॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
अक्रूरजी
के द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
भगवन्
जीवलोकोऽयं मोहितस्तव मायया ।
अहं
ममेत्यसद्ग्राहो भ्राम्यते कर्मवर्त्मसु ॥ २३ ॥
अहं
चात्मात्मजागार दारार्थस्वजनादिषु ।
भ्रमामि
स्वप्नकल्पेषु मूढः सत्यधिया विभो ॥ २४ ॥
अनित्यानात्मदुःखेषु
विपर्ययमतिर्ह्यहम् ।
द्वन्द्वारामस्तमोविष्टो
न जाने त्वात्मनः प्रियम् ॥ २५ ॥
यथाबुधो
जलं हित्वा प्रतिच्छन्नं तदुद्भवैः ।
अभ्येति
मृगतृष्णां वै तद्वत्त्वाहं पराङ्मुखः ॥ २६ ॥
नोत्सहेऽहं
कृपणधीः कामकर्महतं मनः ।
रोद्धुं
प्रमाथिभिश्चाक्षैः ह्रियमाणमितस्ततः ॥ २७ ॥
सोऽहं
तवाङ्घ्र्युपगतोऽस्म्यसतां दुरापं
तच्चाप्यहं
भवदनुग्रह ईश मन्ये ।
पुंसो
भवेद् यर्हि संसरणापवर्गः
त्वय्यब्जनाभ
सदुपासनया मतिः स्यात् ॥ २८ ॥
नमो
विज्ञानमात्राय सर्वप्रत्ययहेतवे ।
पुरुषेशप्रधानाय
ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये ॥ २९ ॥
नमस्ते
वासुदेवाय सर्वभूतक्षयाय च ।
हृषीकेश
नमस्तुभ्यं प्रपन्नं पाहि मां प्रभो ॥ ३० ॥
भगवन्
! ये सब-के-सब जीव आपकी मायासे मोहित हो रहे हैं और इस मोहके कारण ही ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ इस झूठे दुराग्रहमें
फँसकर कर्मके मार्गोंमें भटक रहे हैं ॥ २३ ॥ मेरे स्वामी ! इसी प्रकार मैं भी
स्वप्नमें दीखनेवाले पदार्थोंके समान झूठे देह-गेह, पत्नी-पुत्र
और धन- स्वजन आदिको सत्य समझकर उन्हींके मोहमें फँस रहा हूँ और भटक रहा हूँ ॥ २४ ॥
मेरी
मूर्खता तो देखिये,
प्रभो ! मैंने अनित्य वस्तुओंको नित्य, अनात्माको
आत्मा और दु:खको सुख समझ लिया। भला, इस उलटी बुद्धिकी भी कोई
सीमा है ! इस प्रकार अज्ञानवश सांसारिक सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंमें ही रम गया और
यह बात बिलकुल भूल गया कि आप ही हमारे सच्चे प्यारे हैं ॥ २५ ॥ जैसे कोई अनजान
मनुष्य जलके लिये तालाबपर जाय और उसे उसीसे पैदा हुए सिवार आदि घासोंसे ढका देखकर
ऐसा समझ ले कि यहाँ जल नहीं है, तथा सूर्यकी किरणोंमें
झूठ-मूठ प्रतीत होनेवाले जलके लिये मृगतृष्णाकी ओर दौड़ पड़े, वैसे ही मैं अपनी ही मायासे छिपे रहनेके कारण आपको छोडक़र विषयोंमें सुखकी
आशासे भटक रहा हूँ ॥ २६ ॥ मैं अविनाशी अक्षर वस्तुके ज्ञानसे रहित हूँ। इसीसे मेरे
मनमें अनेक वस्तुओंकी कामना और उनके लिये कर्म करनेके संकल्प उठते ही रहते हैं।
इसके अतिरिक्त ये इन्द्रियाँ भी जो बड़ी प्रबल एवं दुर्दमनीय हैं, मनको मथ-मथकर बलपूर्वक इधर-उधर घसीट ले जाती हैं। इसीलिये इस मनको मैं रोक
नहीं पाता ॥ २७ ॥ इस प्रकार भटकता हुआ मैं आपके उन चरणकमलोंकी छत्रछायामें आ
पहुँचा हूँ, जो दुष्टोंके लिये दुर्लभ हैं। मेरे स्वामी !
इसे भी मैं आपका कृपाप्रसाद ही मानता हूँ। क्योंकि पद्मनाभ ! जब जीवके संसारसे
मुक्त होनेका समय आता है, तब सत्पुरुषोंकी उपासनासे
चित्तवृत्ति आपमें लगती है ॥ २८ ॥ प्रभो ! आप केवल विज्ञानस्वरूप हैं, विज्ञानघन हैं। जितनी भी प्रतीतियाँ होती हैं, जितनी
भी वृत्तियाँ हैं, उन सबके आप ही कारण और अधिष्ठान हैं।
जीवके रूपमें एवं जीवोंके सुख-दु:ख आदिके निमित्त काल, कर्म,
स्वभाव तथा प्रकृतिके रूपमें भी आप ही हैं तथा आप ही उन सबके
नियन्ता भी हैं। आपकी शक्तियाँ अनन्त हैं। आप स्वयं ब्रह्म हैं। मैं आपको नमस्कार
करता हूँ ॥ २९ ॥ प्रभो ! आप ही वासुदेव, आप ही समस्त जीवोंके
आश्रय (सङ्कर्षण) हैं; तथा आप ही बुद्धि और मनके
अधिष्ठातृदेवता हृषीकेश (प्रद्युम्र और अनिरुद्ध) हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार
करता हूँ। प्रभो ! आप मुझ शरणागतकी रक्षा कीजिये ॥ ३० ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे
पूर्वार्धे अक्रूरस्तुतिर्नाम चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४० ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें