॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)— बावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
द्वारकागमन,श्रीबलरामजी का विवाह तथा श्रीकृष्ण के पास
रुक्मिणी जी
का सन्देशा लेकर ब्राह्मण का आना
श्रीरुक्मिण्युवाच
श्रुत्वा
गुणान्भुवनसुन्दर शृण्वतां ते
निर्विश्य
कर्णविवरैर्हरतोऽङ्गतापम्
रूपं
दृशां दृशिमतामखिलार्थलाभं
त्वय्यच्युताविशति
चित्तमपत्रपं मे ३७
का
त्वा मुकुन्द महती कुलशीलरूप
विद्यावयोद्रविणधामभिरात्मतुल्यम्
धीरा
पतिं कुलवती न वृणीत कन्या
काले
नृसिंह नरलोकमनोऽभिरामम् ३८
तन्मे
भवान्खलु वृतः पतिरङ्ग जायाम्
आत्मार्पितश्च
भवतोऽत्र विभो विधेहि
मा
वीरभागमभिमर्शतु चैद्य आराद्
गोमायुवन्मृगपतेर्बलिमम्बुजाक्ष
३९
पूर्तेष्टदत्तनियमव्रतदेवविप्र
गुर्वर्चनादिभिरलं
भगवान्परेशः
आराधितो
यदि गदाग्रज एत्य पाणिं
गृह्णातु
मे न दमघोषसुतादयोऽन्ये ४०
श्वो
भाविनि त्वमजितोद्वहने विदर्भान्
गुप्तः
समेत्य पृतनापतिभिः परीतः
निर्मथ्य
चैद्यमगधेन्द्र बलं प्रसह्य
मां
राक्षसेन विधिनोद्वह वीर्यशुल्काम् ४१
अन्तःपुरान्तरचरीमनिहत्य
बन्धून्
त्वामुद्वहे
कथमिति प्रवदाम्युपायम्
पूर्वेद्युरस्ति
महती कुलदेवयात्रा
यस्यां
बहिर्नववधूर्गिरिजामुपेयात् ४२
यस्याङ्घ्रिपङ्कजरजःस्नपनं
महान्तो
वाञ्छन्त्युमापतिरिवात्मतमोऽपहत्यै
यर्ह्यम्बुजाक्ष
न लभेय भवत्प्रसादं
जह्यामसून्व्रतकृशान्शतजन्मभिः
स्यात् ४३
ब्राह्मण
उवाच
इत्येते
गुह्यसन्देशा यदुदेव मया हृताः
विमृश्य
कर्तुं यच्चात्र क्रियतां तदनन्तरम् ४४
रुक्मिणीजीने
कहा है—त्रिभुवनसुन्दर ! आपके
गुणोंको, जो सुननेवालोंके कानोंके रास्ते हृदयमें प्रवेश
करके एक-एक अङ्गके ताप, जन्म-जन्मकी जलन बुझा देते हैं तथा
अपने रूप-सौन्दर्यको जो नेत्रवाले जीवोंके नेत्रोंके लिये धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—चारों पुरुषार्थोंके फल एवं स्वार्थ-परमार्थ, सब कुछ
हैं, श्रवण करके प्यारे अच्युत ! मेरा चित्त लज्जा, शर्म सब कुछ छोडक़र आपमें ही प्रवेश कर रहा है ।। ३७ ।। प्रेमस्वरूप
श्यामसुन्दर ! चाहे जिस दृष्टिसे देखें; कुल, शील, स्वभाव, सौन्दर्य,
विद्या, अवस्था, धन-धाम—सभीमें आप अद्वितीय हैं, अपने ही समान हैं। मनुष्य-लोकमें
जितने भी प्राणी हैं, सबका मन आपको देखकर शान्तिका अनुभव
करता है, आनन्दित होता है। अब पुरुषभूषण ! आप ही बतलाइये—ऐसी कौन-सी कुलवती महागुणवती और धैर्यवती कन्या होगी, जो विवाहके योग्य समय आनेपर आपको ही पतिके रूपमें वरण न करेगी ? ।। ३८ ।। इसीलिये प्रियतम ! मैंने आपको पतिरूपसे वरण किया है। मैं आपको
आत्मसमर्पण कर चुकी हूँ। आप अन्तर्यामी हैं। मेरे हृदयकी बात आपसे छिपी नहीं है।
आप यहाँ पधारकर मुझे अपनी पत्नीके रूपमें स्वीकार कीजिये। कमलनयन ! प्राणवल्लभ !
मैं आप-सरीखे वीरको समॢपत हो चुकी हूँ, आपकी हूँ। अब,
जैसे ङ्क्षसहका भाग सियार छू जाय, वैसे कहीं
शिशुपाल निकटसे आकर मेरा स्पर्श न कर जाय ।। ३९ ।। मैंने यदि जन्म-जन्ममें पूर्त
(कुआँ, बावली आदि खुदवाना), इष्ट
(यज्ञादि करना) दान, नियम, व्रत तथा
देवता, ब्राह्मण और गुरु आदिकी पूजाके द्वारा भगवान्
परमेश्वरकी ही आराधना की हो और वे मुझपर प्रसन्न हों तो भगवान् श्रीकृष्ण आकर
मेरा पणिग्रहण करें; शिशुपाल अथवा दूसरा कोई भी पुरुष मेरा
स्पर्श न कर सके ।। ४० ।। प्रभो ! आप अजित हैं। जिस दिन मेरा विवाह होनेवाला हो
उसके एक दिन पहले आप हमारी राजधानीमें गुप्तरूपसे आ जाइये और फिर बड़े-बड़े
सेनापतियोंके साथ शिशुपाल तथा जरासन्धकी सेनाओंको मथ डालिये, तहस-नहस कर दीजिये और बलपूर्वक राक्षस-विधिसे वीरताका मूल्य देकर मेरा
पाणिग्रहण कीजिये ।। ४१ ।। यदि आप यह सोचते हों कि ‘तुम तो
अन्त:पुरमें—भीतरके जनाने महलोंमें पहरेके अंदर रहती हो,
तुम्हारे भाई-बन्धुओंको मारे बिना मैं तुम्हें कैसे ले जा सकता हूँ ?’
तो इसका उपाय मैं आपको बतलाये देती हूँ। हमारे कुलका ऐसा नियम है कि
विवाहके पहले दिन कुलदेवीका दर्शन करनेके लिये एक बहुत बड़ी यात्रा होती है,
जुलूस निकलता है—जिसमें विवाही जानेवाली
कन्याको, दुलहिन को नग रके बाहर गिरिजादेवीके मन्दिरमें जाना
पड़ता है ।। ४२ ।। कमलनयन ! उमापति भगवान् शङ्करके समान बड़े-बड़े महापुरुष भी
आत्मशुद्धिके लिये आपके चरणकमलोंकी धूलसे स्नान करना चाह ते हैं। यदि मैं आपका वह
प्रसाद, आपकी वह चरणधूल नहीं प्राप्त कर सकी तो व्रतद्वारा शरीरको
सुखाकर प्राण छोड़ दूँगी। चाहे उसके लिये सैकड़ों जन्म क्यों न लेने पड़ें,
कभी-न-कभी तो आपका वह प्रसाद अवश्य ही मिलेगा ।। ४३ ।।
ब्राह्मणदेवताने
कहा—यदुवंशशिरोमणे ! यही
रुक्मिणीके अत्यन्त गोपनीय सन्देश हैं, जिन्हें लेकर मैं
आपके पास आया हूँ। इसके सम्बन्धमें जो कुछ करना हो, विचार कर
लीजिये और तुरंत ही उसके अनुसार कार्य कीजिये ।। ४४ ।।
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे
रुक्मिण्युद्वाहप्रस्तावे
द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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