॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)— बावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
द्वारकागमन,श्रीबलरामजी का विवाह तथा श्रीकृष्ण के पास
रुक्मिणी जी
का सन्देशा लेकर ब्राह्मण का आना
श्रीबादरायणिरुवाच
राजासीद्भीष्मको
नाम विदर्भाधिपतिर्महान्
तस्य
पञ्चाभवन्पुत्राः कन्यैका च वरानना २१
रुक्म्यग्रजो
रुक्मरथो रुक्मबाहुरनन्तरः
रुक्मकेशो
रुक्ममाली रुक्मिण्येषा स्वसा सती २२
सोपश्रुत्य
मुकुन्दस्य रूपवीर्यगुणश्रियः
गृहागतैर्गीयमानास्तं
मेने सदृशं पतिम् २३
तां
बुद्धिलक्षणौदार्य रूपशीलगुणाश्रयाम्
कृष्णश्च
सदृशीं भार्यां समुद्वोढुं मनो दधे २४
बन्धूनामिच्छतां
दातुं कृष्णाय भगिनीं नृप
ततो
निवार्य कृष्णद्विड्रुक्मी चैद्यममन्यत २५
तदवेत्यासितापाङ्गी
वैदर्भी दुर्मना भृशम्
विचिन्त्याप्तं
द्विजं कञ्चित्कृष्णाय प्राहिणोद्द्रुतम् २६
द्वारकां
स समभ्येत्य प्रतीहारैः प्रवेशितः
अपश्यदाद्यं
पुरुषमासीनं काञ्चनासने २७
दृष्ट्वा
ब्रह्मण्यदेवस्तमवरुह्य निजासनात्
उपवेश्यार्हयां
चक्रे यथात्मानं दिवौकसः २८
तं
भुक्तवन्तं विश्रान्तमुपगम्य सतां गतिः
पाणिनाभिमृशन्पादावव्यग्रस्तमपृच्छत
२९
कच्चिद्द्विजवरश्रेष्ठ
धर्मस्ते वृद्धसम्मतः
वर्तते
नातिकृच्छ्रेण सन्तुष्टमनसः सदा ३०
सन्तुष्टो
यर्हि वर्तेत ब्राह्मणो येन केनचित्
अहीयमानः
स्वद्धर्मात्स ह्यस्याखिलकामधुक् ३१
असन्तुष्टोऽसकृल्लोकानाप्नोत्यपि
सुरेश्वरः
अकिञ्चनोऽपि
सन्तुष्टः शेते सर्वाङ्गविज्वरः ३२
विप्रान्स्वलाभसन्तुष्टान्साधून्भूतसुहृत्तमान्
निरहङ्कारिणः
शान्तान्नमस्ये शिरसा सकृत् ३३
कच्चिद्वः
कुशलं ब्रह्मन्राजतो यस्य हि प्रजाः
सुखं
वसन्ति विषये पाल्यमानाः स मे प्रियः ३४
यतस्त्वमागतो
दुर्गं निस्तीर्येह यदिच्छया
सर्वं
नो ब्रूह्यगुह्यं चेत्किं कार्यं करवाम ते ३५
एवं
सम्पृष्टसम्प्रश्नो ब्राह्मणः परमेष्ठिना
लीलागृहीतदेहेन
तस्मै सर्वमवर्णयत् ३६
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! महाराज भीष्मक
विदर्भदेशके अधिपति थे। उनके पाँच पुत्र और एक सुन्दरी कन्या थी ।। २१ ।। सबसे
बड़े पुत्रका नाम था रुक्मी और चार छोटे थे—जिनके नाम थे
क्रमश: रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश
और रुक्ममाली। इनकी बहिन थी सती रुक्मिणी ।। २२ ।। जब उसने भगवान् श्रीकृष्णके
सौन्दर्य, पराक्रम, गुण और वैभवकी
प्रशंसा सुनी—जो उसके महलमें आनेवाले अतिथि प्राय: गाया ही
करते थे—तब उसने यही निश्चय किया कि भगवान् श्रीकृष्ण ही
मेरे अनुरूप पति हैं ।। २३ ।। भगवान् श्रीकृष्ण भी समझते थे कि ‘रुक्मिणीमें बड़े सुन्दर-सुन्दर लक्षण हैं, वह परम
बुद्धिमती है; उदारता, सौन्दर्य
शीलस्वभाव और गुणोंमें भी अद्वितीय है। इसलिये रुक्मिणी ही मेरे अनुरूप पत्नी है।
अत: भगवान् ने रुक्मिणीजीसे विवाह करनेका निश्चय किया ।। २४ ।। रुक्मिणीजीके
भाई-बन्धु भी चाहते थे कि हमारी बहिनका विवाह श्रीकृष्णसे ही हो। परंतु रुक्मी
श्रीकृष्णसे बड़ा द्वेष रखता था, उसने उन्हें विवाह करनेसे
रोक दयिा और शिशुपालको ही अपनी बहिनके योग्य वर समझा ।। २५ ।।
जब
परमसुन्दरी रुक्मिणीको यह मालूम हुआ कि मेरा बड़ा भाई रुक्मी शिशुपालके साथ मेरा
विवाह करना चाहता है, तब वे बहुत उदास हो गयीं।
उन्होंने बहुत कुछ सोच-विचारकर एक विश्वासपात्र ब्राह्मणको तुरंत श्रीकृष्णके पास
भेजा ।। २६ ।। जब वे ब्राह्मणदेवता द्वारकापुरीमें पहुँचे, तब
द्वारपाल उन्हें राजमहलके भीतर ले गये। वहाँ जाकर ब्राह्मणदेवताने देखा कि
आदिपुरुष भगवान् श्रीकृष्ण सोनेके सिंहासनपर विराजमान हैं ।। २७ ।। ब्राह्मणोंके
परमभक्त भगवान् श्रीकृष्ण उन ब्राह्मणदेवताको देखते ही अपने आसनसे नीचे उतर गये
और उन्हें अपने आसनपर बैठाकर वैसी ही पूजा की, जैसे देवतालोग
उनकी (भगवान्की) किया करते हैं ।। २८ ।। आदर-सत्कार, कुशल-प्रश्रके
अनन्तर जब ब्राह्मणदेवता खा-पी चुके, आराम-विश्राम कर चुके
तब संतोंके परम आश्रय भगवान् श्रीकृष्ण उनके पास गये और अपने कोमल हाथोंसे उनके
पैर सहलाते हुए बड़े शान्त भावसे पूछने लगे— ।। २९ ।। ‘ब्राह्मणशिरोमणे ! आपका चित्त तो सदा-सर्वदा सन्तुष्ट रहता है न ? आपको अपने पूर्वपुरुषों द्वारा स्वीकृत धर्मका पालन करनेमें कोई कठिनाई तो
नहीं होती ।। ३० ।। ब्राह्मण यदि जो कुछ मिल जाय, उसीमें
सन्तुष्ट रहे और अपने धर्मका पालन करे, उससे च्युत न हो,
तो वह सन्तोष ही उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण कर देता है ।। ३१ ।। यदि
इन्द्रका पद पाकर भी किसीको सन्तोष न हो तो उसे सुखके लिये एक लोकसे दूसरे लोकमें
बार-बार भटकना पड़ेगा, वह कहीं भी शान्तिसे बैठ नहीं सकेगा।
परंतु जिसके पास तनिक भी संग्रह- परिग्रह नहीं है, और जो उसी
अवस्थामें सन्तुष्ट है, वह सब प्रकारसे सन्तापरहित होकर
सुखकी नींद सोता है ।। ३२ ।। जो स्वयं प्राप्त हुई वस्तुसे सन्तोष कर लेते हैं,
जिनका स्वभाव बड़ा ही मधुर है और जो समस्त प्राणियोंके परम हितैषी,
अहंकाररहित और शान्त हैं—उन ब्राह्मणोंको मैं
सदा सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ ।। ३३ ।। ब्राह्मणदेवता ! राजाकी ओरसे तो
आपलोगोंको सब प्रकारकी सुविधा है न ? जिसके राज्यमें प्रजाका
अच्छी तरह पालन होता है और वह आनन्दसे रहती है, वह राजा मुझे
बहुत ही प्रिय है ।। ३४ ।। ब्राह्मणदेवता ! आप कहाँसे, किस
हेतुसे और किस अभिलाषासे इतना कठिन मार्ग तय करके यहाँ पधारे हैं ? यदि कोई बात विशेष गोपनीय न हो तो हमसे कहिये। हम आपकी क्या सेवा करें ?’
।। ३५ ।। परीक्षित् ! लीला से ही मनुष्यरूप धारण करनेवाले भगवान्
श्रीकृष्णने जब इस प्रकार ब्राह्मणदेवता से पूछा, तब
उन्होंने सारी बात कह सुनायी। इसके बाद वे भगवान् से रुक्मिणीजी का सन्देश कहने
लगे ।। ३६ ।।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें