गुरुवार, 27 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


जरासन्ध से युद्ध और द्वारकापुरी का निर्माण

 

श्रीशुक उवाच

अस्तिः प्राप्तिश्च कंसस्य महिष्यौ भरतर्षभ

मृते भर्तरि दुःखार्ते ईयतुः स्म पितुर्गृहान् १

पित्रे मगधराजाय जरासन्धाय दुःखिते

वेदयां चक्रतुः सर्वमात्मवैधव्यकारणम् २

स तदप्रियमाकर्ण्य शोकामर्षयुतो नृप

अयादवीं महीं कर्तुं चक्रे परममुद्यमम् ३

अक्षौहिणीभिर्विंशत्या तिसृभिश्चापि संवृतः

यदुराजधानीं मथुरां न्यरुधत्सर्वतो दिशम् ४

निरीक्ष्य तद्बलं कृष्ण उद्वेलमिव सागरम्

स्वपुरं तेन संरुद्धं स्वजनं च भयाकुलम् ५

चिन्तयामास भगवान्हरिः कारणमानुषः

तद्देशकालानुगुणं स्वावतारप्रयोजनम् ६

हनिष्यामि बलं ह्येतद्भुवि भारं समाहितम्

मागधेन समानीतं वश्यानां सर्वभूभुजाम् ७

अक्षौहिणीभिः सङ्ख्यातं भटाश्वरथकुञ्जरैः

मागधस्तु न हन्तव्यो भूयः कर्ता बलोद्यमम् ८

एतदर्थोऽवतारोऽयं भूभारहरणाय मे

संरक्षणाय साधूनां कृतोऽन्येषां वधाय च ९

अन्योऽपि धर्मरक्षायै देहः संभ्रियते मया

विरामायाप्यधर्मस्य काले प्रभवतः क्वचित् १०

एवं ध्यायति गोविन्द आकाशात्सूर्यवर्चसौ

रथावुपस्थितौ सद्यः ससूतौ सपरिच्छदौ ११

आयुधानि च दिव्यानि पुराणानि यदृच्छया

दृष्ट्वा तानि हृषीकेशः सङ्कर्षणमथाब्रवीत् १२

पश्यार्य व्यसनं प्राप्तं यदूनां त्वावतां प्रभो

एष ते रथ आयातो दयितान्यायुधानि च १३

यानमास्थाय जह्येतद् व्यसनात् स्वान् समुद्धर

एतदर्थं हि नौ जन्म साधूनामीश शर्मकृत् १४

त्रयोविंशत्यनीकाख्यं भूमेर्भारमपाकुरु

एवं सम्मन्त्र्य दाशार्हौ दंशितौ रथिनौ पुरात् १५

निर्जग्मतुः स्वायुधाढ्य बलेनाल्पीयसाssवृतौ

शङ्खं दध्मौ विनिर्गत्य हरिर्दारुकसारथिः१६

ततोऽभूत्परसैन्यानां हृदि वित्रासवेपथुः

तावाह मागधो वीक्ष्य हे कृष्ण पुरुषाधम १७

न त्वया योद्धुमिच्छामि बालेनैकेन लज्जया

गुप्तेन हि त्वया मन्द न योत्स्ये याहि बन्धुहन् १८

तव राम यदि श्रद्धा युध्यस्व धैर्यमुद्वह्

हित्वा वा मच्छरैश्छिन्नं देहं स्वर्याहि मां जहि १९

 

श्रीभगवानुवाच

न वै शूरा विकत्थन्ते दर्शयन्त्येव पौरुषम्

न गृह्णीमो वचो राजन्नातुरस्य मुमूर्षतः २०

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंभरतवंशशिरोमणि परीक्षित्‌ ! कंसकी दो रानियाँ थींअस्ति और प्राप्ति। पतिकी मृत्युसे उन्हें बड़ा दु:ख हुआ और वे अपने पिताकी राजधानीमें चली गयीं ।। १ ।। उन दोनोंका पिता था मगधराज जरासन्ध। उससे उन्होंने बड़े दु:खके साथ अपने विधवा होनेके कारणोंका वर्णन किया ।। २ ।। परीक्षित्‌ ! यह अप्रिय समाचार सुनकर पहले तो जरासन्धको बड़ा शोक हुआ, परंतु पीछे वह क्रोध से तिलमिला उठा। उसने यह निश्चय करके कि मैं पृथ्वीपर एक भी यदुवंशी नहीं रहने दूँगा, युद्ध की बहुत बड़ी तैयारी की ।। ३ ।। और तेईस अक्षौहिणी सेना के साथ यदुवंशियों की राजधानी मथुरा को चारों ओर से घेर लिया ।। ४ ।।

 भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखाजरासन्धकी सेना क्या है, उमड़ता हुआ समुद्र है। उन्होंने यह भी देखा कि उसने चारों ओरसे हमारी राजधानी घेर ली है और हमारे स्वजन तथा पुरवासी भयभीत हो रहे हैं ।। ५ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ही मनुष्यका-सा वेष धारण किये हुए हैं। अब उन्होंने विचार किया कि मेरे अवतारका क्या प्रयोजन है और इस समय इस स्थानपर मुझे क्या करना चाहिये ।। ६ ।। उन्होंने सोचा यह बड़ा अच्छा हुआ कि मगधराज जरासन्धने अपने अधीनस्थ नरपतियोंकी पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथियोंसे युक्त कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी कर ली है। यह सब तो पृथ्वीका भार ही जुटकर मेरे पास आ पहुँचा है। मैं इसका नाश करूँगा। परंतु अभी मगधराज जरासन्धको नहीं मारना चाहिये। क्योंकि वह जीवित रहेगा तो फिरसे असुरोंकी बहुत-सी सेना इकट्ठी कर लायेगा ।। ७-८ ।। मेरे अवतारका यही प्रयोजन है कि मैं पृथ्वीका बोझ हलका कर दूँ, साधु-सज्जनोंकी रक्षा करूँ और दुष्ट-दुर्जनोंका संहार ।। ९ ।। समयसमयपर धर्म-रक्षाके लिये और बढ़ते हुए अधर्मको रोकनेके लिये मैं और भी अनेकों शरीर ग्रहण करता हूँ ।। १० ।।

 परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि आकाशसे सूर्यके समान चमकते हुए दो रथ आ पहुँचे। उनमें युद्धकी सारी सामग्रियाँ सुसज्जित थीं और दो सारथि उन्हें हाँक रहे थे ।। ११ ।। इसी समय भगवान्‌के दिव्य और सनातन आयुध भी अपने आप वहाँ आकर उपस्थित हो गये। उन्हें देखकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने बड़े भाई बलरामजीसे कहा।। १२ ।। भाईजी ! आप बड़े शक्तिशाली हैं। इस समय जो यदुवंशी आपको ही अपना स्वामी और रक्षक मानते हैं, जो आपसे ही सनाथ हैं, उनपर बहुत बड़ी विपत्ति आ पड़ी है। देखिये, यह आपका रथ है और आपके प्यारे आयुध हल-मूसल भी आ पहुँचे हैं ।। १३ ।। अब आप इस रथपर सवार होकर शत्रु-सेनाका संहार कीजिये और अपने स्वजनोंको इस विपत्तिसे बचाइये। भगवन् ! साधुओंका कल्याण करनेके लिये ही हम दोनोंने अवतार ग्रहण किया है ।। १४ ।। अत: अब आप यह तेईस अक्षौहिणी सेना, पृथ्वीका यह विपुल भार नष्ट कीजिये।भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीने यह सलाह करके कवच धारण किये और रथपर सवार होकर वे मथुरासे निकले। उस समय दोनों भाई अपने-अपने आयुध लिये हुए थे और छोटी-सी सेना उनके साथ-साथ चल रही थी। श्रीकृष्णका रथ हाँक रहा था दारुक। पुरीसे बाहर निकलकर उन्होंने अपना पाञ्चजन्य शङ्ख बजाया ।। १५-१६ ।। उनके शङ्ख की भयङ्कर ध्वनि सुनकर शत्रुपक्षकी सेनाके वीरोंका हृदय डरके मारे थर्रा उठा। उन्हें देखकर मगधराज जरासन्धने कहा—‘पुरुषाधम कृष्ण ! तू तो अभी निरा बच्चा है। अकेले तेरे साथ लडऩेमें मुझे लाज लग रही है। इतने दिनोंतक तू न जाने कहाँ-कहाँ छिपा फिरता था। मन्द ! तू तो अपने मामाका हत्यारा है। इसलिये मैं तेरे साथ नहीं लड़ सकता। जा, मेरे सामनेसे भाग जा ।। १७-१८ ।। बलराम यदि तेरे चित्तमें यह श्रद्धा हो कि युद्धमें मरनेपर स्वर्ग मिलता है तो तू आ हिम्मत बाँधकर मुझसे लड़। मेरे बाणोंसे छिन्न-भिन्न हुए शरीरको यहाँ छोडक़र स्वर्गमें जा, अथवा यदि तुझमें शक्ति हो तो मुझे ही मार डाल।। १९ ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहामगधराज ! जो शूरवीर होते हैं, वे तुम्हारी तरह डींग नहीं हाँकते, वे तो अपना बल-पौरुष ही दिखलाते हैं। देखो, अब तुम्हारी मृत्यु तुम्हारे सिरपर नाच रही है। तुम वैसे ही अकबक कर रहे हो, जैसे मरनेके समय कोई सन्निपातका रोगी करे। बक लो, मैं तुम्हारी बातपर ध्यान नहीं देता ।। २० ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...