॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
कालयवन का भस्म होना, मुचुकुन्द की कथा
श्रीशुक उवाच
तं विलोक्य विनिष्क्रान्तमुज्जिहानमिवोडुपम्
दर्शनीयतमं श्यामं पीतकौशेयवाससम् १
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभामुक्तकन्धरम्
पृथुदीर्घचतुर्बाहुं नवकञ्जारुणेक्षणम् २
नित्यप्रमुदितं श्रीमत्सुकपोलं शुचिस्मितम्
मुखारविन्दं बिभ्राणं स्फुरन्मकरकुण्डलम् ३
वासुदेवो ह्ययमिति पुमान्श्रीवत्सलाञ्छनः
चतुर्भुजोऽरविन्दाक्षो वनमाल्यतिसुन्दरः ४
लक्षणैर्नारदप्रोक्तैर्नान्यो भवितुमर्हति
निरायुधश्चलन्पद्भ्यां योत्स्येऽनेन निरायुधः ५
इति निश्चित्य यवनः प्राद्रवन्तं पराङ्मुखम्
अन्वधावज्जिघृक्षुस्तं दुरापमपि योगिनाम् ६
हस्तप्राप्तमिवात्मानं हरिणा स पदे पदे
नीतो दर्शयता दूरं यवनेशोऽद्रिकन्दरम् ७
पलायनं यदुकुले जातस्य तव नोचितम्
इति क्षिपन्ननुगतो नैनं प्रापाहताशुभः ८
एवं क्षिप्तोऽपि भगवान्प्राविशद्गिरिकन्दरम्
सोऽपि प्रविष्टस्तत्रान्यं शयानं ददृशे नरम् ९
नन्वसौ दूरमानीय शेते मामिह साधुवत्
इति मत्वाच्युतं मूढस्तं पदा समताडयत् १०
स उत्थाय चिरं सुप्तः शनैरुन्मील्य लोचने
दिशो विलोकयन्पार्श्वे तमद्राक्षीदवस्थितम् ११
स तावत्तस्य रुष्टस्य दृष्टिपातेन भारत
देहजेनाग्निना दग्धो भस्मसादभवत्क्षणात् १२
श्रीराजोवाच
को नाम स पुमान्ब्रह्मन्कस्य किं वीर्य एव च
कस्माद्गुहां गतः शिष्ये किं तेजो यवनार्दनः १३
श्रीशुक उवाच
स इक्ष्वाकुकुले जातो मान्धातृतनयो महान्
मुचुकुन्द इति ख्यातो ब्रह्मण्यः सत्यसङ्गरः १४
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- प्रिय परीक्षित! जिस समय भगवान
श्रीकृष्ण मथुरा नगर के मुख्य द्वार से निकले, उस समय ऐसा मालूम पड़ा मानो पूर्व दिशा से चंद्रोदय हो रहा हो। उनका
श्यामल शरीर अत्यन्त ही दर्शनीय था, उस पर रेशमी पीताम्बर की
छटा निराली ही थी; वक्षःस्थल पर स्वर्ण रेखा के रूप में
श्रीवत्स चिह्न शोभा पा रहा था और गले में कौस्तुभ मणि जगमगा रही थी। चार भुजाएँ
थीं, जो लम्बी-लम्बी और कुछ मोटी-मोटी थीं। हाल के खिले हुए
कमल के समान कोमल और रतनारे नेत्र थे। मुखकमल पर राशि-राशि आनन्द खेल रहा था।
कपोलों की छटा निराली हो रही थी। मन्द-मन्द मुस्कान देखने वालों का मन चुराये लेती
थी। कानों में मकराकृत कुण्डल झिलमिल-झिलमिल झलक रहे थे। उन्हें देखकर कालयवन ने
निश्चय किया कि ‘यही पुरुष वासुदेव है। क्योंकि नारद जी ने जो-जो लक्षण बतलाये थे-
वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न, चार भुजाएँ, कमल के से नेत्र, गले में वनमाला और सुन्दरता की
सीमा; वे सब इसमें मिल रहे हैं। इसलिये यह कोई दूसरा नहीं हो
सकता। इस समय यह बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के पैदल ही इस ओर चला आ रहा है, इसलिये मैं भी इसके साथ बिना अस्त्र-शस्त्र के ही लडूँगा।'
ऐसा निश्चय करके जब कालयवन भगवान श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा, तब वे दूसरी ओर मुँह करके रणभूमि से भाग चले और उन योगिदुर्लभ
प्रभु को पकड़ने के लिये कालयवन उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। रणछोड़ भगवान लीला
करते हुए भाग रहे थे; कालयवन पग-पग पर यही समझता था कि अब
पकड़ा, तब पकड़ा। इस प्रकार भगवान उसे बहुत दूर एक पहाड़ की
गुफ़ा में ले गये। कालयवन पीछे से बार-बार आक्षेप करता कि ‘अरे भाई! तुम परम
यशस्वी यदुवंश में पैदा हुए हो, तुम्हारा इस प्रकार युद्ध
छोड़कर भागना उचित नहीं है।’ परन्तु अभी उसके अशुभ निःशेष नहीं हुए थे, इसलिये वह भगवान को पाने में समर्थ न ओ सका। उसके आक्षेप करते रहने पर भी
भगवान उस पर्वत की गुफा में घुस गये। उनके पीछे कालयवन भी घुसा। वहाँ उसने एक
दूसरे ही मनुष्य को सोते हुए देखा। उसे देखकर कालयवन ने सोचा ‘देखो तो सही,
यह मुझे इस प्रकार इतनी दूर ले आया और अब इस तरह- मानो इसे कुछ पता
ही न हो- साधु बाबा बनकर सो रहा है।’ यह सोचकर उस मूढ़ ने उसे कसकर एक लात मारी।
वह पुरुष वहाँ बहुत दिनों से सोया हुआ था। पैर की ठोकर लगने से वह उठ पड़ा और
धीरे-धीरे उसने अपनी आँखें खोलीं। इधर-उधर देखने पर पास ही कालयवन खड़ा हुआ दिखायी
दिया।
राजा परीक्षित ने पूछा- भगवन! जिसके दृष्टिपात मात्र से
कालयवन जलकर भस्म हो गया, वह पुरुष कौन था? किस
वंश का था? उसमें कैसी शक्ति थी और वह किसका पुत्र था?
आप कृपा करके यह भी बतलाइये कि वह पर्वत की गुफ़ा में जाकर क्यों सो
रहा था?
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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