सोमवार, 10 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

अक्रूरजी के द्वारा भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति

 

श्रीअक्रूर उवाच -

नतोऽस्म्यहं त्वाखिलहेतुहेतुं

नारायणं पूरुषमाद्यमव्ययम् ।

यन्नाभिजातादरविन्दकोषाद्

ब्रह्माऽऽविरासीद् यत एष लोकः ॥ १ ॥

भूस्तोयमग्निः पवनं खमादिः

महानजादिर्मन इन्द्रियाणि ।

सर्वेन्द्रियार्था विबुधाश्च सर्वे

ये हेतवस्ते जगतोऽङ्‌गभूताः ॥ २ ॥

नैते स्वरूपं विदुरात्मनस्ते

ह्यजादयोऽनात्मतया गृहीताः ।

अजोऽनुबद्धः स गुणैरजाया

गुणात् परं वेद न ते स्वरूपम् ॥ ३ ॥

त्वां योगिनो यजन्त्यद्धा महापुरुषमीश्वरम् ।

साध्यात्मं साधिभूतं च साधिदैवं च साधवः ॥ ४ ॥

त्रय्या च विद्यया केचित् त्वां वै वैतानिका द्विजाः ।

यजन्ते विततैर्यज्ञैः नानारूपामराख्यया ॥ ५ ॥

एके त्वाखिलकर्माणि सन्न्यस्योपशमं गताः ।

ज्ञानिनो ज्ञानयज्ञेन यजन्ति ज्ञानविग्रहम् ॥ ६ ॥

अन्ये च संस्कृतात्मानो विधिनाभिहितेन ते ।

यजन्ति त्वन्मयास्त्वां वै बहुमूर्त्येकमूर्तिकम् ॥ ७ ॥

त्वामेवान्ये शिवोक्तेन मार्गेण शिवरूपिणम् ।

बह्वाचार्यविभेदेन भगवन् समुपासते ॥ ८ ॥

सर्व एव यजन्ति त्वां सर्वदेवमयेश्वरम् ।

येऽप्यन्यदेवताभक्ता यद्यप्यन्यधियः प्रभो ॥ ९ ॥

यथाद्रिप्रभवा नद्यः पर्जन्यापूरिताः प्रभो ।

विशन्ति सर्वतः सिन्धुं तद्वत्त्वां गतयोऽन्ततः ॥ १० ॥

 

अक्रूरजी बोलेप्रभो ! आप प्रकृति आदि समस्त कारणोंके परम कारण हैं। आप ही अविनाशी पुरुषोत्तम नारायण हैं तथा आपके ही नाभिकमलसे उन ब्रह्माजीका आविर्भाव हुआ है, जिन्होंने इस चराचर जगत् की सृष्टि की है। मैं आपके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥ पृथ्वी, जल, अग्रि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व, प्रकृति, पुरुष, मन, इन्द्रिय, सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषय और उनके अधिष्ठातृदेवतायही सब चराचर जगत् तथा उसके व्यवहारके कारण हैं और ये सब के-सब आपके ही अङ्गस्वरूप हैं ॥ २ ॥ प्रकृति और प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले समस्त पदार्थ इदंवृत्तिके द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, इसलिये ये सब अनात्मा हैं। अनात्मा होनेके कारण जड़ हैं और इसलिये आपका स्वरूप नहीं जान सकते। क्योंकि आप तो स्वयं आत्मा ही ठहरे। ब्रह्माजी अवश्य ही आपके स्वरूप हैं। परंतु वे प्रकृतिके गुण रजस्से युक्त हैं, इसलिये वे भी आपकी प्रकृतिका और उसके गुणोंसे परेका स्वरूप नहीं जानते ॥ ३ ॥ साधु योगी स्वयं अपने अन्त:करण में स्थित अन्तर्यामीके रूपमें, समस्त भूत-भौतिक पदार्थोंमें व्याप्त परमात्माकेरूपमें और सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि देवमण्डलमें स्थित इष्टदेवताके रूपमें तथा उनके साक्षी महापुरुष एवं नियन्ता ईश्वरके रूपमें साक्षात् आपकी ही उपासना करते हैं ॥ ४ ॥ बहुत-से कर्मकाण्डी ब्राह्मण कर्ममार्गका उपदेश करनेवाली त्रयीविद्याके द्वारा, जो आपके इन्द्र, अग्नि आदि अनेक देववाचक नाम तथा वज्रहस्त, सप्तार्चि आदि अनेक रूप बतलाती है, बड़े-बड़े यज्ञ करते हैं और उनसे आपकी ही उपासना करते हैं ॥ ५ ॥ बहुत-से ज्ञानी अपने समस्त कर्मोंका संन्यास कर देते हैं और शान्तभावमें स्थित हो जाते हैं। वे इस प्रकार ज्ञानयज्ञके द्वारा ज्ञानस्वरूप आपकी ही आराधना करते हैं ॥ ६ ॥ और भी बहुत-से संस्कारसम्पन्न अथवा शुद्धचित्त वैष्णवजन आपकी बतलायी हुई पाञ्चरात्र आदि विधियोंसे तन्मय होकर आपके चतुव्र्यूह आदि अनेक और नारायणरूप एक स्वरूपकी पूजा करते हैं ॥ ७ ॥ भगवन् ! दूसरे लोग शिवजीके द्वारा बतलाये हुए मार्गसे, जिसके आचार्य-भेदसे अनेक अवान्तर-भेद भी हैं, शिवस्वरूप आपकी ही पूजा करते हैं ॥ ८ ॥ स्वामिन् ! जो लोग दूसरे देवताओंकी भक्ति करते हैं और उन्हें आपसे भिन्न समझते हैं, वे सब भी वास्तवमें आपकी ही आराधना करते हैं; क्योंकि आप ही समस्त देवताओंके रूपमें हैं और सर्वेश्वर भी हैं ॥ ९ ॥ प्रभो ! जैसे पर्वतोंसे सब ओर बहुत-सी नदियाँ निकलती हैं और वर्षाके जलसे भरकर घूमती-घामती समुद्रमें प्रवेश कर जाती हैं, वैसे ही सभी प्रकारके उपासना-मार्ग घूम-घामकर देर-सबेर आपके ही पास पहुँच जाते हैं ॥ १० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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