॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
कालयवन का भस्म होना, मुचुकुन्द की कथा
स याचितः सुरगणैरिन्द्राद्यैरात्मरक्षणे
असुरेभ्यः परित्रस्तैस्तद्रक्षां सोऽकरोच्चिरम् १५
लब्ध्वा गुहं ते स्वःपालं मुचुकुन्दमथाब्रुवन्
राजन्विरमतां कृच्छ्राद्भवान्नः परिपालनात् १६
नरलोकं परित्यज्य राज्यं निहतकण्टकम्
अस्मान्पालयतो वीर कामास्ते सर्व उज्झिताः १७
सुता महिष्यो भवतो ज्ञातयोऽमात्यमन्त्रिणः
प्रजाश्च तुल्यकालीना नाधुना सन्ति कालिताः १८
कालो बलीयान्बलिनां भगवानीश्वरोऽव्ययः
प्रजाः कालयते क्रीडन्पशुपालो यथा पशून् १९
वरं वृणीष्व भद्रं ते ऋते कैवल्यमद्य नः
एक एवेश्वरस्तस्य भगवान्विष्णुरव्ययः २०
एवमुक्तः स वै देवानभिवन्द्य महायशाः
अशयिष्ट गुहाविष्टो निद्रया देवदत्तया २१
स्वापं यातं यस्तु मध्ये बोधयेत्त्वामचेतन:
स त्वयादृष्टमात्रस्तु भस्मी भवतु तत्क्षणात् २२
यवने भस्मसान्नीते भगवान्सात्वतर्षभः
आत्मानं दर्शयामास मुचुकुन्दाय धीमते २३
तमालोक्य घनश्यामं पीतकौशेयवाससम्
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभेन विराजितम् २४
चतुर्भुजं रोचमानं वैजयन्त्या च मालया
चारुप्रसन्नवदनं स्फुरन्मकरकुण्डलम् २५
प्रेक्षणीयं नृलोकस्य सानुरागस्मितेक्षणम्
अपीच्यवयसं मत्तमृगेन्द्रोदारविक्रमम् २६
पर्यपृच्छन्महाबुद्धिस्तेजसा तस्य धर्षितः
शङ्कितः शनकै राजा दुर्धर्षमिव तेजसा २७
श्रीमुचुकुन्द उवाच
को भवानिह सम्प्राप्तो विपिने गिरिगह्वरे
पद्भ्यां पद्मपलाशाभ्यां विचरस्युरुकण्टके २८
किं स्वित्तेजस्विनां तेजो भगवान्वा विभावसुः
सूर्यः सोमो महेन्द्रो वा लोकपालो परोऽपि वा २९
मन्ये त्वां देवदेवानां त्रयाणां पुरुषर्षभम्
यद्बाधसे गुहाध्वान्तं प्रदीपः प्रभया यथा ३०
एक बार इन्द्र आदि देवता असुरों से अत्यन्त भयभीत हो गये
थे। उन्होंने अपनी रक्षा के लिये राजा मुचुकुन्द से प्रार्थना की और उन्होंने बहुत
दिनों तक उनकी रक्षा की। जब बहुत दिनों के बाद देवताओं को सेनापति के रूप में
स्वामी कार्तिकेय मिल गये, तब उन लोगों ने राजा मुचुकुन्द से कहा- ‘राजन!
आपने हम लोगों की रक्षा के लिये बहुत श्रम और कष्ट उठाया है। अब आप विश्राम
कीजिये। वीर शिरोमणे! आपने हमारी रक्षा के लिये मनुष्य लोक का अपना अकण्टक राज्य
छोड़ दिया और जीवन की अभिलाषाएँ तथा भोगों का भी परित्याग कर दिया। अब आपके पुत्र,
रानियाँ, बन्धु-बान्धव और अमात्य-मन्त्री तथा
आपके समय की प्रजा में से कोई नहीं रहा है। सब-के-सब काल के गाल में चले गये। काल
समस्त बलवानों से भी बलवान है। वह स्वयं परम समर्थ अविनाशी और भगवत्स्वरूप है।
जैसे ग्वाले पशुओं को अपने वश में रखते हैं, वैसे ही वह
खेल-खेल में सारी प्रजा को अपने अधीन रखता है।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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