन बलीयसाऽऽवृणोत्
ससैन्ययानध्वजवाजिसारथी
सूर्यानलौ वायुरिवाभ्ररेणुभिः २१
सुपर्णतालध्वजचिह्नितौ रथाव्
अलक्षयन्त्यो हरिरामयोर्मृधे
स्त्रियः पुराट्टालकहर्म्यगोपुरं
समाश्रिताः सम्मुमुहुः शुचार्दितः २२
हरिः परानीकपयोमुचां मुहुः
शिलीमुखात्युल्बणवर्षपीडितम्
स्वसैन्यमालोक्य सुरासुरार्चितं
व्यस्फूर्जयच्छार्ङ्गशरासनोत्तमम् २३
गृह्णन्निशङ्गादथ सन्दधच्छरान्
विकृष्य मुञ्चन्शितबाणपूगान्
निघ्नन्रथान्कुञ्जरवाजिपत्तीन्
निरन्तरं यद्वदलातचक्रम् २४
निर्भिन्नकुम्भाः करिणो निपेतु-
रनेकशोऽश्वाः शरवृक्णकन्धराः
रथा हताश्वध्वजसूतनायकाः
पदायतश्छिन्नभुजोरुकन्धराः २५
सञ्छिद्यमानद्विपदेभवाजिना-
मङ्गप्रसूताः शतशोऽसृगापगाः
भुजाहयः पूरुषशीर्षकच्छपा
हतद्विपद्वीपहय ग्रहाकुलाः २६
करोरुमीना नरकेशशैवला
धनुस्तरङ्गायुधगुल्मसङ्कुलाः
अच्छूरिकावर्तभयानका महा-
मणिप्रवेकाभरणाश्मशर्कराः २७
प्रवर्तिता भीरुभयावहा मृधे
मनस्विनां हर्षकरीः परस्परम्
विनिघ्नतारीन्मुषलेन दुर्मदान्-
सङ्कर्षणेनापरीमेयतेजसा २८
बलं तदङ्गार्णवदुर्गभैरवं
दुरन्तपारं मगधेन्द्र पालितम्
क्षणं प्रणीतं वसुदेवपुत्रयो-
र्विक्रीडितं तज्जगदीशयो:परम् २९
स्थित्युद्भवान्तं भुवनत्रयस्य यः
समीहितेऽनन्तगुणः स्वलीलया
न तस्य चित्रं परपक्षनिग्रहस्
तथापि मर्त्यानुविधस्य वर्ण्यते ३०
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! जैसे वायु
बादलोंसे सूर्यको और धूएँसे आगको ढक लेती है, किन्तु
वास्तवमें वे ढकते नहीं, उनका प्रकाश फिर फैलता ही है;
वैसे ही मगधराज जरासन्धने भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामके सामने आकर
अपनी बहुत बड़ी बलवान् और अपार सेनाके द्वारा उन्हें चारों ओरसे घेर लिया—यहाँतक कि उनकी सेना, रथ, ध्वजा,
घोड़ों और सारथियोंका दीखना भी बंद हो गया ।। २१ ।। मथुरापुरीकी
स्त्रियाँ अपने महलोंकी अटारियों, छज्जों और फाटकोंपर चढक़र
युद्धका कौतुक देख रही थीं। जब उन्होंने देखा कि युद्ध भूमिमें भगवान्
श्रीकृष्णकी गरुड़चिह्नसे चिह्नित और बलरामजीकी तालचिह्नसे चिह्नित ध्वजावाले रथ
नहीं दीख रहे हैं, तब वे शोकके आवेगसे मूर्च्छित हो गयीं ।।
२२ ।। जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि शत्रु-सेनाके वीर हमारी सेनापर इस प्रकार
बाणोंकी वर्षा कर रहे हैं, मानो बादल पानीकी अनगिनत बूँदें
बरसा रहे हों और हमारी सेना उससे अत्यन्त पीडि़त, व्यथित हो
रही है; तब उन्होंने अपने देवता और असुर-दोनोंसे सम्मानित
शार्ङ्गधनुष का टङ्कार किया ।। २३ ।। इसके बाद वे तरकस में से बाण निकालने,
उन्हें धनुषपर चढ़ाने और धनुषकी डोरी खींचकर झुंड-के-झुंड बाण छोडऩे
लगे। उस समय उनका वह धनुष इतनी फुर्तीसे घूम रहा था, मानो
कोई बड़े वेगसे अलातचक्र (लुकारी) घुमा रहा हो। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण
जरासन्ध की चतुरङ्गिणी—हाथी, घोड़े,
रथ और पैदलसेनाका संहार करने लगे ।। २४ ।। इससे बहुत-से हाथियोंके
सिर फट गये और वे मर-मरकर गिरने लगे। बाणोंकी बौछारसे अनेकों घोड़ोंके सिर धड़से
अलग हो गये। घोड़े, ध्वजा, सारथि और
रथियोंके नष्ट हो जानेसे बहुत-से रथ बेकाम हो गये। पैदल सेनाकी बाँहें, जाँघ और सिर आदि अंग-प्रत्यङ्ग कट-कटकर गिर पड़े ।। २५ ।। उस युद्धमें
अपार तेजस्वी भगवान् बलरामजीने अपने मूसलकी चोटसे बहुत-से मतवाले शत्रुओंको
मार-मारकर उनके अङ्ग-प्रत्यङ्गसे निकले हुए खूनकी सैकड़ों नदियाँ बहा दीं। कहीं
मनुष्य कट रहे हैं तो कहीं हाथी और घोड़े छटपटा रहे हैं। उन नदियोंमें मनुष्योंकी
भुजाएँ साँपके समान जान पड़तीं और सिर इस प्रकार मालूम पड़ते, मानो कछुओंकी भीड़ लग गयी हो। मरे हुए हाथी दीप-जैसे और घोड़े ग्राहों के
समान जान पड़ते। हाथ और जाँघें मछलियोंकी तरह, मनुष्योंके
केश सेवारके समान, धनुष तरङ्गोंकी भाँति और अस्त्र-शस्त्र
लता एवं तिनकोंके समान जान पड़ते। ढालें ऐसी मालूम पड़तीं, मानो
भयानक भँवर हों। बहुमूल्य मणियाँ और आभूषण पत्थरके रोड़ों तथा कंकड़ोंके समान बहे
जा रहे थे। उन नदियोंको देखकर कायर पुरुष डर रहे थे और वीरोंका आपसमें खूब उत्साह
बढ़ रहा था ।। २६—२८ ।। परीक्षित् ! जरासन्धकी वह सेना
समुद्रके समान दुर्गम, भयावह और बड़ी कठिनाईसे जीतनेयोग्य
थी। परंतु भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने थोड़े ही समयमें उसे नष्ट कर डाला। वे
सारे जगत्के स्वामी हैं। उनके लिये एक सेनाका नाश कर देना केवल खिलवाड़ ही तो है
।। २९ ।। परीक्षित् ! भगवान्के गुण अनन्त हैं। वे खेल-खेलमें ही तीनों लोकोंकी
उत्पत्ति, स्थिति और संहार करते हैं। उनके लिये यह कोई बड़ी
बात नहीं है कि वे शत्रुओंकी सेनाका इस प्रकार बात-की-बातमें सत्यानाश कर दें।
तथापि जब वे मनुष्यका-सा वेष धारण करके मनुष्यकी-सी लीला करते हैं, तब उसका भी वर्णन किया ही जाता है ।। ३० ।।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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