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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
अक्रूरजी
के द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
सत्त्वं
रजस्तम इति भवतः प्रकृतेर्गुणाः ।
तेषु
हि प्राकृताः प्रोता आब्रह्मस्थावरादयः ॥ ११ ॥
तुभ्यं
नमस्तेऽस्त्वविषक्तदृष्टये
सर्वात्मने
सर्वधियां च साक्षिणे ।
गुणप्रवाहोऽयमविद्यया
कृतः
प्रवर्तते
देवनृतिर्यगात्मसु ॥ १२ ॥
अग्निर्मुखं
तेऽवनिरङ्घ्रिरीक्षणं
सूर्यो
नभो नाभिरथो दिशः श्रुतिः ।
द्यौः
कं सुरेन्द्रास्तव बाहवोऽर्णवाः
कुक्षिर्मरुत्
प्राणबलं प्रकल्पितम् ॥ १३ ॥
रोमाणि
वृक्षौषधयः शिरोरुहा ।
मेघाः
परस्यास्थिनखानि तेऽद्रयः ।
निमेषणं
रात्र्यहनी प्रजापतिः
मेढ्रस्तु
वृष्टिस्तव वीर्यमिष्यते ॥ १४ ॥
त्वय्यव्ययात्मन्
पुरुषे प्रकल्पिता
लोकाः
सपाला बहुजीवसङ्कुलाः ।
यथा
जले सञ्जिहते जलौकसो
ऽप्युदुम्बरे
वा मशका मनोमये ॥ १५ ॥
यानि
यानीह रूपाणि क्रीडनार्थं बिभर्षि हि ।
तैरामृष्टशुचो
लोका मुदा गायन्ति ते यशः ॥ १६ ॥
नमः
कारणमत्स्याय प्रलयाब्धिचराय च ।
हयशीर्ष्णे
नमस्तुभ्यं मधुकैटभमृत्यवे ॥ १७ ॥
अकूपाराय
बृहते नमो मन्दरधारिणे ।
क्षित्युद्धारविहाराय
नमः सूकरमूर्तये ॥ १८ ॥
नमस्तेऽद्भुतसिंहाय
साधुलोकभयापह ।
वामनाय
नमस्तुभ्यं क्रान्तत्रिभुवनाय च ॥ १९ ॥
नमो
भृगूणां पतये दृप्तक्षत्रवनच्छिदे ।
नमस्ते
रघुवर्याय रावणान्तकराय च ॥ २० ॥
नमस्ते
वासुदेवाय नमः सङ्कर्षणाय च ।
प्रद्युम्नायनिरुद्धाय
सात्वतां पतये नमः ॥ २१ ॥
नमो
बुद्धाय शुद्धाय दैत्यदानवमोहिने ।
म्लेच्छप्रायक्षत्रहन्त्रे
नमस्ते कल्किरूपिणे ॥ २२ ॥
प्रभो
! आपकी प्रकृतिके तीन गुण हैं—सत्त्व, रज
और तम। ब्रह्मासे लेकर स्थावरपर्यन्त सम्पूर्ण चराचर जीव प्राकृत हैं और जैसे
वस्त्र सूत्रोंसे ओतप्रोत रहते हैं, वैसे ही ये सब प्रकृतिके
उन गुणोंसे ही ओतप्रोत हैं ॥ ११ ॥ परंतु आप सर्वस्वरूप होनेपर भी उनके साथ लिप्त
नहीं हैं। आपकी दृष्टि निॢलप्त है, क्योंकि आप समस्त
वृत्तियोंके साक्षी हैं। यह गुणोंके प्रवाहसे होनेवाली सृष्टि अज्ञानमूलक है और वह
देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि समस्त
योनियोंमें व्याप्त है; परंतु आप उससे सर्वथा अलग हैं।
इसलिये मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ १२ ॥ अग्रि आपका मुख है। पृथ्वी चरण है। सूर्य
और चन्द्रमा नेत्र हैं। आकाश नाभि है, दिशाएँ कान हैं।
स्वर्ग सिर है। देवेन्द्रगण भुजाएँ हैं। समुद्र कोख है और यह वायु ही आपकी
प्राणशक्तिके रूपमें उपासनाके लिये कल्पित हुई है ॥ १३ ॥ वृक्ष और ओषधियाँ रोम
हैं। मेघ सिरके केश हैं। पर्वत आपके अस्थिसमूह और नख हैं। दिन और रात पलकोंका
खोलना और मीचना है। प्रजापति जननेन्द्रिय हैं और वृष्टि ही आपका वीर्य है ॥ १४ ॥
अविनाशी भगवन् ! जैसे जलमें बहुत-से जलचर जीव और गूलरके फलोंमें नन्हें-नन्हें कीट
रहते हैं, उसी प्रकार उपासनाके लिये स्वीकृत आपके मनोमय
पुरुषरूपमें अनेक प्रकारके जीव-जन्तुओंसे भरे हुए लोक और उनके लोकपाल कल्पित किये
गये हैं ॥ १५ ॥ प्रभो ! आप क्रीडा करनेके लिये पृथ्वीपर जो-जो रूप धारण करते हैं,
वे सब अवतार लोगोंके शोक-मोहको धो-बहा देते हैं और फिर सब लोग बड़े आनन्दसे
आपके निर्मल यशका गान करते हैं ॥ १६ ॥ प्रभो ! आपने वेदों, ऋषियों,
ओषधियों और सत्यव्रत आदिकी रक्षा-दीक्षाके लिये मत्स्यरूप धारण किया
था और प्रलयके समुद्रमें स्वच्छन्द विहार किया था। आपके मत्स्यरूपको मैं नमस्कार
करता हूँ। आपने ही मधु और कैटभ नामके असुरोंका संहार करनेके लिये हयग्रीव- अवतार
ग्रहण किया था। मैं आपके उस रूपको भी नमस्कार करता हूँ ॥ १७ ॥ आपने ही वह विशाल
कच्छपरूप ग्रहण करके मन्दराचलको धारण किया था, आपको मैं
नमस्कार करता हूँ। आपने ही पृथ्वीके उद्धारकी लीला करनेके लिये वराहरूप स्वीकार
किया था, आपको मेरे बार-बार नमस्कार ॥ १८ ॥ प्रह्लाद-जैसे
साधुजनोंका भय मिटानेवाले प्रभो ! आपके उस अलौकिक नृसिंह- रूपको मैं नमस्कार करता
हूँ। आपने वामनरूप ग्रहण करके अपने पगोंसे तीनों लोक नाप लिये थे, आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १९ ॥ धर्मका उल्लङ्घन करनेवाले घमंडी क्षत्रियोंके
वनका छेदन कर देनेके लिये आपने भृगुपति परशुरामरूप ग्रहण किया था। मैं आपके उस
रूपको नमस्कार करता हूँ। रावणका नाश करनेके लिये आपने रघुवंशमें भगवान् रामके
रूपसे अवतार ग्रहण किया था। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ २० ॥ वैष्णवजनों तथा
यदुवंशियोंका पालन- पोषण करनेके लिये आपने ही अपनेको वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्र और अनिरुद्ध—इस चतुव्र्यूहके रूपमें प्रकट किया है। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ
॥ २१ ॥ दैत्य और दानवोंको मोहित करनेके लिये आप शुद्ध अहिंसामार्गके प्रवर्तक
बुद्धका रूप ग्रहण करेंगे। मैं आपको नमस्कार करता हूँ और पृथ्वीके क्षत्रिय जब
म्लेच्छप्राय हो जायँगे, तब उनका नाश करनेके लिये आप ही
कल्किके रूपमें अवतीर्ण होंगे। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ २२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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